विधानसभा चुनाव : चेहरे नहीं, जीत पर नजर
पांच साल जो नेता अपनी अकड़ में रहते हैं, उसकी भरपाई तीन-चार महीने में पूरा करना और आसान हो गया है अब। सोशल मीडिया पिछला सब भुला देता है, और नई व्यूह रचना में फंसा कर नया मन गढ़ देता है।
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झूठ फैलाना इतना आसान हो गया है कि सच सामने आने से पहले तो जनता फैसला ही सुना देती है। बाद में पछतावा करने का भी समय नहीं रहता।
यह पांच साल में एक बार आने वाला त्योहार है। सत्ताधारी पार्टयिों के पिटारे इसीलिए चुनावी साल में ही खुलते हैं। जातियों के गणित से टिकटों के बंटवारे होते हैं। अब तक नकारे जाते रहे इस पिटारे पर तो बिहार में हुई पहली जातिगत जनगणना के बाद पक्की मोहर भी लग ही जाएगी। ऐसे में शामत उसकी है जो पूरे पांच साल ईमानदारी से जनता के बीच रहा, काम करता रहा। हर मुद्दे पर मजबूती से खड़ा रहा। विपक्ष भी जान गया है, जितना भुना सको उतना ही बोलो, वो भी अपने भविष्य का सोचकर ही। चुनाव नजदीक आते-आते सबको जनता के दु:ख-दर्द दिखने लगते हैं। टिकट किसको मिलेगा, किसका कटेगा, नेतृत्व किसका होगा और चेहरा कौन होगा, सारी चर्चाएं इस पर आकर टिकने लगती हैं। इस साल पांच राज्यों में फिर आगे भी चुनाव ही चुनाव हैं। पिछले कुछ चुनावों से भाजपा ने अपनी रणनीति में यह प्रयोग शामिल किया है कि राज्यों में मुख्यमंत्री का चेहरा जाहिर न किया जाए और पुराने चेहरों को बदलने में परहेज भी न रहे।
राजस्थान में दो बार मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा राजे अपनी दावेदारी के लिए जी-जान से जुटी हैं, तो केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से सीधे भिड़ंत में आकर मुख्य चेहरा बनने की कतार में आगे हैं।
डॉ. किरोड़ी लाल मीणा ऐसे दमदार सांसद हैं, जो हर बड़े मुद्दे पर पूरे पांच साल राज्य में सक्रिय बने रहे हैं। जयपुर राजघराने की दीया कुमारी अपनी पृष्ठभूमि और लोक सभा स्पीकर ओम बिरला अपने खास ओहदे की वजह से पार्टी नेतृत्व की निगाह में रहे हैं, लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने ‘डबल इंजन सरकार’ और ‘विकास की गारंटी’ में अब तक पार्टी के नये संगठन प्रभारी पर भरपूर भरोसा जताया है। बाकी सभी बड़े नेता भी मंचों पर साथ-साथ दिख रहे हैं। आपसी छींटाकशी और बयानबाजियों पर भी लगाम है। इस बीच जाति की महासभाओं में, प्रदेश से संबंध रखने और अच्छी साख वाले रेल मंत्री अिनी वैष्णव जैसे नेताओं के नजर आने पर कई अटकलें भी लगीं। जीत की स्थिति में राज्य को चौंकाने की तैयारी तो नहीं कहीं? चौंकाना, और अपने फैसलों की भनक न लगने देना भी भाजपा की कार्यशैली का हिस्सा हो गया है। वैसे, ऐसा हुआ तो अपार संभावनाओं वाले राजस्थान को नये भारत में औद्योगिक तौर पर चमकने का मौका जरूर हाथ लगेगा। लोकतांत्रिक मायने में यह जायज भी है कि संख्या बल खुद अपने नेता का चुनाव करे। हालांकि राजनीतिक तौर पर इसके और कारण हैं। एक यह कि प्रदेशों में कद्दावर-सर्वमान्य नेता किसे मानें, मुश्किल सवाल हो गया है।
सब अपनी दावेदारी अपने आप ही कर रहे हैं। दूसरा यह कि चेहरा पहले बता देने से अंदरूनी गुटबाजी-खेमेबाजी से निपटने की चुनौती होती है। हर चुनाव में नई पीढ़ी के अनुभवी नेता भी अपनी दावेदारी जताते हैं, जिसे दरकिनार करना संभव नहीं होता। राजस्थान में गहलोत अपनी चौथी पारी के लिए फिर जोर लगा रहे हैं। मगर पार्टी आधिकारिक तौर पर कहने से बचेगी कि जीते तो मुख्यमंत्री पद किसे मिलेगा। हिमाचल और कर्नाटक में भाजपा के मुख्यमंत्री चेहरे जनता को रास नहीं आए और पार्टी की हार हुई। कांग्रेस ने दोनों जगह मुख्यमंत्री चेहरा घोषित नहीं किया, जिसका फायदा उसे मिला। हिजाब, पीएफआई पर प्रतिबंध जैसे मसलों पर भाजपा को कर्नाटक के जिन तटीय इलाकों में भारी समर्थन मिला, वो जीत के लिए काफी नहीं थे। दक्षिणी राज्य तेलंगाना में भी इस साल चुनाव हैं। मौजूदा मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव के मुकाबले में भाजपा के जी किशन रेड्डी सहित और सांसद भी मुकाबले में हैं। कांग्रेस जीत के दावे के साथ सोनिया-राहुल के बूते हर जगह डटी है। मगर, यहां चेहरा सिर्फ सत्ताधारी बीआरएस के पास है। इधर महाराष्ट्र की राजनीति जिस तरह से हिचकोले खाती रही, उसमें भी भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री होने से ज्यादा सत्ता का हिस्सा बने रहने की दौड़ रखी।
गुजरात में पहले के मुख्यमंत्रियों से कमान लेकर संघ के कर्मठ कार्यकर्ताओं-नेताओं को आगे लाया गया था। विजय रूपाणी को चुनाव से सवा साल पहले हटाकर आनंदीबेन को राज्यपाल बनाकर रास्ता साफ किया गया। हरियाणा में भी जीत के बाद मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री पद देना, जातिगत गणित से परे संघ के प्रति समर्पण पर जताया भरोसा था, जो राज्य में भड़की जातीय-मजहबी हिंसाओं को रोकने की प्रशासनिक नाकामी के बावजूद नहीं डिगा। दिल्ली जैसे राज्य भी हैं जहां आम आदमी पार्टी के केजरीवाल के सामने उनकी बराबरी का नेता न होने का खमियाजा कमजोर विपक्ष के तौर पर भी जनता भुगत रही है। पूर्वोत्तर में जरूर मजबूत चेहरे आगे रखकर चुनाव जीते गए हैं। उत्तर प्रदेश, असम और मणिपुर इन चेहरों के साथ ही अब तक अपना दमखम कायम रख पाए। मणिपुर में हिंसा और खूनखराबे के बीच अपने मुख्यमंत्री पर भरोसा टिकाए रखने से मजबूत मुख्यमंत्रियों के हौसले और बुलंद हुए। इन्हीं चेहरों में से कुछ को पार्टी के स्टार प्रचारक वाली अहमियत भी है।
छत्तीसगढ़ के लिए यह चुनावी साल है। पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह को भी तवज्जो है, और चुनावी चेहरों में मौजूदा कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बनाम उन्हीं के रिश्तेदार भाजपा के विजय बघेल मुकाबले में खड़े दिख रहे हैं। मध्य प्रदेश से संकेत है कि 18 साल से सत्ता संभाले शिवराज सिंह चौहान को अभयदान मिलने की संभावना तभी बनेगी जब मुख्यमंत्री का चेहरा नया होगा। यहां भी ‘सामूहिक नेतृत्व’ की रणनीति के साथ नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय सहित सांसद और मंत्री चुनाव की अगुवाई कर रहे हैं। कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को अव्वल दावेदार माना ही जाएगा। वैसे, यह सच भी है कि जनता अब भी राजघरानों-ठिकानेदारों के मोह से आजाद नहीं हुई है, चाहे राजस्थान हो या मध्य प्रदेश। चार राज्यों के चुनावों में मुख्य चेहरों का खुलासा न होना अखरेगा या नहीं, यह नतीजों में ही जाहिर होगा।
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