वैश्विकी : गाजा की त्रासदी पर चुप्पी
ब्रिटेन के स्कॉटलैंड प्रांत के फर्स्ट मिनिस्टर (मुख्यमंत्री) हमजा यूसुफ की सास ने गाजा से अपना अलविदा संदेश जारी किया।
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उन्होंने अपने जीवन पर मंडरा रहे खतरे के साथ ही गाजा के लाखों लोगों की त्रासदी का मार्मिक उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि दुनिया इतनी हृदयहीन और अमानवीय क्यों हो गई है? हमजा ने उनके (सास के) संक्षिप्त संदेश को अपने ट्विटर अकाऊंट पर पोस्ट किया जिसे लाखों लोगों ने देखा। आश्चर्य की बात यह है कि ब्रिटेन के प्रमुख राजनेता के दुख दर्द में शामिल होने की प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने जहमत नहीं उठाई। यह प्रकरण गाजा त्रासदी के संबंध में दुनिया की चुप्पी को बयान करता है।
अमेरिका और पश्चिमी देशों को गाजा के लाखों लोगों की पीड़ा से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें केवल इस बात की चिंता है कि गाजा में फंसे उनके देश के नागरिकों को कैसे निकाला जाए। उसके लिए उन्होंने इस्रइल पर दबाव बनाया है, जिसके कारण मिस्र तक एक पैसेज बनाने के लिए इस्रइल राजी हुआ है। इसी तरह का काम फिलिस्तीनी मरीजों, महिलाओं और बच्चों को वहां से निकालने के लिए भी किया जा सकता है। लेकिन यह अमेरिका और पश्चिमी देशों की प्राथमिकता में नहीं है।
गाजा के 20 लाख लोगों को जिस यातना से गुजरना पड़ रहा है वह सम-सामयिक दुनिया का सबसे बड़ा मानवीय हादसा है। फिलिस्तीन के लोग ही नहीं बल्कि दुनिया का शांति प्रेमी समाज भी इसे पीढ़ियों तक याद रखेगा। इसकी अभिव्यक्ति आने वाले वर्षो में किसी भी रूप में हो सकती है। उग्रवादी संगठन हमास की आतंकवादी कार्रवाई का कोई भी समर्थन नहीं करता लेकिन एक छोटे से उग्रवादी समूह के लिए लाखों लोगों को दंडित नहीं किया जा सकता। इसे भी एक विडंबना कहा जाएगा कि यह हैवानियत उस देश की ओर से की जा रही है जिसके लोगों को नाजी जर्मनी में गैस चेंबर और होलोकॉस्ट का सामना करना पड़ा था। पुराना दर्दनाक अनुभव दूसरों के दुख दर्द समझने का आधार बन सकता था। लगता है कि दुनिया में कुछ ऐसे लोग हैं जो इतिहास से केवल यही सबक लेते हैं कि त्रासदी को कैसे दोहराया जाए।
दुनिया में जहां भी संघर्ष होता है तो आमतौर पर विभिन्न देशों की ओर से युद्ध-विराम की अपील की जाती है लेकिन यूक्रेन संघर्ष के बाद फिलिस्तीन प्रकरण ऐसे दो उदाहरण हैं जिनमें किसी ने युद्ध-विराम की सीधे अपील नहीं की है। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र महासचिव गुटेरेस ने भी युद्ध-विराम की कोई अपील नहीं की है। फिलिस्तीन के घटनाक्रम पर भारत का रुख संयम और संतुलन पर आधारित रहा है।
यह जरूर है कि प्रधानमंत्री मोदी से यह अपेक्षा है कि वह भारत की नीति और देश की सांस्कृतिक विरासत का पालन करते हुए युद्ध-विराम की अपील करें और साथ ही फिलिस्तीनी अवाम को मानवीय सहायता मुहैया करें। हमास के आतंकवादी हमले के तुरंत बाद प्रधानमंत्री मोदी ने इस्रइल के साथ एकजुटता प्रदर्शित की। दशकों तक आतंकवाद का दंश झेलने वाले भारत के लिए यह स्वाभाविक था कि वह इस्रइल के साथ एकजुटता प्रदर्शित करे। आतंकवाद और मजहबी कट्टरता भारत के लिए इस्रइल की तरह की एक बड़ी चुनौती है। गौर करने वाली बात है कि अमेरिका और प. देश गाजा में इस्रइल में सैनिक अभियान का बिना शर्त समर्थन कर रहे हैं। यही देश अपने यहां भारत विरोधी और पृथक्कतावादी गुटों को पनाह देते हैं। कनाडा इसका हालिया उदाहरण है।
प्रधानमंत्री मोदी के प्रारंभिक बयान के बाद विदेश मंत्रालय ने अपनी विदेश नीति का खुलासा किया। प्रवक्ता ने भारत की इस पुरानी नीति को दोहराया कि वह कुछ क्षेत्र में इस्रइल और फिलिस्तीन, दो स्वतंत्र और संप्रभु देशों का समर्थक है। भारत इस्रइल की सुरक्षा के साथ ही फिलिस्तीन के लोगों के न्यायसंगत अधिकारों की रक्षा तथा इन दोनों देशों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की वकालत करता रहा है। नरेन्द्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने फिलिस्तीन की यात्रा की। भारत फिलहाल जी-20 का अध्यक्ष है। ब्रिक्स का भी प्रभावशाली सदस्य देश है। इस हैसियत से भारत पर यह राजनैतिक और नैतिक जिम्मेदारी आती है कि वह फिलिस्तीन में खून-खराबे को रोकने के लिए पहल करे। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन पर्याप्त नहीं है कि ‘यह यह युग युद्ध का नहीं है’। उन्हें यह भी कहना चाहिए वर्तमान युग रक्तपात का भी नहीं है।
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