मीडिया : मतदान कम क्यों मीडिया चिंतित क्यों

Last Updated 12 May 2024 02:09:59 PM IST

आधा चुनाव हो चुका है। हर एंकर, रिपोर्टर, चुनाव विशेषज्ञ कहीं खुले कहीं छिपे ‘कयास’ लगाते रहते हैं कि कौन जीत रहा है:‘एनडीए’ कि ‘इंडी’ गठबंध? यों, अपना मनोबल बनाए रखने के लिए हर दल, हर नेता एक मनोवैज्ञानिक युद्ध भी लड़ रहा है। हर कोई अपने पक्ष को जीतता बताता रहता है।


मीडिया : मतदान कम क्यों मीडिया चिंतित क्यों

इसलिए भी चुनाव विश्लेषणों में एक ‘असमंजस’ सा बना रहता है। ऐसे विश्लेषणों को देख एंकर तक अपनी ‘चुनाव चरचाओं’ का यही कहके अंत करते हैं कि इंतजार करें 4 जून को ‘दूध का दूध पानी का पानी’ हो होगा।
हमारी नजर में इस तरह के ‘असमंजस’ का एक बड़ा कारण ‘मतदान का कम’ होना है। ‘चुनाव आयोग’ के आंकड़े बताते हैं कि अब तक जितना मतदान हुआ है वह 2019 की अपेक्षा कम हुआ है। ‘कम मतदान’ किसको मदद कर रहा है, यह सवाल मीडिया में भी पहेली बना हुआ है। ‘एनडीए’ के पक्षधर  कहते हैं कि ‘एनडीए’ तीनों चरणों में एक तिहाई से अधिक की सीट जीत चुका है और इसीलिए विपक्ष का बल्ब ‘फ्यूज’ नजर आता है। जवाब में ‘इंडी’ वाले कहते हैं कि ‘लिखकर ले लो मोदी हार रहा है’। जाहिर है कि इन चुनावों का असली सवाल यही है कि वोट कम क्यों पड़ा? कुछ विश्लेषक मानते हैं कि ‘कम मतदान’ भाजपा के पक्ष में नहीं गया तो कुछ मानते हैं कि भाजपा के पास ‘काडर’ है, वो अपने वोटरों को बूथ तक ले आती है जबकि विपक्ष नहीं ला पाता क्योंकि उसके पास ‘काडर’ नहीं है।
 ‘कम मतदान’ के बारे में विपक्ष का कहना है कि लोग मोदी से नाराज हैं क्योंकि महंगाई है, बेरोजगारी है। इसलिए विपक्ष जीत रहा है। इसकी काट कई चुनाव विश्लेषक इस तरह करते हैं कि ‘मंहगाई’, ‘बेरोजगारी’ मुद्दे तो हैं लेकिन ये ‘जनता की नाराजगी’ में नहीं बदल रहे। ‘जनता नाराज’ होती तो वोट अधिक पड़ता। हमारे चुनाव विशेषज्ञ प्राय:‘स्विंग विशेषज्ञ’ रहे हैं। ‘इस’ या ‘उस’ ओर इतने प्रतिशत ‘स्विंग हो तो इतनी सीटें इधर बढ़ेंगी या उधर बढ़ेंगी..’ जैसे विश्लेषण के आदी रहे हैं लेकिन ‘कम वोट पड़ा’ यानी ‘रिवर्स स्विंग’ हुआ तो किसका वोट कम हुआ..’, इसके विश्लेषण के आदी नहीं हैं। बहसों में वोट कम पड़ने के कई कारण बताए गए हैं: एक, ‘तीखी गरमी’ तो दूसरा, वोटिंग का ‘शनि’ या ‘रवि’ को होना है जबकि इन दो दिन शहरी लोग सैर-सपाटे के लिए बहर निकल जाते हैं। तीसरा कारण नेताओं का दल बदल है जिसके कारण वोटरों में निराशा है। चौथा कारण ‘इंडी’ दलों की सीटों का ‘देर से बंदरबांट’ है जिसके कारण ‘वोट ट्रांसफर’ नहीं हो पा रहा।  
 यों, एक तर्क यह भी है कि चुनाव में ‘ध्रुवीकरण’ की राजनीति हो रही है, इसलिए भी आम आदमी इधर या उधर कमिट नहीं करना चाहता और इसीलिए उत्साह से वोट डालने नहीं आ रहा। एक कारण यह भी बताया जाता है कि न सत्ता पक्ष के पास कहने या देने को कुछ नया है न विपक्ष के पास कहने या देने को कुछ नया है, इसलिए भी कम वोट पड़ रहा है। इसी तरह कुछ का मानना है कि चूंकि हर दल एक दूसरे को ‘भ्रष्ट’, ‘चोर’ और ‘सांप्रदायिक’ कहता है, और सबकी भाषा  में वही ‘हेट’, वही ‘गाली’ और वही ‘हिंसा’ है, इसलिए भी वोटर छिटक गया है, उसका अपने नेताओं पर से यकीन उठ सा गया लगता है।
इन कारणों ने भी वोटरों में एक प्रकार का ‘संशय’ और ‘सनकीपन’ (सिनीसिज्म) पैदा किया है, इसलिए वे वोट डालने कम निकल रहे हैं। कुछ मानते हैं कि चुनावों के दो महीने से अधिक लंबा खिंचने ने भी लोगों में एक ‘ऊब’  और ‘थकान’ पैदा कर दी है। कुछ चुनाव विशेषज्ञ इस बार के चुनाव में ‘युवाओं की हिस्सेदारी’ के ‘कम होने’ पर विचार करते हुए कहते हैं कि वोट डालने के लिए बाजाप्ता रजिस्र्टड हुए कुल युवाओं में से मात्रा 17 फीसद युवाओं ने ही वोट डाला है, जो अपेक्षा से काफी कम है। इसका एक कारण बताते हुए वे कहते हैं कि चूंकि आज का युवा ‘अति चंचल व्यक्तिवादी’ (हाइपर इंडिविजुअलिस्ट) है, इसलिए वोट डालने में दिलचस्पी नहीं रखता। हमारा मानना है कि चूंकि आज के ‘सोशल मीडिया’ और ‘साइबर तकनीक’ ने उसे ‘चौबीस बाई सात’ के हिसाब से जरूरत से ज्यादा ‘पॉलिटिक्स’ देकर राजनीति से ही बुरी तरह ‘उबा’ दिया है, बोर कर दिया है, और इस तरह उसे ‘अराजनीतिक’ (एपॉलिटीकल) जैसा बना दिया है, इसलिए भी वह वोट डालने नहीं आता। चुनाव आयोग कोशिश कर रहा है कि वोटिंग बढ़े, इसके लिए वो विज्ञापन भी दे रहा है, जिसमें सेलीब्रिटीज लोगों से वोट डालने का आह्वान करते हैं। फिर भी वोट नहीं बढ़ रहा।

सुधीश पचौरी


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