मुद्दा : पारिस्थितिकी से आर्थिकी का लालच
पर्यावरण संरक्षण के बारे में अदालत के फैसले हमेशा के लिए नजीर बनते जा रहे हैं। एक महत्त्वपूर्ण फैसला 20 मार्च, 2017 को नैनीताल उच्च न्यायालय ने दिया था जिसमें पवित्र गंगा और यमुना को जीवित मानव का दर्जा दिया गया है।
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सरकार को आदेश दिया गया था कि इनके साथ जीवित मानव जैसा व्यवहार किया जाए। इस आदेश का पालन करने के लिए उत्तराखंड के मुख्य सचिव और महाधिवक्ता को इन नदियों के कानूनी अभिभावक के रूप में जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उन्हें कहा गया था कि उन्हें मानवीय चेहरे की तरह इनकी सार-संभाल करनी है।
इसका अर्थ है कि गंगा और यमुना के कैचमेंट एरिया में पड़ने वाले जंगल, ग्लेशियर, पहाड़-जिनके बीच से गंगा और यमुना बहकर आ रही हैं-के साथ भी वही मानवीय व्यवहार होना चाहिए जो आम मनुष्यों के साथ किया जाता है, लेकिन इसका पालन इसलिए नहीं हुआ कि उत्तराखंड सरकार की पहल पर 7 जुलाई, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। इसलिए कि हिमालय पर्यटकों और सैलानियों का ऐशगाह बन गया है। इन सैलानियों के आने के सीजन की शुरुआत में ही स्थानीय व्यवस्था बेसब्री से इनका स्वागत करने में जुट जाती है। जगजाहिर है कि यहां आने वाले लाखों देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाना पहाड़ की बर्बादी बिना संभव नहीं है। अत: हिमालय की बर्बादी की ऐसी श्रृंखला यहीं से शुरू हो जाती है, जिसको अंत तक रोकने में उच्च न्यायालय द्वारा अभिभावकों को दी गई अपनी जिम्मेदारी का अहसास होने का मौका भी नहीं मिल सका है। इसलिए कि आय के बड़े स्रोत के रूप में देखे जाने वाले पर्यटन उद्योग को नजरअंदाज करना सरकार के सामने चुनौती बन जाती है। वह हिमालय के संवेदनशील पर्यावरण और नदियों की अविरलता के लिए जो आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए उनसे बार-बार कदम पीछे करती जाती है। 2000 में जब उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़-तीन राज्यों का निर्माण हुआ था तब भी यहां के पहले मुख्यमंत्रियों से मीडिया ने यही सवाल पूछे थे कि इन राज्यों की आय के स्रोत क्या होंगे? उन्होंने जो स्रोत गिनाए थे उनमें से मुख्य रूप से जल, जंगल, जमीन, शराब, पर्यटन जैसी चीजों से ही आय प्राप्त करने की बात सामने आई थी। आय के क्षेत्र में वृद्धि के लिए इस मॉडल को सहज मान्यता मिल गई है, जिसके आधार पर प्लानिंग और प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं।
हम जानते हैं कि विकास की इस मान्यता के पीछे सरकार दूसरा विकल्प देखती भी है, तो उसमें उतनी इनकम नहीं है जितनी शराब, पानी, पर्यटन और जंगल से मिल जाती है। विकास की इस धारणा को बनाए रखने की अनेकों पुष्टि होती रहती हैं। जैसे हिमालय क्षेत्र में आपदाओं के अध्ययन बता रहे हैं कि जमीन में नमी की मात्रा बढ़ जाने से अंदर पानी तीव्र गति से बहने लग गया है, जिसके कारण भू-धंसाव और भूस्खलन पैदा हो जाता है। इसमें बहुमंजिली इमारतें और बड़े निर्माण कार्य बड़े कारण बन रहे हैं। ऐसे ढालदार पहाड़ों पर अंधाधुंध बसी आबादी के बीच से जल निकासी की कोई पुख्ता व्यवस्था भी नहीं है। इसका खुलासा सरकारी वैज्ञानिकों के अध्ययन और शोध दस्तावेज कर रहे हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने कहा है कि हिमालय की प्रसिद्ध पर्यटन और तीर्थ नगरी जोशीमठ को नो-न्यू कंस्ट्रक्शन जोन घोषित किया जाए और वहां पर किसी भी प्रकार का भारी निर्माण न हो क्योंकि वहां क्षमता से अधिक भार हो गया है। जोशीमठ के विषय में तकनीक संस्थाओं की रिपोर्ट तब सामने आई है, जब उत्तराखंड के संघषर्शील नेता पीसी तिवारी की एक याचिका पर उच्च न्यायालय नैनीताल ने सख्त आदेश किए हैं।
एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पर्यटन के अलावा आजकल हिमालयी राज्यों में आय के नये स्रोत ढूंढने के लिए अन्य कोशिशें भी जारी हैं। जैसे वैज्ञानिकों का अनुमान है कि मौजूदा स्थिति में उत्तराखंड के जंगलों, ग्लेशियरों, घास के मैदान और नदियों से प्रदान हो रही पारिस्थितिकीय तंत्र सेवा का मूल्य लगभग 2.5 लाख करोड़ रुपये के बराबर प्रति वर्ष हैं। राज्य सरकार इसका पता लगाने के लिए विशेषज्ञों की राय लेने में जुट गई है। इससे पहले 2018 में भारतीय वानिकी प्रबंधन संस्थान ने अध्ययन कराया गया था जिसके मुताबिक उत्तराखंड के वनों से देश को हर साल 95 हजार करोड़ रुपये की पारिस्थितिकीय सेवाएं प्राप्त हो रही हैं। इसके बदले में केंद्र से ग्रीन बोनस की मांग की गई है।
यह लालच ऐसी स्थिति में बन रहा है, जब हिमालय की मिट्टी, पानी, जंगल, चारागाह, खेत-खलियान बरसात के समय मलबे में तब्दील हो रहे हैं, और इसकी चर्चा ही नहीं है कि हिमालय की जो बर्बादी हो रही है, उसका भी कोई ऑडिट हो। हम पारिस्थितिकी का अधिक से अधिक शोषण करने की कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन उसके बरक्स बर्बादी का जो मंजर साल दर साल देखा जा रहा है, उससे बचने के लिए कौन सी कार्य योजना है। हम इस सच्चाई से बचना चाहते हैं तो पारिस्थितिकी से आर्थिकी किसी लालच से कम नहीं है, जो प्रकृति के रौद्र रूप के सामने ज्यादा टिकने वाला नहीं है। शिमला, कुल्लू, चंबा, मसूरी आदि पर्यटक नगरों में भी ऐसे ही हालात हैं। इसलिए यह सोचना बहुत जरूरी हो गया है कि प्रकृति का हम जितना शोषण कर रहे हैं, उससे अधिक वापस कैसे लौटाएं?
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