स्वतंत्रता दिवस : मुश्किलों को भी याद रखें
हर वर्ष भारत के लोग 15 अगस्त को आजादी का उत्सव मनाते हैं। राष्ट्रीय गीत या धुन के साथ तिरंगा फहराए जाते हैं और हम इतिहास की उस घड़ी को याद करते हैं, जब लगभग दो सौ वर्षो की ब्रिटिश गुलामी से भारत एक लोकतांत्रिक स्वरूप में मुक्त हुआ था।
स्वतंत्रता दिवस : मुश्किलों को भी याद रखें |
इस अवसर पर हम आजादी के संघर्ष में शहीद हुए नायकों को याद करते हैं। भावना और संकल्पों का यह मिला-जुला क्षण होता है। इस वर्ष जब हम अपनी आजादी का अमृत वर्ष पूरा कर रहे हैं, तब हमें अपने भारत के ऐतिह्य का विहंगावलोकन नहीं, सिंहावलोकन करना चाहिए। संक्षेप में ही सही हमें उस दौर पर विचार करना करना चाहिए, जो आजादी के इर्द-गिर्द था।
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष पर केंद्रित दो किताबों को मैं विशेष तौर पर याद करना चाहूंगा। एक है लैरी कॉलिंस और डोमिनिक लापिएर की किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ जो 1976 में प्रकाशित हुई थी और दूसरी है माउंटबेटन की बेटी पामेला की लिखी डायरी ‘इंडिया रेमेम्र्बड’। पहली किताब किसी उपन्यास की तरह रोचक है और दूसरी मानो आंखों देखा हाल। फ्रीडम एट मिडनाइट के विवरण के अनुसार 15 अगस्त की सुबह लालकिले की प्राचीर पर भारी भीड़ और अफरा-तफरी के बीच जब जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय धुन के बीच तिरंगा फहराया तब मानसून के आद्र-आकाश में बड़ा-सा इंद्रधनुष खिल उठा और भीड़ के बीच एक जोरदार उल्लास का स्वर भी फूटा-‘जब भगवान खुद ही ऐसा संकेत दे रहे हैं तो फिर हमारे सामने कौन टिकेगा।’
यह एक किसान की आवाज थी, जिसे अपने देश पर थोड़ा गुमान रहा होगा और इस बात का इत्मीनान भी कि उसका देश अब आजाद है और इसके सामने अब कोई नहीं टिकेगा। बस कुछ ही घंटों पहले आधी रात को केंद्रीय असेम्बली में नेहरू ने अपना ऐतिहासिक वक्तव्य दिया था, ‘बहुत साल पहले हमने नियति से एक वायदा किया था और वह घड़ी अब आ चुकी है, जब हम इसे पूरी तरह तो नहीं, आंशिक रूप से ही पूरा कर रहे हैं। कुछ क्षण बाद जब आधी रात के घंटे बजेंगे और दुनिया सो रही होगी, तब भारत अपनी जिंदगी और आजादी में जगेगा।’ यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि आजादी के संघर्ष के इतिहास को ठीक से बतलाया नहीं गया। हमने राष्ट्रवाद के आवेग और तंग नजरिये के कारण कई तथ्यों पर कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ लोगों द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास केवल कांग्रेस का इतिहास बना दिया गया। नई पीढ़ी को भारत के उस औद्योगिक विकास की कोई जानकारी नहीं है, जो आजादी का एक बड़ा कारण था। तथ्य बतलाते हैं कि दूसरे वि युद्ध के दौरान ही अंग्रेजों को भान हो गया था कि भारत पर शासन करना अब आसान नहीं है। आजाद हिंद फौज की कार्रवाइयों और फरवरी 1946 में नौसेना में विद्रोह की घटनाओं की मीमांसा नहीं की गई। बड़ी भूमिका युद्ध से लौटे सैनिकों की भी थी। वि युद्ध को लेकर ब्रिटिश सेना में बड़ी संख्या में सैनिकों की भर्ती की गई थी। लड़ाई खत्म होने पर उन्हें हटा दिया गया। ये कोई बाईस लाख सैनिक जब अपने गांव-कस्बों में लौटे तब उन्होंने पूरी दुनिया में अंग्रेजों की पिटी हुई हालत की कहानियां बयान की। तमाम कांग्रेसी नेता जेलों में बंद थे।
लौटे हुए सैनिकों ने ब्रिटिश विरोधी मानसिकता तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई। नौसेना विद्रोह भी इसी का नतीजा था। देश भर में आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सैनिकों को रिहा करने के नारे गूंज रहे थे। ढिल्लन, सहगल, शाहनवाज देश के नए हीरो थे। आज की पीढ़ी इन सब को न के बराबर जानती है। इन सबका इतिहास पढ़ाया जाना चाहिए। भारत के स्वदेशी आर्थिक विकास की कहानी कम महत्त्वपूर्ण नहीं थी। उन्नीसवीं सदी में भारत ब्रिटेन का आर्थिक उपनिवेश था। इसके खिलाफ दादाभाई नौरोजी ने आवाज उठाई थी और देशवासियों का ध्यान खींचा था। बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक भारत के स्वदेशी आर्थिक विकास ने स्थितियां बदल दी थीं। ब्रिटेन और भारत के व्यापार संतुलन में उल्लेखनीय बदलाव आया था। 1900-01 में जहां भारत में 1 अरब 87 करोड़ 50 लाख गज कपड़े का आयात हुआ था, वहीं 1947 में महज 2 करोड़ 60 लाख गज कपड़े का आयात हुआ। भारतीय कपड़ा उद्योग ने मैनेचेस्टर को कड़ी टक्कर दी थी। 1947 में भारत ने 3 अरब 77 लाख गज कपड़ा उत्पादन किया था। क्या मजदूरों और उद्यमियों के ये उत्पादन हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं होने चाहिए? इस राष्ट्रीय उत्साह-आयोजन के बीच हमें इतिहास की उन मूर्खताओं पर भी विचार करना चाहिए, जिससे भारत के लोग उस दौर में बुरी तरह तबाह हुए थे। बंगाल के कृत्रिम अकाल की कहानी हमारे पाठ्यक्रम में नहीं है, जिनमें लाखों लोग भूख से मारे गए।
यह कृत्रिम अकाल था, प्राकृतिक नहीं। इसी तरह देश के बंटवारे के वक्त आबादी की बड़े पैमाने पर आवाजाही और सांप्रदायिक हिंसा की कहानी का हमें विश्लेषण करना चाहिए। बहुत कम लोगों को मालूम है कि सीमा निर्धारण किए बगैर ही देश विभाजन का निर्णय कर लिया गया और आजादी का उत्सव भी दिल्ली और कराची में मना लिया गया था। सीमा रेखा तय करने का जिम्मा एक ब्रिटिश सिरिल रेडक्लिफ ( 1899-1977 ) को दिया गया था। उन्हें बस पखवाड़े भर का समय दिया गया था। रेडक्लिफ ने भारत कभी देखा नहीं था। जिम्मा लेने बाद भी भारत आना उन्होंने जरूरी नहीं समझा। एक बार हवाई सर्वेक्षण जरूर किया। अफरा-तफरी के बीच उन्होंने देश का मानो पोस्टमार्टम कर दिया।
सबसे अधिक भगदड़ लाहौर के पाकिस्तान में जाने के कारण हुई। हिंदू बहुल यह शहर जिसका पुराना इतिहास था और जिसे ‘हिंदुस्तान का पेरिस’ कहा जाता था, पाकिस्तान में शामिल कर दिया गया। केवल इस आधार पर कि पाकिस्तान में कोई बड़ा शहर नहीं है. यह बिलकुल सीमा रेखा पर है। यह मूर्खता की हद थी। आजादी के दिन तक यह तय भी नहीं था कि क्या निर्णय हुआ है। 13 अगस्त 1947 को रेडक्लिफ ने अपनी रिपोर्ट बंद लिफाफे में वायसराय माउंटबेटन को सौंपी थी। वायसराय ने उसे खोलना भी जरूरी नहीं समझा। आजादी का जश्न संपन्न कर लिए जाने के तीसरे रोज 17 अगस्त को यह रिपोर्ट खोली गई और इसे लागू कर दिया गया। सआदत हसन मंटो की मशहूर कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ इसी फैसले पर आधारित है। भारत की जनता को यह सब जानना और इन सबका विश्लेषण करना चाहिए। आजादी के जश्न के बीच हमें उस दौर की मुश्किलों को भी याद करना चाहिए।
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