लापता लेडीज : महिलाओं के लिए सबक
बचपन से पढ़ते आए हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। पिछले सौ वर्षो से फिल्मों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। खासकर उन फिल्मों को जिनके कथानक में सामाजिक सरोकार के मुद्दे उठाए जाते हैं।
लापता लेडीज : महिलाओं के लिए सबक |
इसी क्रम में एक नई फिल्म आई है ‘लापता लेडीज’ जो काफी चर्चा में है। मध्य प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि में बनाई गई ये फिल्म महिलाओं के लिए बहुत उपयोगी है विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के लिए।
फिल्म की शुरु आत एक रोचक परिदृश्य से होती है जिसमें दो नवविवाहित दुल्हन लंबे घूंघट के कारण रेलगाड़ी के डिब्बे में एक दूसरे के पति के साथ चली जाती हैं। उसके बाद की कहानी इन दो महिलाओं के संघर्ष की कहानी है जो अंत में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेती हैं। इस कहानी का सबसे बड़ा सबक तो यह है कि नवविवाहिताओं को इतना लंबा घूंघट निकालने के लिए मजबूर न किया जाए। उनका सिर जरूर ढका हो पर चेहरा खुला हो।
दूसरा सबक यह है कि ग्रामीण परिवेश में पाली-बढ़ी, अनपढ़ या कम पढ़ी-लिखी लड़कियों को विदा करते समय उनके घर वालों को उस लड़की के ससुराल और मायके का पूरा नाम पता और फोन नंबर लिख कर देना चाहिए। जैसा प्राय: मेलों और पर्यटन स्थलों में जाते समय शहरी माता-पिता अपने बच्चों की जेब में नाम-पता लिख कर पर्ची रख देते हैं। अगर भीड़ में बच्चा खो भी जाए तो यह पर्ची उसकी मददगार होती है।
इस फिल्म का तीसरा संदेश यह है कि शहरी लड़कियों की तरह अब ग्रामीण लड़कियां भी पढ़ना और आगे बढ़ना चाहती हैं जबकि उनके मां-बाप इस मामले में उनको प्रोत्साहित नहीं करते और कम उम्र में ही अपनी लड़कियों का ब्याह कर देना चाहते हैं। ऐसा करने से उस लड़की की आकांक्षाओं पर कुठाराघात हो जाता है और उसका शेष जीवन हताशा में गुजरता है। आज के इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में शायद ही कोई गांव होगा जो इनके प्रभाव से अछूता हो। हर किस्म की जानकारी, युवक-युवतियों को स्मार्टफोन पर घर बैठे ही मिल रही है। जरूरी नहीं कि सारी जानकारी सही ही हो, इसलिए उसकी विश्वसनीयता जांचना-परखना जरूरी होता है।
जानकारी सही है और ग्रामीण परिवेश में पाल रही कोई युवती उसके आधार पर आगे पढ़ना और अपना कॅरियर बनाना चाहती है तो उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। फिल्म में दिखाया है कि कैसे एक युवती को उसके घरवालों ने उसकी मर्जी के विरु द्ध उसकी शादी एक बिगड़ैल आदमी से कर दी और जैविक खेती को पढ़ने, सीखने की उसकी अभिलाषा कुचल दी गई। पर परिस्थितियों ने ऐसा पलटा खाया कि यह जुझारू युवती विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए अपने गंतव्य तक पहुंच गई। पर ऐसा जीवट और किस्मत हर किसी की नहीं होती। बचपन में सरकार प्रचार करवाती थी, ‘लड़कियां हों या लड़के, बच्चे दो ही अच्छे’। पिछले 75 सालों में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा तमाम योजनाएं चलाई गई, जिनमें लड़कियों को पढ़ाने, आगे बढ़ाने और आत्मनिर्भर बनाने के अनेक कार्यक्रम चलाए गए और इसका असर भी हुआ। आज कोई भी कार्यक्षेत्र ऐसा नहीं है जहां महिलाएं सक्रिय नहीं हों।
पिछले दिनों संघ लोक सेवा आयोग के परिणामों में ऐसे कई सुखद समाचार मिले जब निर्धन, अशिक्षित और मजदूरी पेशा परिवारों की लड़कियां प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो कर पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी बन गई। बावजूद इसके देश में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। हाल में कर्नाटक की हासन लोक सभा सीट से उम्मीदवार प्रज्वल रेवन्ना के कथित लगभग 3000 वीडियो सोशल मीडिया पर जारी हुए जिनमें आरोपी पर हर उम्र की सैकड़ों महिलाओं के साथ जबरन यौनाचार करने के दिल दहलाने वाले दृश्य हैं।
आरोपी अब देश छोड़ कर भाग चुका है। कर्नाटक सरकार की ‘एसआईटी’ जांच में जुटी है। पर क्या ऐसे प्रभावशाली लोगों का कानून कुछ बिगाड़ पाता है? पिछले वर्ष मणिपुर में युवतियों को निर्वस्त्र करके जिस तरह भीड़ ने उन्हें अपमानित किया उसने दुनिया भर के लोगों की आत्मा को झकझोर दिया। पश्चिमी एशिया में तालिबानियों और आतंकवादियों के हाथों प्रताड़ित की जा रही नाबालिग बच्चियों और महिलाओं के रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाए रहते हैं। भारत में दलित महिलाओं को सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र करने, प्रताड़ित करने, बलात्कार करने और हत्या कर देने के मामले आय दिन हर राज्य से सामने आते रहते हैं। पुलिस और कानून बहुत कम मामलों में प्रभावी हो पाता है और वो भी देर से।
महिलाओं पर पुरु षों के अत्याचार का इतिहास सदियों पुराना है। कबीलाई समाज से लेकर सामंती समाज और सामंती समाज से लेकर के आधुनिक समाज तक के सैकड़ों वर्षो के सफर में महिलाएं ही पुरु षों की हैवानियत का शिकार हुई हैं। कैसी विडंबना है कि मां दुर्गा, मां सरस्वती और मां लक्ष्मी की उपासना करने वाले भारतीय समाज में भी महिलाओं को वो सम्मान और सुरक्षा नहीं मिल पाई है जिसकी वो हकदार हैं। ऐसे में ‘लापता लेडीज’ जैसी दर्जनों फिल्मों की जरूरत है जो पूरे समाज को जागरूक कर सकें। महिलाओं के प्रति संवेदनशील बना सकें और उनके लिए आगे बढ़ने के लिए अवसर भी प्रदान कर सकें।
एक महिला जब सक्षम हो जाती है तो तीन पीढ़ियों को संभालती है। सास-ससुर की पीढ़ी, अपनी पीढ़ी और अपने बच्चों की पीढ़ी। पर यह बात बार-बार सुनकर भी पुरु ष प्रधान समाज रवैया बदलने को तैयार नहीं है। इस दिशा में समाज सुधारकों, धर्म गुरु ओं और सरकार को और भी ज्यादा गंभीर प्रयास करने चाहिए। बेटियों को मिलने वाली चुनौतियों से घबराकर कुछ विकृत मानसिकता के परिवार कन्या भ्रूण हत्या जैसे अमानवीय कृत्य करने लग जाते हैं।
इस दिशा में कुछ वर्ष पहले एक विज्ञापन जारी हुआ था जिसमें हरियाणा के गांव में एक नौजवान अपने घर की छत पर थाली पीट रहा था। प्राय: पुत्र जन्म की खुशी में वहां ऐसा करने का रिवाज है। पर इस नौजवान की थाली की आवाज सुन कर वहां जमा हुए पचासों ग्रामवासियों को जब पता चला कि नौजवान अपने घर जन्मी बेटी की खुशी में इतना उत्साहित है, तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। काश! हम ऐसा समाज बना सकें।
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