बतंगड़ बेतुक : आप ही जिम्मेदार हैं देवावतार

Last Updated 16 Jun 2024 12:43:33 PM IST

झल्लन हमारी तरफ आ रहा था। उसके हाथ में कागज का एक खर्रा सुरसुरा रहा था। हमने पूछा, ‘ये कागज कहां से उठा लाया है, इसमें क्या टीप लाया है?’


बतंगड़ बेतुक : आप ही जिम्मेदार हैं देवावतार

झल्लन बोला, ‘ददाजू, इस दौरान हम न जाने कैसे-कैसे खयालों में डूबे-उतराए हैं, किस-किस पार्टी के जाने किस-किस नेता के लिए हमारे मन में कैसे-कैसे लंगड़-झंगड़ खयाल आये हैं लेकिन कोई भी हमें कुछ कहने लायक नहीं लगा सो हम अपने युगपुरुष के लिए एक नयी चिट्ठी लिख लाये हैं।’

हमने कहा, ‘तूने पिछली बार भी चिट्ठी हमसे सुधरवायी थी, अपने युगपुरुष को पहुंचायी थी, हम जानते हैं कि न तेरी चिट्ठी का किसी ने कोई संज्ञान लिया होगा और न तुझे किसी ने पावती का पत्र दिया होगा। तेरी कहीं कोई कीमत नहीं है, तू अभी तक ये बात क्यों नहीं समझ पाया है और तू कह रहा है कि तू फिर एक चिट्ठी लिख लाया है।’ झल्लन बोला, ‘देखो ददाजू, हम अपने आपको इस देश का सभ्य और समझदार नागरिक मानते हैं, इस नाते कोई हमारी बात सुने या न सुने पर हम सुनाने के अपने नागर कर्तव्य को पहचानते हैं। सो यही कर्तव्य निभाने के लिए यह नयी चिट्ठी लिख लाये हैं और आपको सुनाने चले आये हैं।’

हमने कहा, ‘न हम तुझे कुछ सिखा सकते हैं न समझा सकते हैं और न बिना सुने तुझे अपने पास से हटा सकते हैं।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, कभी-कभी आप सही मौके पर बिल्कुल सही बात समझते हैं इसीलिए हम आपकी इज्जत करते हैं। और ध्यान से सुनिए, अब हम सुनाना शुरू करते हैं।’ हमको हंसी आयी जो झल्लन को नहीं सुहायी। वह बोला, ‘ददाजू, हंसिए मत, हमने बड़ी गंभीर बात लिखी है जो आपसे यूं ही नहीं टाली जाएगी और भविष्य में आप कभी चुनाव लड़कर युगपुरुष बनने की कोशिश करोगे तो आपके भी बहुत काम आएगी।’ हमने कहा, ‘अब सुनाएगा भी या ऐसे ही कुलावे भरता रहेगा और हमारा वक्त खराब करता रहेगा।’

उसने सुनाना शुरू किया, ‘हे देवावतार, आपका यह झल्लन एक बार फिर आपका मान रख रहा है, आपको बिना किसी खोट-आबंडर के निश्छल पण्राम कर रहा है और हमारे जो खांटे-टटके मिलावटविहीन शुद्ध विचार हैं उन्हें आपके निहारार्थ इस पत्र में लिख रहा है। हम जानते हैं कि आप जैसे विराट व्यक्तित्व का धरावतरण यूं ही नहीं होता है, यह स्वयं विधि का विधान होता है। सो हम आपके देवत्व को नमन करते हुए कह रहे हैं कि अब तक आपको भरोसा हो गया होगा कि आप चार सौ पार नहीं कर पाये हैं और दे दनादन, रैली-भाषण, सभा-संबोधन, मीडिया मिलन मेलन और तमाम हुंकार-फुंकार के बावजूद आप केवल दो सौ इकतालीस तक ही पहुंच पाये हैं।

आप जिस जनता का वास्ता देकर बार-बार कह रहे थे कि वह आपको चार सौ पार देखना चाहती है सो वही चार सौ पार कराएगी, आपको तो खैर होगा ही नहीं पर हमें भी भरोसा नहीं था कि वही जनता आपको ऊपर उठाने के बजाय इतना नीचे घसीट लाएगी। ‘हे महामानव, हमें मालूम है कि आपको अपना यह हश्र बिल्कुल नहीं भा रहा होगा, आपको जनता का रुख भी नहीं सुहा रहा होगा और विपक्ष पर तो जबर्दस्त गुस्सा आ रहा होगा। अब देखिए, आपके चेले-चांकुटे आपकी सीट गिरावट के कारणों का पता लगा रहे हैं, इधर से उधर छलांग लगा रहे हैं और कभी इस पर उंगली उठा रहे हैं तो कभी उस पर उंगली उठा रहे हैं लेकिन हैरत की बात तो यह कि आपका नाम तक जुबान पर नहीं ला रहे हैं।

वो तो भला हो अपने भागवत जी का, अपने इंद्रेश जी का कि उन्होंने अहंकार नाम के तत्व को खोज निकाला है और बिना आपका नाम लिये इस तत्व को आपके खाते में जा डाला है। अहंकार शब्द की महत्ता को आप भी मानते होंगे, इसका क्या मतलब है आप अच्छी तरह जानते होंगे। इसी का भूत था कि जब आप बोलना शुरू करते थे तो शुरुआत अपने आप से करते थे और जब बोलना बंद करते थे तो समापन भी अपने आप से करते थे। आपकी गारंटियां आपकी पार्टी और आपकी सरकार के पास तक नहीं जा रही थीं सीधे आपके ही नाम से आ रही थीं, आपको भले ही भ्रम हो लेकिन आपकी ये घमंडित गारंटियां जनता को नहीं सुहा रही थीं। जब आप मंगलसूत्र, मीट, मछली, मुजरा, मुसलमान का वृत्तानुप्रास बहा रहे थे तो भले आपको लगता हो कि आप शब्दभेदी बाण चला रहे हैं, मगर आप नहीं देख पाये कि आपके ये बाण आपके ही अनुयायियों के मन को नहीं भेद पा रहे थे।

आपको लगता था कि आप कहीं भी तोड़-फोड़ मचाकर किसी भी पार्टी के किसी भी भ्रष्ट सत्ताकांक्षी को अपने साथ ले आएंगे तो वह गंगा नहा जाएगा और उसके पाप धुल जाएंगे और किसी भी लोक आदर्श और लोक नैतिकता से परे आपके ये कृत्य आपके हर समर्थक-प्रशंसक को आपके कारण ही पच जाएंगे। पर अपने अहंकार में आपने यह ध्यान नहीं दिया कि लोक विवेक ने आपके इस व्यवहार को स्वीकार नहीं किया।..’ झल्लन अपनी रौ में बह रहा था पर वक्त हमें उठने को कह रहा था। सो हमने कहा, ‘झल्लन, अब हम उठेंगे, तेरी चिट्ठी की अगली चिठियावन अगली बैठकी में सुनेंगे।’

विभांशु दिव्याल


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