चुनाव : राष्ट्र प्रथम की भावना से लड़ें और जीतें

Last Updated 08 May 2024 01:19:30 PM IST

चुनावी मौसम में वेद शास्त्रों और आचार्य चाणक्य के राष्ट्रपरक नीति वचन की याद आना लाजिमी है जिसमें कहा गया है कि जनता ऐसे दूरदर्शी, त्यागी, नीतिवान और चरित्रवान व्यक्ति का चुनाव करे जिसमें देश को बेहतरी की तरफ ले जाने और दुनिया में सम्मान दिलाने की क्षमता हो।


चुनाव : राष्ट्र प्रथम की भावना से लड़ें और जीतें

 एक नागरिक का कर्त्तव्य अपने देश के प्रति कैसा होना चाहिए? इस पर चाणक्य का कहना है, कर्त्तव्य को विवेक से करना नीतिवान मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य है। चाणक्य इसी संदर्भ में कहते हैं-भली प्रकार सोच-विचार कर या अवसर को पहचानने के बाद ही कोई निर्णय लेना चाहिए।

पांच साल के बाद जनता को अवसर मिलता है कि निवर्तमान सरकार के कायरे, नीतियों और निर्णयों का बेहतर मूल्यांकन कर नई सरकार के लिए बगैर किसी लालच खूब सोच-समझ कर अपना मत दे यानी ईवीएम का बटन दबाए। तमाम तरह के सर्वे समझाने की कोशिश करते रहे हैं कि आम चुनाव में भी क्षेत्रीय मुद्दे और जात-पात की मानसिकता हावी है। हम मतदाता अपने नागरिक कर्त्तव्यों को बेहतर सोच और परिणाम के साथ निभाने में हमेशा पीछे रहते हैं, वरना क्या वजह है कि दुनिया के तमाम देशों में जहां सरकार बनाने के लिए अस्सी-नब्बे प्रतिशत मतदान होता है वहीं भारत में पचास या साठ के आसपास। ताजा सर्वेक्षण तस्दीक करते हैं कि देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा के बनिस्बत महंगाई और बेरोजगारी को तरजीह दी जा रही है यानी आतंक, धारा 370, समान नागरिक संहिता (कानून), विदेशी घुसपैठ जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा और अस्मिता के मुद्दे ज्यादातर लोगों के लिए अहमियत नहीं रखते यानी राष्ट्र प्रथम के ऊपर महंगाई और बेरोजगारी भारी पड़ रही है।

बेहतर शासन की कवायद की जगह आरक्षण और संविधान बचाने के सब्जबाग लोगों को शायद ज्यादा अपील कर रहे हैं। ऐसा है तो भारत जैसे राष्ट्रीय गौरव-गरिमा और सांस्कृतिक चेतना की पहचान रखने वाले देश के लिए चिंता की बात मानी जाएगी क्योंकि न तो निवर्तमान सरकार आरक्षण खत्म करने जा रही है, और न संविधान ही बदला जाएगा। यह एनडीए के घोषणापत्र में प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। राजनीति के जानकारों की मानें तो यह भी हो सकता है कि कुछ लोगों के निहित स्वार्थ केंद्र और राज्य सरकार चुनते समय राष्ट्रीय मुद्दों से दूर रखने का कार्य कर रहे हों। लोग अपने जातिगत, मजहबगत और क्षेत्रगत भावनाओं से ऊपर निकलना न चाह रहे हों यानी व्यक्तिगत निहित स्वार्थ न पूरा हो पाने के कारण बहुत छोटे-मोटे मनमुटाव मतदान से दूर हों, या गर्मी की वजह भी लोगों को मतदान करने में रुकावट पैदा कर रही हो।  

दरअसल, राष्ट्रवादी भावना का उद्वेग भारत में खास मौकों पर ही देखा जाता है। आजादी के बाद पिछले 76 वर्षो में राष्ट्र प्रथम के कर्त्तव्यबोध का संचार सतत राष्ट्र जागरण के तौर पर हुआ ही नहीं। जैसे दुनिया के तमाम देशों में हुआ। यही वजह है कि राष्ट्रभाषा, राष्ट्र सुरक्षा, राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रहित पर केंद्रित चुनाव हुए ही नहीं। देश-दुनिया में जैसी भारत की साख है, उस पर केंद्रित राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्र चेतना से ताल्लुक रखने वाले मुद्दे अब न नारों में सुनाई पड़ते हैं, और न दलों के चुनावी घोषणापत्रों में। हां, खुद को राष्ट्रवादी दल कहने वाले दलों के चुनावी घोषणापत्र में इस पर चर्चा जरूर शामिल है। व्यक्ति, परिवार और जाति-मजहब केंद्रित दलों की स्वार्थवादी सोच ने भारत की साख, शक्ति और अस्मिता के सवालों को कभी तवज्जो दी ही नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्तिगत हितसाधन और महज आत्म-केंद्रित क्षुद्र स्वाथरे की ही पूर्ति होती रही। राष्ट्र प्रथम के बारे में सोचा ही नहीं गया। इससे आंचलिक क्षत्रपों के पारिवारिक और सामाजिक हितसाधन होते रहे, लेकिन राष्ट्र और सर्वहित हमेशा पीछे छूटता रहा।

मूल्याधारित राजनीति अब बीते जमाने की बात हो चुकी है। इसलिए राजनीतिक दलों से मूल्याधारित राजनीति और बेदाग छवि वाले नेताओं के नेतृत्व की आशा भी नहीं की जा सकती। यही वजह है कि दागदार नेताओं की बड़ी तादाद भारतीय राजनीति का हिस्सा बन चुकी है, और उनके खिलाफ कोई आक्रोश कहीं दिखाई नहीं दे रहा। आज का भारतीय समाज अर्थ केंद्रित है। गुण, ज्ञान, अनुभव और प्रतिभा का मूल्यांकन अच्छी नौकरी पाने या व्यापार में खूब मुनाफा कमाने तक सीमित हो गया है। यही वजह है कि आम चुनाव में विपक्ष द्वारा बार-बार सब को नौकरी देने जैसे असंभव माने जाने वाले कार्य को हवा दी जा रही है।

रेवड़ियों को बांटने और किसानों की कर्जमाफी के जो वादे किए जा रहे हैं, वे सत्ता हथियाने के हथियार ही नजर आ रहे हैं।
यदि भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने की बात कही जा रही है तो उन सभी मुद्दों, समस्याओं, विसंगतियों और खामियों पर ईमानदारी से गौर करना होगा जो भारत को विकसित राष्ट्र बनाने में रुकावट हैं। बढ़ती आबादी, घटते संसाधन और लोगों की अति महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने की चुनौती केंद्र में आने वाली सरकार के सामने होगी ही। ऐसे में संकीर्ण दायरों और सोच से बाहर आना होगा। तभी भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र के रूप में दुनिया को अपनी ताकत का अहसास करा सकेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी राजनीतिक दल राष्ट्र प्रथम की भावना से चुनाव लड़ेंगे और जीतेंगे भी।

अखिलेश आर्येन्दु


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