सामयिक : बंटवारे के बुजुर्गो को वीजा दें
आजादी मिले 75 साल हो गए। उस वक्त के चश्मदीद गवाह बच्चे या जवान आज 80 साल से लेकर 100 की उम्र के होंगे, जो इधर भी हैं, और उधर भी। बंटवारे की सबसे ज्यादा मार पंजाब ने सही। ये बुजुर्ग आज तक उस खूनी दौर को याद करके सिहर जाते हैं।
सामयिक : बंटवारे के बुजुर्गो को वीजा दें |
भारत के हिस्से में आए पंजाब से मुसलमानों का पलायन पाकिस्तान की तरफ हुआ और पाकिस्तान में रह रहे सिक्खों और हिन्दुओं का पलायन भारत की तरफ हुआ। ऐसा कोई परिवार नहीं है जिसने अपने घर के दर्जनों बच्चे, बूढ़े और औरतों को अपनी आंखों के सामने कत्ल होते न देखा हो। इस कत्लेआम में जो बच गए, वो आज तक अपने सगे-संबंधियों को याद कर फूट-फूट कर रोते हैं। दोनों मुल्कों में मिला कर ऐसे लोगों की संख्या कुछ हजारों में है।
जब से करतारपुर साहिब कॉरिडोर खुला है तब से अब तक सैकड़ों ऐसे परिवार हैं, जो 70 साल बाद अपने बिछड़े परिवार जनों से मिल पाए हैं पर यह मुलाकात कुछ घंटों की ही होती है और इसके पीछे उन नौजवानों की मशक्कत है जो दोनों ओर के पंजाब में ऐसे बुजुगरे के इंटरव्यू यूट्यूब पर डाल कर उन्हें मिलाने का काम कर रहे हैं। प्राय: ऐसे सारे इंटरव्यू ठेठ पंजाबी में होते हैं। आप ध्यान से सुनें तो उनकी भाषा में ही नहीं, उनकी आंखों और चेहरे का दर्द देख कर आपके आंसू थमेंगे नहीं। करतारपुर साहिब में जब इन परिवारों की 3-4 पीढ़ियां मिलती हैं, तो उनका मिलन इतना हृदयविदारक होता है कि आसमान भी रो दे। एक ही परिवार के आधे सदस्य इधर के सिक्ख बने और उधर के मुसलमान बने। इन सब बुजुगरे और इनके परिवारों की एक ही तमन्ना होती है कि दोनों देशों की सरकारें, कम से कम इन बुजुगरे को लंबी अवधि के वीजा दे दें, जिससे ये एक दूसरे के मुल्क में जा कर अपने बिछड़े परिवारों के साथ जिंदगी के आखिरी दौर में कुछ लम्हे बिता सकें जिसकी तड़प ये सात दशकों से अपने सीने में दबाए बैठे हैं।
हम सब जानते हैं कि नौकरशाही और राजनेता इतनी आसानी से पिघलने वाले नहीं। पर सोचने वाली बात यह है कि 80 वर्ष से ऊपर की उम्र वाला कोई बूढ़ा पुरुष या महिला, क्या किसी भी देश की सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है? जिसने जिंदगी भर बंटवारे का दर्द सहा हो और हजारों, लाखों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतरते देखा हो, वो उम्र के इस पड़ाव पर आतंकवादी कतई नहीं हो सकता। इसलिए दोनों देशों की सरकारों को ऐसे बुजुगरे से आवेदन मांगने चाहिए और उन्हें अविलंब प्रोसेस करके एक-दूसरे के मुल्क में जाने का कम से कम एक महीने का वीजा मुहैया करवाना चाहिए।
आज के माहौल में जब सांप्रदायिकता की आग में दुनिया के कई देश झुलस रहे हैं, तब भारत और पाकिस्तान की सरकार का यह मानवीय कदम अंतरराष्ट्रीय मिसाल बन सकता है। इससे समाज में नई चेतना का विस्तार हो सकता है क्योंकि आज मीडिया और राजनेता, चाहें सरहद के इस पार हों या उस पार, सांप्रदायिक आग भड़काने का काम कर रहे हैं। ऐसे में दोनों मुल्कों की नई पीढ़ी जब इन बुजुगरे से विभाजन के पूर्व के माहौल की कहानियां सुनेगी तो उसकी आंखें खुलेंगी क्योंकि उस दौर में हिन्दू, सिक्ख और मुसलमानों के बीच कोई भी वैमनस्य नहीं था। सब एक दूसरे के गम और खुशी में दिल से शामिल होते थे और एक दूसरे की मदद करने को हर वक्त तैयार रहते थे।
विभाजन की कहानियां दिखाने वाले दोनों मुल्कों के इन यूट्यूब चैनलों पर जब आप इन बुजुगरे की कहानियां सुनेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि इतनी प्यार-मौहब्बत से रहने वाले इन लोगों के बीच ऐसी हैवानियत अचानक कैसे पैदा हो गई कि वो एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए? ये बुजुर्ग बताते हैं कि माहौल को खराब करने का काम उस वक्त के फिरकापरस्त राजनैतिक संगठनों और उनके नेताओं ने किया जबकि आखिरी वक्त तक दोनों ओर के हिन्दू, मुसलमान और सिक्ख, इस तसल्ली से बैठे थे कि हुकूमत बदल जाएगी पर उनका वतन उनसे नहीं छिनेगा। जो अपने घर, दुकान और खेत-खलिहान छोड़ कर भागे भी तो इस विश्वास के साथ कि अफरा-तफरी का यह दौर कुछ हफ्तों में शांत हो जाएगा और वे अपने घर लौट आएंगे। पर यह हो न सका। उन्हें एक नये देश में, नये परिवेश में, नये पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बन कर रहना पड़ा। जिनके घर दूध-दही की नदियां बहती थीं, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या खेतों में मजदूरी करके पेट पालना पड़ा।
इन लोगों के खौफनाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फिल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं, और सद्भावना प्रतिनिधिमंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी जिंदा बचे हैं, वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं, और फूट-फूट कर रोने लगते हैं। कई कहानियां ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गांव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहां पहुंचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहां कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस और इनका घर दिखाया जाता है, जहां पहुंच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहां रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी मां गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आंगन की मिट्टी उनसे मांग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें।
मौका मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि सांप्रदायिकता या मजहबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मजा वो उड़ाते हैं, जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मजहब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुंचने की सीढ़ी मात्र होते हैं। हम किसी भी धर्म या मजहब के मानने वाले क्यों न हों, इन फिरकापरस्त ताकतों से सावधान रहना चाहिए। इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बंटवारा यही बताता है।
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