उत्तर प्रदेश : आठ के बूते अस्सी पर दांव
आधुनिकता के उत्तर दौर में जिन कुछ बहस और विवादों ने पूरी दुनिया को चौंकाया है, उसमें लोकतंत्र के दुधिया चरित्र पर संदेह शामिल है। यह अलग बात है कि डेमोक्रेसी को मेजोटेरियन कल्ट और फीयर के तौर पर देखने वाले राजनीतिक विचारकों ने राज्य व्यवस्था का कोई दूसरा विकल्प नहीं सुझाया है।
उत्तर प्रदेश : आठ के बूते अस्सी पर दांव |
लोकतंत्र की यह विकल्पहीनता ही उसकी ताकत है, उससे जुड़ी संभावना की सबसे बड़ी वजह है। वैसे इस पूरी बहस के बीच यह बात तो निर्विवादित है कि लोकशाही के उसके स्वरूप और आचरण में विसनीय और पारदर्शी होने का दबाव बढ़ गया है। इस दरकार और दबाव के बीच भारतीय लोकतंत्र की बात करें तो हमारी स्थिति न सिर्फ बेहतर है, बल्कि पंचायत स्तर तक उतरा लोकतंत्र का हमारा मॉडल दुनिया के लिए एक बड़ा भरोसा है, एक बड़ी उम्मीद है।
इस बीच, अमेरिका से लेकर यूरोप तक सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे लोगों को लेकर जिस तरह के खुलासे और अदालती मामले सामने आ रहे हैं, वह चिंता बढ़ाने वाली स्थिति है। ऐसे में लोकतंत्र की तीनों कंगूरे भारत में जिस तरह अपनी मजबूती बनाए हुए हैं, वह लोकतांत्रिक मान्यताओं और भरोसे को आस्था की एक बड़ी सहमति प्रदान करते हैं। भारत में फिलहाल अगले साल के आरंभ में होने वाले लोक सभा चुनाव को लेकर सियासी गहमागहमी है। ऐसे में राजनीतिक दल चुनावी फतह के लिए जिस तरह के समीकरणों और बदलावों को आजमा रहे हैं, वो देखने लायक है।
केंद्र में लगातार दूसरी बार सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी में हाल में कुछ बड़े सांगठिनक फेरबदल किए हैं। यह फेरबदल दिखलाता है कि जो लोग लोकतंत्र को महज पांच साल में एक बार के उत्सव में देखकर इसके प्रभाव और जीवंतता को लेकर सवाल उठाते हैं, वे कई जरूरी तथ्यों से आंख फेर लेते हैं। आंतरिक लोकतंत्र के अनुपालन में कई तरह के दोष भी हैं।
पर इस बात से शायद ही कोई इनकार करे कि दलों को अपने सांगठिनक ढांचा को वैसा स्वरूप देना होता है, जो समाज में उसकी स्वीकार्यता को बढ़ाए। इस लिहाज से देखें तो 2024 के चुनावी समर के लिए गठबंधन की राजनीति के बीच जोर आजमाइश के आकलन से ज्यादा जरूरी है उस सांगठिनक स्वरूप को समझना जिसके बूते इस या उस पाले के दल चुनाव में उतरेंगे। कमाल की बात है कि इस तरह की अकेली तैयारी आज सिर्फ भाजपा की तरफ से देखी जा रही है। लोक सभा में बहुमत के जादुई आंकड़े तक पहुंचने में जो प्रदेश तारीखी तौर पर सबसे बड़ी भूमिका निभाता रहा है, वह है उत्तर प्रदेश। एक दौर में तो तो यूपी को सीधे ‘पीएम स्टेट’ कहा जाता था। गठबंधन की राजनीति के दौर में यह मिथक टूटा। पर देश का सबसे बड़ा सूबा और अकेले 80 लोक सभा सीटों की ताकत रखने वाला यह प्रदेश आज भी दिल्ली की सत्ता की चाबी है। फिलहाल दो बार से वह देश के प्रधानमंत्री के लोक सभा क्षेत्र वाला प्रदेश भी है।
इस नजरिए से भाजपा के हालिया सांगठिनक फेरबदल को देखें तो भारतीय राजनीति का गुरु त्वाकषर्ण तय करने वाले इस अहम प्रदेश से रेखा वर्मा, लक्ष्मीकांत वाजपेयी व तारिक मंसूर को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है। इसमें रेखा वर्मा लोक सभा, लक्ष्मीकांत वाजपेयी राज्य सभा सांसद व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष हैं। वहीं तारिक मंसूर विधान परिषद सदस्य व पूर्व कुलपति एएमयू हैं। तीनों को शामिल कर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने सांगठिनक व शिक्षा की लिहाज से अपने संगठन को एक नई चमक दी है, एक ऐसी चमक जो सूबे की राजनीति का व्याकरण बदल सकता है। यूपी पर भाजपा के जोर को देखना-समझना इसलिए भी दिलचस्प है कि पार्टी के महामंत्री अरुण सिंह व राधा मोहन दास अग्रवाल भी यूपी से ही आते हैं। राधा मोहन यूपी की गोरखपुर नगर सीट से 2002 से विधायक रह चुके हैं। इसी सीट से प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ विधायक हैं। इस सीट को खाली करने के बाद भाजपा नेतृत्व ने राधा मोहन को राज्य सभा भेजा था। यूपी के बहाने केंद्र की राजनीति को साधने की भाजपा की यह कोशिश कितनी सोची-समझी है, यह कुछ और तथ्यों से साबित होता है। भाजपा के राष्ट्रीय सचिव सुरेंद्र सिंह नागर भी यूपी से ही सांसद हैं। वहीं राजेश अग्रवाल पूर्व में बरेली से विधायक रह चुके हैं। वे पूर्व प्रदेश महामंत्री की जिम्मेदारी भी संभाल चुके हैं और वर्तमान में कोषाध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए हैं।
चुनाव के सामाजिक गणित के लिहाज से देखें तो पहली बार राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल किए गए लक्ष्मीकांत वाजपेयी से जहां ब्राह्मण वोटों पर भाजपा की नजर है, तो वहीं तारिक मंसूर के जरिए पसमांदा मुसलमानों को अपने पक्ष में लाने के लिए भाजपा ने काफी तेज चाल चली है। साफ है कि पार्टी की निगाहें लोक सभा चुनाव में मुस्लिम बिरादरी के पसमांदा व बौद्धिक वर्ग पर है। इसी तरह राधा मोहन दास अग्रवाल को राष्ट्रीय कार्यकारिणी में देकर केंद्रीय नेतृत्व ने वै समाज को बड़ा प्रतिनिधित्व दिया है। गोरखपुर व आसपास का क्षेत्र भाजपा के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। यहां योगी आदित्यनाथ का जलवा तो पहले से है ही है, राधा मोहन को एक-के-बाद एक बड़ी जिम्मेदारी देकर भाजपा वहां के वैश्य समाज पर सीधा प्रभाव डालने की कोशिश में है। वैसे इस समाज को एकजुट करने की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कंधों पर होगी।
बहरहाल, भाजपा के राष्ट्रीय संगठन की बागडोर संभाल रहे 38 में से आठ नेताओं का अकेले यूपी से होना, कुछ नहीं बल्कि बहुत कुछ कहता है। लोकतंत्र से जुड़ी चिंताओं की जो बात हमने शुरू में की है, उस नजरिए से राजनीतिक जमात का सामाजिक चेहरा और उसका स्थानीय प्रभाव अगर किसी देश के लोकतांत्रिक अथवा चुनावी फिलत को तय करने में इतना प्रभावी है तो फिर लोकशाही को लेकर चिंता नहीं बल्कि उसकी मजबूती की होनी चाहिए। आखिर में एक बात यह कि भारत में 2024 का लोक सभा चुनाव निश्चित तौर पर अहम है। इस पूरे मामले में दिलचस्प यह भी है कि भारतीय स्वाधीनता संघर्ष को सबसे बड़ा विस्तार और प्रभाव देने वाला प्रदेश एक बार फिर से देश में लोकतंत्र और सत्ता के नए गणित के केंद्र में होगा। ऐसे में इस संभावना से भी इनकार नहीं कि प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का सियासी कद और बढ़ेगा। वे देश की राजनीति का नया ध्रुवतारा साबित हो सकते हैं।
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