न्याय व शांति : कब्जा नहीं सहयोग पर बने संबंध
विश्व की बहुत-सी बड़ी समस्याओं के मूल में आधिपत्य के संबंध हैं। दूसरी ओर विश्व के कुछ सबसे बड़े सुधारकों के संदेश में कहीं न कहीं निहित है कि आधिपत्य के संबंध से बचें और आपसी सहयोग और सद्भावना के संबंधों को अपनाएं।
न्याय व शांति : कब्जा नहीं सहयोग पर बने संबंध |
मनुष्यों के आपसी संबंधों की एक प्रमुख कमजोरी और कमी यह है कि एक दूसरे पर आधिपत्य करने, शासन करने, अपना बड़प्पन सिद्ध करने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल रही है। इतिहास के पन्नों को पलटें तो इस प्रवृत्ति के साथ अधिकतर एक दूसरे का हक छीनने, अधिक संचय करने या अधिक लालच की प्रवृत्ति जुड़ी रही है। पर जहां यह लालच नहीं है, वहां भी अहं के कारण अपनी उच्चता स्थापित करने या अपनी बात मनवाने की प्रवृत्ति प्राय: देखी गई है।
कारण अहं हो या लालच, मनुष्य के आपसी संबंधों में आधिपत्य करने की प्रवृत्ति बहुत सशक्त और व्यापक रही है। जहां जनसाधारण के दैनिक जीवन में इस प्रवृत्ति ने तरह-तरह के दुख-दर्द उत्पन्न किए, वहां युद्ध के मैदान में इस कारण भयानक खून-खराबा भी हुआ। इतिहास के पृष्ठ गवाह हैं कि प्राचीन समय से ही गुलाम और मालिक, गरीब और अमीर, पराजित और विजेता, कमजोर और बलशाली, यहां तक कि स्त्री और पुरुष के संबंध में आधिपत्य करने की प्रवृत्ति ने बहुत से लोगों को अत्यधिक और असहनीय दुख दिए। बहुत से लोगों पर यह प्रवृत्ति इतनी हावी हो गई है कि उन्होंने अपने आदर्श के रूप में उन्हीं को ग्रहण करना आरंभ किया जो अपना आधिपत्य जमा सकें। सोचने-समझने के ढंग, बातचीत, कथा-कहानियों, यहां तक कि इतिहास में भी उन लोगों को अधिक महत्त्व दिया गया - और प्राय: प्रशंसा की भावना से ही दिया गया-जिन्होंने अपने आधिपत्य को अधिक फैलाने में सफलता प्राप्त की, चाहे इस प्रयास में उन्होंने कितने ही लोगों को नाहक ही अथाह कष्ट पहुंचाए हों।
दूसरी ओर अनेक धर्म-गुरुओं, दार्शनिकों और समाज सुधारकों ने इंसान की इस मूल कमजोरी और इससे जुड़े दुख-दर्द को पहचाना और लोगों को इससे बचाने का प्रयास किया। इनमें से अनेक प्रयासों का असर दूर-दूर तक हुआ और काफी समय तक हुआ। अत: इतिहास में ऐसे दौर भी आए जब आधिपत्य पर आधारित मानव संबंधों को बहुत से लोगों ने एक बुराई के रूप में पहचाना और इसके स्थान पर भाईचारे, समता, सहनशीलता, एक दूसरे के विचारों की इज्जत करने और समझने का प्रयास करने की प्रवृत्ति को अपनाया। कुछ समयों और स्थानों में इन विचारों का प्रसार विभिन्न धर्मो और पंथों के रूप में हुआ, अन्य मौकों पर इनका प्रसार नई आर्थिक-राजनीतिक विचारधाराओं और उनसे जुड़ी क्रांतियों के रूप में हुआ। अनेक सराहनीय शुरुआतों के बावजूद बाद में इन प्रयासों में भी प्राय: कुछ कमजोरियां आ जाती थीं, और आधिपत्य की प्रवृत्ति को फिर प्रबल होने या पहले से भी अधिक प्रबल होने का मौका प्राय: मिल जाता था। आरंभ में इस प्रवृत्ति को हावी करने का अवसर किसी व्यक्ति को छोटे से समूूह के स्तर पर ही मिल सकता था, पर बाद में आधिपत्य की महत्त्वाकांक्षा का बेहद विस्तार कर ऐसे साम्राज्य स्थापित किए गए जो लाखों पराजित लोगों और गुलामों पर आधिपत्य कर सके। जब तक शक्तिशाली लोगों पर यह विचाराधारा हावी थी, यह स्वाभाविक ही था कि वे उपलब्ध संसाधनों और नये तौर-तरीकों का उपयोग इसी के विस्तार के लिए करते।
इस प्रवृत्ति के विश्वव्यापी विस्तार का अवसर पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में नये समुद्री मार्गों और स्थानों की खोज से हुआ। यूरोप के देशों के लिए सबसे बड़ी खोज यह थी कि अमेरिकी महाद्वीपों और वहां के बहुमूल्य खनिजों के बारे में उन्हें पता चला। इसके साथ ही विश्व इतिहास के शायद सबसे निर्मम शोषण और तबाही की शुरुआत हुई। यूरोप से दौलत और जमीन के लालच में गये लोगों ने यहां के मूल निवासियों (रेड इंडियन) पर हर तरह के अत्याचार किए, जबरन मजदूरी करवाई, जमीन छीनी, अनेक जगह उनका कत्लेआम किया। करोड़ों की संख्या में यहां के मूल निवासी मारे गए। हजारों वर्ग मील के क्षेत्रों में वे खत्म ही कर दिए गए। अमेरिकी महाद्वीपों में कोलंबस के आगमन के समय (वर्ष 1500 के आसपास) लगभग 10 करोड़ लोग रहते थे। यूरोप के लोगों के यहां आने के बाद के डेढ़ सौ वर्षो में ही 90 प्रतिशत मूूल निवासियों की मृत्यु हो गई, मात्र 10 प्रतिशत बचे। बाद में ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के मूल निवासियों पर भी ऐसा ही अत्याचार हुआ।उधर, अमेरिका के मूल निवासी बड़ी संख्या में मारे जा रहे थे, इधर यूरोप के लुटेरों ने अफ्रीका के गुलामों को पकड़ कर अमेरिका के खेतों और खदानों में भेजना आरंभ किया। लगभग 350 वर्षो तक जारी रहे इस व्यापार में लगभग डेढ़ करोड़ अफ्रीकावासियों को गुलाम के रूप में अमेरिकी महाद्वीपों में भेजा गया। भेजने का तरीका इतना निर्दयी था कि लाखों गुलाम तो यात्रा के दौरान ही मर गए व अधिकतर अन्य की मौत कार्य स्थल पर निर्मम शोषण के कारण कुछ ही वर्षो में हो गई। साथ ही एशिया के अधिकांश देशों का इतना कठोर शोषण हुआ कि भुखमरी और अकाल से लाखों लोग मरने लगे। भारत का बंगाल प्रांत हो या इंडोनेशिया का जावा प्रांत, यूरोपीय शासकों के आने के कुछ ही समय बाद आबादी के एक तिहाई से एक चौथाई हिस्से की अकाल में मृत्यु हुई।
यूरोप के कुछ देशों ने अन्य सभी महाद्वीपों को जिस बुरी तरह लूटा-खसूटा उससे वहां अपार दौलत एकत्र हुई, और वहां के भी चंद लोगों के पास। इंग्लैंड में बड़े भूस्वामियों ने अपने देश के भी छोटे किसानों को बड़े पैमाने पर बेदखल कर दिया, जिससे वे सस्ते मजदूर बनकर नई फैक्ट्रियों में छा गए। यहां मजदूरी की उन दिनों (औद्योगिक क्रांति के आरंभिक वर्षो में) यह हालत थी कि दस वर्ष के बच्चे से पंद्रह घंटे खड़े होकर काम करवाना सामान्य बात समझी जाती थी। बाद में अपने यहां के मजदूरों की स्थिति सुधारने का कुछ कार्य तो इन देशों ने किया, पर उपनिवेशों के प्रति वही अधिकाधिक लूट की प्रवृत्ति बनी रही। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में नई साम्राज्यवादी शक्तियों के आगमन से एक जुल्म और विस्तार का नया दौर आरंभ हुआ और भयंकर हिंसा करते हुए कुछ ही वर्षो में इन शक्तियों ने अफ्रीका के अधिकतर भाग का बंटवारा अपने बीच कर लिया।
इस औपनिवेशिक दौर ने कुछ देशों को बाहरी लूट के आधार पर भौतिक सुख-सुविधओं और संपत्ति की ऐसी व्यवस्था खड़ी करने दी जिसे बनाए रखने के लिए आज भी अनेक तौर-तरीकों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विषमता और आधिपत्य की प्रवृत्ति को दृढ़ किया जा रहा है। अनेक शक्तिशाली देशों की अर्थव्यवस्था का ढांचा ऐसा है, और उसमें भी विशेषकर सबसे अमीर लोगों की खास स्थिति ऐसी है कि आधिपत्य के आधार पर ही वे विश्व अर्थव्यवस्था को चलाना चाहते हैं। इसी कारण सैन्य बल और अति विध्वंसकारी आधुनिक हथियारों की दृष्टि से कुछ अमीर देशों का वर्चस्व कायम रखना वे जरूरी समझते हैं।
कहीं न कहीं इस आधिपत्य के सिलसिले को रोक कर सहयोग के संबंधों को स्थापित करना जरूरी हो गया है। नजदीकी मानवीय संबंधों से लेकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों तक इसकी जरूरत है क्योंकि न्याय और अमन शांति, दोनों के लिए सहयोग के संबंध एक बुनियाद हैं।
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