जाति सर्वेक्षण : समाज में संघर्ष या समाधान
कोई भी देश सही अर्थों में विकसित और सफल राष्ट्र की श्रेणी में तभी आता है, जब समाज के सभी वर्गों का कल्याण सुनिश्चित किया जाता है।
जाति सर्वेक्षण : समाज में संघर्ष या समाधान |
भारतीय समाज में अधिकांशत: आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन जाति से जुड़ा हुआ है। हाल के दिनों में विभिन्न राजनीतिक दलों एवं समाज के विभिन्न वगरे द्वारा जातिगत जनगणना की मांग की गई है। भारत में 1941 जातिगत जनगणना हुई थी पर उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 में सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़े वगरे के लिए आयोग बनाने का उल्लेख किया गया है, जिसका उद्देश्य सामाजिक-शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वगरे की दशाओं को सुधारना है। सामाजिक न्याय और समरसता के लिए जाति की आंकड़े और जातियों की पहचान जरूरी है।
लेकिन हम जाति की संख्या जानकर समानता की राह पर बढ़ेंगे लेकिन इनसे अंतरजातीय प्रतिस्पर्धा और अंतहीन सामाजिक संघर्ष भी बढ़ेगा। बेशक, सच यह भी है कि कोई सामाजिक वर्ग शोषण का शिकार है तो उसे समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए उसकी संख्या, सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक स्थिति का अध्ययन किया जाना चाहिए। बिहार पहला राज्य है जहां जातिगत जनगणना हुई और 2 अक्टूबर, 2023 को उसकी रिपोर्ट भी सार्वजनिक कर दी गई। वर्तमान में, उदारीकरण के बाद राज्य विकास के कई विकल्पों से स्वयं को अलग कर रहा है। राज्य अब सबसे बड़ा नियोक्ता भी नहीं रहा। शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, आवास और आहार जैसी मूलभूत आवश्यकताएं निरंतर नवउदारवाद की मार झेल रही हैं। हम नई चुनौतियों के नये समाधान खोजने की बजाय पुराने समाधान में ही उलझे रहना चाहते हैं। देश का समावेशी विकास केवल जाति के आधार पर ही नहीं हो सकता। जाति जनगणना से वोट बैंक की राजनीति को बल मिलेगा। जाति जनगणना के क्रियान्वयन से पहले, इसके हासिल के बारे में भी विचार कर लेना चाहिए।
ऐसा न हो कि एक सामाजिक समस्या को बेहतर बनाने के लिए अन्य दूसरी गंभीर सामाजिक समस्या को बढ़ावा मिले। बेहतर सामाजिक समरसता के लिए समाज के विभिन्न वगरे में संतुलन बनाना भी आवश्यक है। जाति जनगणना की मांग को और गति मद्रास उच्च न्यायालय के एक फैसले ने दी है, जिसमें इसे आवश्यक बताया गया है। वर्तमान भाजपा सरकार जातीय जनगणना के पक्ष में नहीं है। जातीय जनगणना के फायदों को लेकर नेताओं के अपने-अपने तर्क हैं। कुछ का कहना है कि जातीय जनगणना के आंकड़े से पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ देकर उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। यह भी तर्क दिया जाता है कि जातीय जनगणना से किसी भी जाति की आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा की वास्तविकता का पता चल पायेगा। इससे उन जातियों के लिए विकास की योजना बनाने से आसानी होगी।
जहां एक तरफ जातीय जनगणना से फायदे हैं, वहीं इसके नुकसान भी हैं। नुकसान कई तरह के हो सकते हैं। यदि किसी समाज को पता चलेगा कि देश में उनकी संख्या घट रही है, तो समाज के लोग अपनी संख्या बढ़ाने के लिए अग्रसर होंगे। इससे देश की आबादी में तेजी से वृद्धि होगी। जातीय जनगणना से सामाजिक ताना बाना बिगड़ने का भी खतरा रहता है। 1951 में भी तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने यही बात कहकर जातीय जनगणना के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। जातीय जनगणना के पीछे कुल मिलाकर एक राजनीतिक खेल चल रहा है। 2010 में जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, तब भाजपा के नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में जातिगत जनगणना की मांग की थी, लेकिन अब सरकार में आने के बाद भाजपा सरकार जातीय जनगणना से पीछे हट गई है। कांग्रेस ने भी 2011 में शरद पवार, लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के दबाव में जातीय जनगणना करवाई लेकिन उसके आंकड़े जारी नहीं किए गए। कई प्रदेशों में क्षेत्रीय दल जाति की राजनीति करते हैं। ऐसे में जातीय जनगणना से हिन्दू समाज जाति में विभाजित हो जाता है। इसका फायदा क्षेत्रीय दलों को होगा और भाजपा को नुकसान होने की संभावना है।
भारतीय राजनीति की विडंबना है कि विपक्ष में रहने पर दल इसका समर्थन करते हैं लेकिन सरकार में आने पर आनाकानी करते हैं। सत्ताधारी दल को लगता है कि जातीय जनगणना से जातीय गुटबाजी बढ़ जाएगी और समाज भी बंट जाएगा। जातीय विभाजन का सीधा फायदा क्षेत्रीय दलों को मिलेगा। एक तरफ जातीय जनगणना से सरकार को विकास की योजनाओं का खाका तैयार करने में मदद मिलेगी तो पिछड़ी पाई जाने वाली जातियां राजनीतिक दलों के सीधे निशाने पर रहेंगी। ऐसे में तकरीबन सभी दल वोट बैंक हासिल करने की होड़ में लग जाएंगे। परिणामस्वरूप समावेशी विकास की अवधारणा को चोट पहुंचेगी। भारत में जातिगत जनगणना से नई राजनीतिक क्रांति का सुप्रभात होगा या यह राजनीतिक शिगूफा बनकर रह जाएगी?
(लेखिका बी.डी. कॉलेज, पाटलिपुत्र विवि में एसो. प्रोफेसर हैं )
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