सामयिक : चर्चा में राहुल की उम्मीदवारी
उत्तर प्रदेश के रायबरेली और अमेठी लोक सभा सीट के संभावित उम्मीदवारों को लेकर इतनी लंबी चर्चा शायद ही कभी चली हो।
सामयिक : चर्चा में राहुल की उम्मीदवारी |
यह इसलिए स्वाभाविक था कि इन दोनों को सोनिया गांधी परिवार का विरासत स्थान माना जाता है। चूंकि सोनिया गांधी राजस्थान से राज्य सभा के लिए निर्वाचित हो चुकीं हैं और उन्होंने अपने पत्र में आगे चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी, इसलिए लोगों ने अनुमान लगाया कि वहां से प्रियंका गांधी वाड्रा की चुनावी राजनीति की शुरुआत हो जाएगी। राहुल गांधी अमेठी से तीन बार सांसद रह चुके हैं और चौथी बार 2019 में पराजित हुए, इसलिए वे वहां से लड़ेंगे ऐसी कल्पना अस्वाभाविक नहीं थी।
कांग्रेस के कई नेताओं, कार्यकर्ताओं और स्वयं को उस पार्टी का जानकार मानने वाले पत्रकारों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि वायनाड का चुनाव खत्म होते ही राहुल गांधी की अमेठी तथा प्रियंका की रायबरेली से उम्मीदवारी की घोषणा हो जाएगी। यह सामान्य स्थिति नहीं है कि राहुल गांधी के रायबरेली से उम्मीदवारी की घोषणा हुई तो नामांकन की अंतिम तिथि के ठीक पहले। वायनाड मतदान खत्म होने के बाद एक सप्ताह का समय लिया जाना बताता है कि राहुल को वहां से लड़ने के लिए मनाना कितना कठिन रहा होगा। प्रश्न है कि ऐसा क्यों हुआ? रायबरेली से राहुल के उम्मीदवार होने और अमेठी से न होने तथा प्रियंका के चुनावी मैदान में न उतरने के मायने क्या हैं? कांग्रेस पर दृष्टि रखने वाले जानते हैं कि ज्यादातर नेता चाहते थे कि राहुल अमेठी एवं प्रियंका रायबरेली से चुनाव लड़ें, लेकिन राहुल ऐसा नहीं चाहते थे।
2019 में पराजय के बाद कांग्रेस में यह सोच दृढ़ हुई कि लाख कोशिशों के बावजूद उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिसा जैसे राज्यों में कांग्रेस का पुनर्उद्भव अभी कठिन है। उसे राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी स्थिति पानी है तो दक्षिण भारत में फोकस कर उत्तर की ओर बढ़ना होगा। कांग्रेस के रणनीतिकारों का यह भी मानना रहा है कि मुस्लिम वोट का एकमुश्त निकल जाना कई राज्यों में उसके लगभग समाप्त होने का एक बड़ा कारण रहा और उसकी जगह क्षेत्रीय पार्टियों ने ले लिया। तो मुस्लिम वोट की वापसी उसका सबसे बड़ा लक्ष्य हो गया। केरल में कांग्रेस का मुस्लिम लीग से गठबंधन है और वायानाड से संदेश जा सकता था कि कांग्रेस और मुसलमान साथ हैं।
इसे ध्यान में रखें तो निष्कर्ष आएगा कि राहुल यदि 2019 में अमेठी जीत जाते तब भी वायनाड को नहीं छोड़ते। हां, उस स्थिति में शायद प्रियंका को वहां से लड़ाने की कोशिश होती या राहुल किसी विसनीय व्यक्ति को खड़ा करते। चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी एवं कांग्रेस के पास कोई विकल्प बचा नहीं था। राहुल गांधी अमेठी को लेकर वाकई अनिच्छुक थे? क्या उनके अंदर वहां के लोगों को लेकर गुस्सा है? लोक सभा चुनाव हारने के बाद अमेठी पर जुलाई 2019 की एक समीक्षा बैठक में वे शामिल हुए। उसके ढाई वर्ष बाद दिसम्बर 2022 में जन जागरण यात्रा के लिए अमेठी गए और फिर अब न्याय यात्रा के दौरान। यानी पराजय के बाद उन्होंने अमेठी की ओर मुंह मोड़ा ही नहीं। न उस पर कोई बयान दिया न संसद कोई प्रश्न पूछा। ऐसे में राहुल वहां से चुनाव लड़ते तो लोगों के सामने अपने पक्ष में कौन सा तर्क रखते? दूसरे, विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पांच विधानसभा क्षेत्र में से केवल एक क्षेत्र में दूसरे स्थान पर रही थी।
राहुल को उनके रणनीतिकारों तथा भारत से लेकर विश्व के वामपंथियों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समानांतर राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर पर एक ब्रांड के रूप में उभारने की कोशिश की है। अगर अमेठी से हार जाते तो ब्रांड ही ध्वस्त हो जाता। स्मृति ईरानी ने बाहरी का तमगा हटाने के लिए वहां घर बनाया तथा गौरीगंज विधानसभा क्षेत्र के मैदान गांव से मतदाता हैं। इस बीच अमेठी से सोनिया गांधी परिवार के अनेक करीबी व प्रमुख नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं। जोखिम रायबरेली में भी है। रायबरेली के सारे राजनीतिक समीकरण पिछले 5 वर्षो में बदल चुके हैं। हालांकि सोनिया गांधी की सीट होने के कारण उनके रणनीतिकारों को वहां संभावना ज्यादा नजर आई है। राज्य सभा में जाने के साथ सोनिया गांधी ने एक पत्र जारी किया जिसमें क्षेत्र को लेकर भावुक बातें थी। कांग्रेस के सामने प्रश्न था कि दोनों सीटों में किसी पर सोनिया परिवार का कोई व्यक्ति चुनाव न लड़ा तो संदेश यही जाएगा कि इन्होंने उत्तर प्रदेश को छोड़ दिया है या हार के भय से चुनाव लड़ना नहीं चाहते। हालांकि कुछ प्रश्न अभी भी बने हुए हैं।
मसलन, प्रियंका को चुनाव क्यों नहीं लड़ाया गया? कहा जा रहा है कि वह चुनाव लड़तीं तो एक जगह अटक जाती, पूरे देश में प्रचार नहीं कर पातीं। क्या ऐसा होता है कि किसी पार्टी के शीर्ष नेताओं की टोली इसलिए चुनाव नहीं लड़ती कि उसे दूसरों का प्रचार करना है? प्रथम परिवार पर पूरी पार्टी की जिम्मेवारी है। इसका यह अर्थ नहीं कि वे चुनाव लड़े ही नहीं। इसलिए यह तर्क गले नहीं उतरता। कायदे से देखा जाए तो रायबरेली को परिवार की शत प्रतिशत परंपरागत सीट मानने में हिचक होगी। 1952 और 57 में वहां से फिरोज गांधी चुनाव लड़े थे जिनसे यह परिवार अपना रिश्ता जोड़ता नहीं। प्रयागराज के उनकी कब्र पर कभी सोनिया गांधी परिवार को जाते किसी ने नहीं देखा।
उसके बाद इंदिरा गांधी राजनीति में 1964 में राज्य सभा से आई। 1971 में उन्होंने रायबरेली से चुनाव लड़ना शुरू किया, जीतीं, पर 1977 में हार गई। 1980 में उन्होंने रायबरेली के साथ आंध्र प्रदेश के मेडक से चुनाव लड़ा और दोनों जीतने के बाद रायबरेली से त्यागपत्र दिया। राजीव गांधी ने रायबरेली को अपना क्षेत्र बनाने की जगह 1981 में उस अमेठी से चुनाव लड़ा जहां से 1980 में संजय गांधी ने अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत की थी। सोनिया गांधी ने भी 1999 में अपने चुनावी राजनीति की शुरुआत अमेठी से की और 2004 में राहुल गांधी को विरासत सौंप कर स्वयं रायबरेली शिफ्ट हो गई।
इस तरह परिवार की विरासत सीट रायबरेली से ज्यादा अमेठी होनी चाहिए। कुल मिलाकर राहुल भले अंतिम समय में रायबरेली से उम्मीदवार बन गए, लेकिन इसका वह संदेश नहीं गया जो कांग्रेस के लिए ऐसे कठिन समय में उनके समर्थकों और आम जनता के बीच में जाना चाहिए था। दरअसल, कांग्रेस अभी भी विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व यानी नेतृत्व को लेकर दिशाभ्रम और अनिश्चितता का शिकार है और यही रायबरेली एवं अमेठी के संदर्भ में प्रदर्शित हुआ है।
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