शिक्षा व्यवस्था : बेहतरी की जगी आस
लगता है बिहार की शिक्षा व्यवस्था के दिन फिरने वाले हैं। शिक्षा महकमे में वर्षो की सुस्ती, काहिली और अनुशासनहीनता के खत्म होने की उम्मीद जगी है।
शिक्षा व्यवस्था : बेहतरी की जगी आस |
राज्य की जनता और पढ़ने-पढ़ाने से जुड़े लोगों को यह विश्वास होने लगा है कि राज्य की दम तोड़ती शिक्षा व्यवस्था अब फिर से पुराना गौरव हासिल करेगी। हालांकि शिक्षा की दुर्व्यवस्था सिर्फ बिहार की ही बात नहीं है। हिंदी पट्टी के अधिकांश राज्यों की स्थिति भी कमोबेश बिहार जैसी ही है। यहां भी शिक्षा औंधे मुंह गिरी है।
दरअसल, बिहार में यह भरोसा जगा है शिक्षा विभाग में अपर मुख्य सचिव केके पाठक के कुछ हालिया फैसले से। अचानक पूरे राज्य के स्कूल-कॉलेजों में ‘केके पाठक इफेक्ट’ की चर्चा होने लगी है। शिक्षा विभाग से जारी आदेश को देखकर लगता है कि पाठक शिक्षा विभाग का कायाकल्प करने में जुटे हैं। शिक्षक और अधिकारियों को वक्त पर स्कूल और कार्यालय आने के फरमान हों या कोचिंग सेंटरों पर नकेल; केके पाठक के सुधारवादी कदम से एकबारगी राज्य की शिक्षा व्यवस्था सांस लेने की स्थिति में आने लगी है। सभी शिक्षक नियत समय पर, विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में पधारने लगे हैं। करीब एक माह में प्राथमिक, मध्य एवं उच्च विद्यालयों में विद्यार्थियों की उपस्थिति 25-30 प्रतिशत से बढ़कर 60-65 प्रतिशत के करीब पहुंच चुकी है। सैकड़ों वर्षो से वैश्विक स्तर पर बिहार की शिक्षा-व्यवस्था की खास पहचान रही है, लेकिन पिछले कुछ दशकों से यहां शिक्षा का स्तर इस कदर गिरा कि लोग नाउम्मीद से हो गए। संयोग से यह वही दौर था, जब उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा की देश-विदेश में खूब मांग बढ़ी।
सरकारी एवं अन्य संस्थानों में नौकरी की मांग के अनुरूप शिक्षा के प्रति रुझान बढ़ा, मगर तब बिहार ‘आईटी-वाईटी क्या’ की धुन पर अलग राग अलाप रहा था। परिणामत: कोचिंग सेंटर और निजी स्कूलों की बाढ़ आ गई। नतीजतन, शिक्षा व्यवस्था किसी अंधे कुएं में जा फंसी। सरकारी स्कूल मतलब पढ़ाई छोड़ सब काम होना होकर रह गया। सरकार उदास सरकारी शिक्षण संस्थान और कुकुरमुत्ते की तरह उगे निजी स्कूल और कोचिंग इंस्ट्ीटय़ूटों की चमक-धमक में पटरी से उतर गई। छात्र और अभिभावकों का सरकारी शैक्षणिक व्यवस्था से विश्वास उठ गया। दर्जनभर से अधिक शिक्षक संगठनों से जुड़े नेता विद्यालयों से वास्ता भूल गए थे। वे अपनी सुविधा से स्कूल जा रहे थे। विद्यार्थियों की घटती संख्या 25 प्रतिशत से नीचे आ गई।
महाविद्यालय और विश्वविद्यालय परिसर सूने पड़ गए। पाठक द्वारा शिक्षा-व्यवस्था को पटरी पर लाने की कवायद नि:संदेह कइयों की जिह्वा का स्वाद कसैला कर दिया हो, मगर देर से ही सही अगर इस कदम की मियाद थोड़ी भी लंबी चली तो यकीन मानकर चलिए व्यवस्था में क्रांतिकारी सुधार से इनकार नहीं किया जा सकता है। हां, वर्षो से व्यवस्था में जंग लगी है औरंयह आसानी से तो जाने वाली नहीं है। दशकों से निरंतर अवरोही क्रम में लुढ़कती बिहार की शिक्षा-व्यवस्था को कुछेक दिनों में ही अपेक्षित फलाफल के करीब पाना असंभव है। प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, कम सुविधाएं, नामांकन के विरूद्ध कम उपस्थिति और उच्च छिजन (ड्रॉप आउट) एक गंभीर मसला है। विद्यालयों में पेयजल और शौचालय की समस्या, टूटे फर्श, बेंच का अभाव तथा रख-रखाव हेतु राशि की कमी भी बच्चों के ठहराव में बड़ी बाधा है। हालांकि कुछ अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने और फायदे के लिए सरकारी विद्यालयों पर नामांकन का भी आरोप है।
वैसे, एक दौर वह भी था जब ‘मुख्यमंत्री साइकिल योजना’ से सूबे की बालिकाओं के बीच शिक्षा के प्रति तेजी से आकषर्ण तो बढ़ा, लेकिन शैक्षणिक गुणवत्ता एवं आधारभूत संरचनाओं के अभाव में यह लय बरकरार नहीं रख पाया। सरकारी विद्यालयों से टूटते भरोसे के कारण अल्प आय वाले भी अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में भेजने लगे। सरकारी विद्यालयों को साधनहीन लोगों के लिए नामित मान उसके रहमोकरम पर छोड़ दिया गया। सरकार की भूमिका भी यहां खलनायक जैसी रही।
हालांकि विभाग द्वारा बिहार स्कूल इन्फाट्र्रक्चर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड (बीएसआईडीसीएल) का गठन के साथ अतिरिक्त वर्ग कक्ष (ए.सी.आर.) एवं शौचालय निर्माण सहित रखरखाव के लिए अरबों रुपए विद्यालयों को भेजे गए, लेकिन उस राशि का सदुपयोग एवं शैक्षणिक व्यवस्था की जवाबदेही नदारद दिखी। फिलवक्त पाठक शिक्षकों और अधिकारियों के बीच खौफ का दूसरा नाम बनते जा रहे हैं। सो भरोसा है कि बिहार में शिक्षा-व्यवस्था की उखड़ती सांसें फिर से लय में आएगी। हां, दूसरे राज्यों को भी ऐसे अधिकारियों के कामकाज का मूल्यांकन अपने यहां की स्थिति सुधारने की कवायद तेज कर देनी चाहिए।
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