महाराष्ट्र राजनीति : कोई तो लगाए पार
शरद पवार के हाथ से तोते उड़ गए हैं; उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भू-लुंठित पड़ी है; कभी उनके पंख पर सवारी करने वाले उनके तोते परकटे परिंदों से न उड़ पा रहे हैं, न रेंग पा रहे हैं; प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी न अपना चेहरा छुपा पा रही है, न दिखा पा रही है; जिन्हें सांप सूंघ गया है वे हैं कांग्रेस और शिव सेना के नेतागण।
महाराष्ट्र राजनीति : कोई तो लगाए पार |
दिखाने को सभी अपनी-अपनी तलवारें भांजने का प्रहसन कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि गत्तों की इन तलवारों में न धार है, न बल!
महाराष्ट्र की सरकार के पास सर तो है ही नहीं, कंधों पर धरा है खोखले उपमुख्यमंत्रियों का बोझ! शिंदे-फड़णवीस-अजित आदि आज कार पर भले चल रहे हों, हम भी जानते हैं और वे भी कि हैं वे सब एकदम बे-कार! ऐसा अर्थहीन हास्य-नाटक किसने लिखा? यह इस कदर भद्दा प्रसंग है कि जिस पर न कोई किसी को बधाई दे रहा है, न संदेश, न टिप्पणी। सब आंखें बचा रहे हैं ताकि कोई किसी को कुछ कहता या करता देख न ले! ऐसे में लोग मुझसे पूछ रहे हैं-सीधे भी और घुमा-फिरा कर भी कि महाराष्ट्र में जो कुछ, जिस तरह, जिनके द्वारा हुआ उसे आप कैसे देखते हैं?
इसलिए मैं यह लिख रहा हूं। और शुरू में ही, जयप्रकाश नारायण ने 1974 के जनांदोलन की तैयारी के दौरान, 1970-72 से जो सवाल देश से पूछना शुरू किया था, वही सवाल मैं आपसे पूछ ले रहा हूं: क्या नैतिक ताने-बाने के बिना कोई देश अपना अस्तित्व बचा सकता है? आप महाराष्ट्र और राष्ट्र में, सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों का हर कहीं जैसा पतनशील व्यवहार और बेशर्म तेवर देख रहे हैं, वह दूसरा कुछ नहीं, नैतिक ताने-बाने के बिखर जाने का परिणाम है। यह राजनीति नहीं है। राजनीति का एकदम शाब्दिक मतलब भी लें हम तो वह है राज चलाने की नीति। यहां जो हो रहा है उसमें कोई नीति नहीं है; और इसलिए दूसरा कुछ भी चल रहा हो, राज नहीं चल रहा है। यह क्या हुआ और कैसे हुआ?
यह कैसे हुआ कि कभी लंबे समय तक महाराष्ट्र के शक्तिशाली मुख्यमंत्री रह चुके युवा देवेंद्र फडणवीस खुले आम कह लेते हैं कि राजनीति में आदर्शवाद वगैरह ठीक है लेकिन असली सच तो यह है कि आप सत्ता से निकले तो कोई पूछने वाला भी नहीं होता है। मतलब, असली सच तो सत्ता है बाकी खोखली बातें हैं। कैसे होता है ऐसा कि प्रधानमंत्री जैसी खास कुर्सी पर बैठा कोई आदमी आज देश के भ्रष्टाचारियों की सूची की सार्वजनिक घोषणा करता है, और कल उन सभी भ्रष्टाचारियों को अपनी सरकार में कुर्सी पर बिठा लेता है? मतलब, वह दिखाना चाहता है कि सत्ता की कुर्सयिां सच तो छोड़िए, मर्यादा से भी कोई सरोकार नहीं रखती हैं। जो कुछ है सब जुमलेबाजी है! नरेन्द्र, देवेंद्र, पवार, ममता, राहुल, केजरीवाल आदि सब एक ही खेल खेल रहे हैं, जिसका कोई अंपायर नहीं है, कोई कायदा नहीं है।
रातोरात मुंबई की सड़कों पर उन सबको बधाई देने वाले बड़े-बड़े, सचित्र पोस्टर सार्वजनिक स्थानों पर लग गए जिन्होंने शरद पवार का दामन छोड़ कर मोदी का दामन थाम लिया है। इससे ही खुलासा हुआ कि यह सब रातोरात नहीं हुआ, बल्कि कई रातों में हुआ; कि यह सब ‘खुद छपवाया-खुद चिपकाया’ वाली उसी शैली में हुआ जिसका किस्सा सलीम-जावेद के जावेद ने सुनाया था कि कैसे फिल्मी दुनिया में अपना सिक्का जमाने के लिए उन दोनों ने अपना नाम फिल्मी पोस्टरों पर ठेका दे कर चिपकवाया था। लेकिन अजीत पवार से यह पूछा ही जाना चाहिए कि सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे पोस्टर लगाने की अनुमति आपने किससे ली, किसने दी और उसका किराया किसने भरा?भरा कि नहीं भरा कि यह सब आप सबकी काली करतूतों में ढक गया?
लेकिन असली जवाब तो उन इंदिरा गांधियों-शरद पवारों-अडवाणियों-मोदियों-शाहों को देना चाहिए जिन्होंने मूल्यविहीन राजनीति को चलाने-चमकाने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की है। किसी भी रास्ते सत्ता तक पहुंचना और किसी भी छल-छद्म से वहां बने रहना, राजनीति के नये खिलाड़ियों को यह ककहरा इन सबने मिल कर सिखाया है। सत्ता ही एकमात्र लक्ष्य है, कोई राजनेता ऐसा कहे तो मेरे जैसा आदमी उसे आसानी से समझ सकता है। खेल क्रिकेट का हो कि कबड्डी का कि सत्ता का, जीतना उसका लक्ष्य होता है। हार मुंह में कसैला-सा स्वाद छोड़ जाती है। फिर भी हर खेल में कोई जीतता तो कोई हारता तो है ही। लेकिन खेल तभी तक खेल है जब तक नियम से खेला जाता है, जब तक अंपायर की ऊंगली या सिटी पर चलता है। खिलाड़ी कितना भी बड़ा हो-मैसी हो कि कोहली कि फेडरर कि धोनी-न वह खेल से बड़ा होता है, न अंपायर की उंगली से ऊंचा होता है।
महात्मा गांधी ने दूसरा कुछ किया या नहीं लेकिन इतना तो किया ही कि अपने अस्तित्व की पूरी ताकत लगा कर राजनीति में, मानवीय व्यवहार में (उनके लिए ये दोनों एक ही थे!) कुछ ऐसे मूल्यों की जगह बनाई जिनके लिए जान भी दी जा सकती है। कई लक्ष्मण-रेखाएं ऐसी खींचीं कि जिसे कोई पार न करे। कोई अभद्र काम या व्यवहार करे तो अंग्रेजी में एक मुहावरा ही बन गया है : इट्स नॉट क्रिकेट। भारतीय संदर्भ में गांधी वैसा ही मुहावरा बन गए हैं : कोई गर्हित करे या कहे तो कहते हैं : यह गांधी का तरीका नहीं है। जब गांधी थे तब भी उन वर्जनाओं को तोड़ने की कोशिशें होती थीं लेकिन गांधी का होना ही उसकी सबसे बड़ी वर्जना बना रहता था। गांधी के बाद भी जवाहरलाल, सरदार, राजन बाबू, नरेंद्र देव, लोहिया आदि ने राजनीति में तो विनोबा, काका कालेलकर, जयप्रकाश नारायण सरीखे लोगों ने सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की जड़ें सींचने का काम किया।
हमने जो संविधान बनाया और लागू किया वह भी ऐसे मूल्यों की बात करता है। इसलिए गांधी को राजघाट से निकलने न देने की सामूहिक योजना बनी, तो बिना पढ़े-समझे संविधान की शपथ लेने से अधिक संविधान नाम की किताब का कोई मतलब नहीं है, ऐसा हमने अपनी राजनीति की नई पौध को समझाया। अब वह आपको आपकी ही पढ़ाई-सिखाई भाषा में जवाब दे रही है तो आप हैरान क्यों होते हैं? यह वह भस्मासुर है जो गुरु के सर पर ही विनाश का अपना हाथ धरने को उद्धत है। मूल्य दोधारी तलवार होते हैं। उन पर चलो तो धार लगती है, नहीं चलो तो विनाश होता है। भगवान कृष्ण इन दोनों पीड़ाओं से गुजरे थे। व्याध के बाण ने उन्हें उससे छुटकारा दिलाया था। भारतीय समाज और राजनीति आज उसी दौर से गुजर रही है। उसे किसी कृष्ण या किसी व्याध का इंतजार है।
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