हिमाचल-उत्तराखंड : विकास से बर्बाद होते सूबे
भारतीय दर्शन के अनुसार मानव सभ्यता का विकास हिमालय (Himalya) और उसकी नदी-घाटियों से माना जाता है।
हिमाचल-उत्तराखंड : विकास से बर्बाद होते सूबे |
ऋषि कश्यप (Rishi Kashyap) और उनकी दिति-अदिति (Diti-Aditi) नाम की पत्नियों से मनुष्य की उत्पत्ति हुई और सभ्यता के क्रम की शुरुआत हुई। एक बड़ी आबादी को शुद्ध और पौष्टिक पानी देने के लिए भागीरथी गंगा (Bhagirathi GangaZ) को नीचे उतार लाए। यह विकास धीमा था और विकास को आगे बढ़ाने के लिए हिमालय में कोई हलचल नहीं की गई थी लेकिन आज विकास के बहाने भोग की जल्दबाजी में समूचे हिमालय को दरकाने का सिलसिला अत्यंत तेज गति से जारी है।
केदारनाथ (Kedarnath) की आपदा से लेकर वर्तमान में हिमाचल (Himachal) और उत्तराखंड (Uttarakhand) में हुई तबाही का कोई सबक नीति-नियंताओं ने नहीं लिया। नतीजतन, चार दिन की बारिश, 112 बार हुए भूस्खलन और पांच बार फटे बादलों से जो बर्बादी हुई उसमें 71 लोग मारे गए। इस मानसून में अब तक हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में 327 लोगों को आपदाओं ने लील लिया, 1442 घर जल धाराओं में विलीन हो गए और 7170 करोड़ रुपये की अचल संपत्तियां धराशायी हो गई। हिमाचल में एक साथ करीब 950 सड़कों पर आवजाजाही बंद पड़ी है। बद्री-केदारनाथ राजमार्ग भी बंद पड़ा है। मानसून में रुकावट आ जाने से बादल पहाड़ों पर इकट्ठे हो जाते हैं, और यही मूसलाधार बारिश के कारण बनते हैं।
यह तबाही इसी का परिणाम है। हकीकत में तबाही के असली कारण समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाने के परिप्रेक्ष्य में जल विद्युत संयंत्र और रेल परियोजनाओं की जो बाढ़ आई हुई है, वह है। इन योजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेल गुजारने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें निर्मिंत की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय ही नहीं, हिमालय के शिखरों पर स्थित पहाड़ दरकने लगे हैं, जिन पर हजारों साल से मानव बसाहटें अपने ज्ञान-परंपरा के बूते जीवन-यापन करने के साथ हिमालय और वहां रहने वाले अन्य जीव-जगत की भी रक्षा करते चले आ रहे हैं।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) द्वारा जारी उपग्रह तस्वीरों से जोशीमठ के बारह दिनों में 5.4 सेंटीमीटर हिमालय के गर्भ में धंस जाने की चिंता जताई है। सिमटती धरती की इन प्रामाणिक सच्चाइयों को छिपाने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और उत्तराखंड सरकार ने अंतरिक्ष एजेंसी समेत कई सरकारी संस्थानों को निर्देश दिया था कि मीडिया के साथ जानकारी साझा न करें। नतीजतन, इसरो की वेबसाइट से धरती के धंसने के चित्र हटा दिए गए। सरकार का यह उपाय भूलों से सबक लेने की बजाय उन पर धूल डालने जैसा है। जब हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र ने धरती को हिलाकर नाजुक बना दिया है, और घरों में दरारें पड़ने के साथ आधारतल धंस रहे हैं, तब लोगों को जीवन-रक्षा से जुड़ी सच्चाइयों को क्यों छुपाया गया?
दरअसल, भारत सरकार और राज्य सरकार ने स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद हठपूर्वक पर्यावरण के विपरीत जिन विकास योजनाओं को चुना है, उनके चलते यदि लोग अपने गांव और आजीविका के संसाधनों को खो रहे हैं, तो ऐसी परियोजनाएं किसलिए और किसके लिए? अब रेल और बिजली के विकास से जुड़ी कंपनियां दावा कर रही हैं कि धरती निर्माणाधीन परियोजनाओं से नहीं धंस रही है, लेकिन किन कारणों से धंस रही है, इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के नेशनल थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन, जो इस क्षेत्र में तपोवन विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है, की बिजली उत्पादक कंपनी ने पत्र लिखकर दावा किया है कि इस क्षेत्र की जमीन धंसने में उसकी परियोजनाओं की कोई भूमिका नहीं है।
उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी निदयों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जा रहा है, और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंबे व दीवारें खड़े किए जाते हैं। दरअसल, उत्तराखंड के भूगोल का मानचित्र बीते डेढ़ दशक में तेजी से बदला है। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियां भी अस्तित्व के संकट से जूझेंगी।
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