आईआईटी : फिर किसे मिलेगी नौकरी
इस हफ्ते अखबारों में जिस खबर ने सबको चौंकाया वह थी कि इस साल आईआईटी से पास हुए 38 फीसद युवाओं को रोजगार नहीं मिला। यह अनहोनी घटना है वरना होता यह था कि आईआईटी में प्रवेश मिला तो बढ़िया रोजगार की गारंटी होती थी।
आईआईटी : फिर किसे मिलेगी नौकरी |
फर्क इतना ही होता था कि किसी को 60 लाख रुपए साल का पैकेज मिलता था तो किसी को 3 करोड़ रु पए साल का भी। पर इस साल तो आईआईटी की प्रतिष्ठित डिग्री के बावजूद 50 हजार महीने की भी नौकरी नहीं मिल रही। स्थिति सुधरने के आसार नजर नहीं आते क्योंकि पूरी दुनिया में मंदी का असर फैलता जा रहा है। अब पता नहीं इन युवाओं को कितने बरस घर बैठना पड़ेगा या मामूली नौकरी से ही संतोष करना पड़ेगा।
सोचने वाली बात यह है कि आईआईटी में दाखिला और उसकी पढ़ाई कोई आसान काम नहीं होता। मां-बाप और उनके होनहार बच्चे लाखों रु पया और बरसों की तपस्या झोंक कर आईआईटी में दाखिले की तैयारी करते हैं। दिल्ली का मुखर्जी नगर हो या राजस्थान का कोटा शहर आईआईटी के अभ्यर्थियों को यहां लाखों की तादाद में संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है जिसके बाद दाखिला मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं होती। सोचिए कि एक मध्यमवर्गीय परिवार पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें अपने बेरोजगार बच्चों के लटकते चेहरे रोज देखने पड़ रहे हैं, जबकि इसमें न तो युवाओं का दोष है और न ही उनके परिवार का।
यह संकट आर्थिक नीतियों की कमियों के कारण उत्पन्न हुआ है। कुछ वर्ष पहले मद्रास आईआईटी के प्रो. एम सुरेश बाबू और साई चंदन कोट्टू ने देश की बेरोजगारी पर एक तथ्यात्मक शोधपत्र प्रस्तुत किया था। उनका कहना है कि 50 हजार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ से फौरी राहत भले मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोजगार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढांचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोजगार की मात्रा को क्रमश: घटा कर औपचारिक रोजगार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोजगारी खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोजगारी फैल चुकी है। चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज्यादा रोजगार देते हैं।
इसलिए उपरोक्त आंकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं, उससे तो और भी तेजी से बेरोजगारी बढ़ने की स्थितियां पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मजदूर और अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गांवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोजगार के मामले में भारत सबसे ऊपर है जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मजदूर कम मजदूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें क्योंकि इनका ट्रेड यूनियनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मजदूरों में से 39.8 करोड़ मजदूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं, जिनकी दैनिक आय 200 रुपए से भी कम होती है। इसलिए नई सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियां होंगी। पहली; शहरों में रोजगार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 10 वर्षो में बेरोजगारी का फीसद लगातार बढ़ता गया है। आज भारत में 45 वर्षो में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है। दूसरा; शहरी मजदूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएं, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके। चार जून को लोक सभा के चुनाव परिणाम आ जाएंगे। सरकार जिस दल की भी बने उसे तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोजगार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियां बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा।
इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन वाली विकासात्मक नीतियां लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढांचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा गया है कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मजदूरों तक कभी नहीं पहुंच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर खरीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोजगार बढ़ेगा। पांचवां; शहरी रोजगार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफाई जैसे क्षेत्र में तेजी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि प्रवासी मजदूरों को रोजगार दे सकें। अगर होती तो वे गांव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। मौजूदा हालात में सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोजगार मिल जाएगा, नासमझी होगी। जरूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मजदूर लौट कर गांव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से संभाला जा सकता है, अज्ञानता होगी।
ये वो मजदूर हैं, जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मजदूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गांव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मजबूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोजगारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा, जबकि बेरोजगारों में ज्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोजगार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्मानजनक रोजगार पैदा करना समय की मांग है। नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगा क्योंकि यह तो सिर्फ शहरी मजदूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ करोड़ों नौजवान बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर भी बेरोजगार हैं। इनके लिए फौरन कुछ करना होगा वरना युवाओं में बढ़ते आक्रोश को संभालना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
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