भिखारी ठाकुर : जनजागरण के रहे प्रतीक

Last Updated 10 Jul 2024 01:03:57 PM IST

भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) को याद करने का यह सही समय है। समाज कई तरह के बदलावों के दौर से गुजर रहा है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक रूप से हम सशक्त हुए हैं, जिसमें नैतिकता का नितांत लोप दिखाई पड़ता है।


लोक कवि भिखारी ठाकुर

हमारे  रचनाकार, कलाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से, अपने  तरीके से समाज को रास्ता दिखाने का प्रयास करते रहे हैं। इसके लिए विद्वता का होना जरूरी नहीं है। अपनी  परंपराओं से हम बहुत कुछ सीखते हैं। साहस से रचते हैं। इसी परंपरा के लोक कलाकार हैं भिखारी ठाकुर।

लोक कवि भिखारी ठाकुर ने अपनी  रचनाओं  को जन जागरण का हथियार बना दिया। वे तुलसीदास को अपना गुरु मानकर उनकी शैली अपनाते हैं तो कबीर की तरह सामान्य जन की भाषा अपना कर अंतिम जन तक अपनी बात पहुंचाने का कार्य करते हैं। सही मायने में भिखारी ठाकुर आधुनिक भोजपुरी पुनर्जागरण के दूत थे। उनकी सामाजिक चेतना पर भोजपुरी क्षेत्र के साथ-साथ बंगाल का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से पड़ा।

1829 में विलियम बेंटिक ने सती-प्रथा उन्मूलन कानून बनाया, जिसका प्रभाव भारतीय जनमानस पर व्यापक रूप से पड़ा। राजा राममोहन राय समाज के नायक बन कर उभरे। राय ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को उठाया। लोक में व्याप्त कलाओं में निहित आस्तिकता और आध्यात्मिकता को वाचिक परंपरा से प्राप्त भक्ति साहित्य की आस्तिकता और आध्यात्मिकता से मिला कर भिखारी ठाकुर ने अपने यथार्थ को रचा जो उनकी रचनात्मकता आधार था।  

भारत में पुनर्जागरण के ज्यादातर पुरोधा सामाजिक रूप से ऊपरी तबके से थे, जबकि भिखारी ठाकुर नाई जाति में पैदा हुए थे और पढ़े-लिखे नहीं थे। भिखारी को अपार लोकप्रियता मिली। किंचित इसके पीछे ‘तमाशा’ के उस माध्यम का भी हाथ रहा जिनके जरिए उन्होंने अपनी बात कही और जीते जी किंवदंती बन गए। भिखारी ठाकुर के प्रतीकीकरण की प्रक्रिया बाद में हुई। इस प्रक्रिया में बिहार के राजनीतिक समीकरणों और वहां के नेताओं ने भी प्रमुख भूमिका निभाई। एक समाज चेता प्रतीक के रूप में भिखारी ठाकुर और मजबूती से उभरे।

भिखारी ठाकुर व्यक्तिगत आचार व्यवहार  तथा सामाजिक आदान-प्रदान में सांस्कृतिक परंपराओं का पालन करते थे परंतु वर्ण-व्यवस्था की त्रासदी को स्वयं भोगते हुए भी वे उनके खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया की जगह रचनात्मक समाधान की उम्मीद रखते थे। यह उनकी रचनाओं  में  साफ  दिखता है और उसमें पूर्ण विश्वास करते थे। शोषित, दलित, नारी और गरीब पर हो रहे अत्याचार को लेकर चिंतित  दिखाई  पड़ते हैं। हाशिये पर गुजर-बसर कर रहे  इस समाज की मुक्ति के लिए आजीवन प्रयत्न करते रहे। अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति का माध्यम नाटकों को बनाया। तमाशा और नाच के जरिए उन्होंने तत्कालीन समस्याओं और समाज की विद्रूपताओं पर साहसपूर्ण तरीके से विवेचना की। साहित्य में भिखारी ठाकुर के प्रतीकीकरण के प्रसंग और महत्त्व को समझने के लिए भोजपुरी साहित्य के इतिहास, उसकी धाराओं और उसकी प्रवृत्तियों को समझना जरूरी है।

भोजपुरी साहित्य का लंबा इतिहास रहा है। वैसे तो कुछ जानकार कबीर को भोजपुरी साहित्य के आदिकवि के रूप में देखते हैं, लेकिन कइयों ने इसकी जड़ें विक्रमशिला के सिद्ध साहित्य और शाहाबाद के ईशानचंद्र की कविताओं में ढूंढी हैं। ये आध्यात्मिक और संस्कार गीत भोजपुरी साहित्य की सुदीर्घ लोक परंपरा को चरितार्थ करते हैं। दूसरी तरफ, अगर हम भोजपुरी साहित्य में प्रकाशन की परंपरा को देखें तो यह लगभग 140 वर्ष पुरानी है। इसकी शुरु आत 1885 में तेग अली के बदमाश दर्पण के प्रकाशन के साथ होती है।

उल्लेखनीय है कि यद्यपि तेग अली बनारस के भारतेंदु मंडल के संपर्क में आए थे, और उन्हीं के प्रोत्साहन  से बदमाश दर्पण प्रकाशित हो पाया था, लेकिन अली स्वयं कोई साहित्यकार या विद्वान नहीं थे। पहलवानी करते थे और पेशे से लठैत थे। भोजपुरी की सबसे पहले प्रकाशित पुस्तक के रचनाकार का पेशा इस बात की ओर इशारा करता है कि प्रिंट के आने के बाद भी भोजपुरी साहित्य में लोक संस्कृति का हस्तक्षेप व्यापक रहा है।

अपनी बहुचर्चित किताब ‘जोरालिटी एंड लिटरेसी दी टेक्नोलोजइजिंग ऑफ दी र्वल्ड’ (1982) में वॉल्टर जे ऑग कहते हैं कि प्रिंट के आने से हमारे विचार पद्धति, सोच और संस्कृति में व्यापक परिवर्तन आए। लोक संस्कृति किताबों में कहीं गुम सी हो गई और अनूठी बौद्धिक सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ। लेकिन भोजपुरी साहित्य की धाराओं पर नजर डालें तो पाएंगे कि आंग का सूत्रीकरण शायद पूरी तरह से सटीक नहीं है।

प्रिंट के आने के बाद भी भोजपुरी साहित्य सिर्फ  मनोरंजन के ही नहीं, बल्कि भोजपुरी साहित्य और समाज के बौद्धिक विन्यासों के भी प्रतीक हैं। भिखारी ठाकुर विरले रचनाकार हैं जिनकी कला और रचना का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता था। लोग उनके मंचन के बाद रोते-बिलखते और अपनी सामाजिक कुरीति को खत्म करने की सामूहिक प्रतिज्ञा लेते थे। महात्मा गांधी जो काम अपने रचनात्मक कार्यक्रम के जरिए कर रहे थे वही काम भिखारी ठाकुर अपनी कला के माध्यम से कर रहे थे। भिखारी पूरे भोजपुरी इलाके के सामाजिक परिवर्तन के प्रतीक हैं।

पंकज चौबे


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