मुद्दा : मजबूत होता रुपया और चुनौतियां

Last Updated 02 Aug 2023 01:24:03 PM IST

बीते कुछ समय से अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपए में द्विपक्षीय लेन देन के निपटान के लिए भारत के जोर देने को लेकर काफी चर्चा है।


मुद्दा : मजबूत होता रुपया और चुनौतियां

जब तक बड़ी संख्या में अन्य देश भी द्विपक्षीय लेन देन के निपटान के लिए रुपए को स्वीकार नहीं करते या भारत वस्तुओं एवं सेवाओं का शुद्ध निर्यातक नहीं बन जाता, तब तक रु पए के वास्तव में वैश्विक मुद्रा बनने की संभावना बहुत कम है।  

रुपए की अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति के लिए रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता आवश्यक है। मुद्रा की  परिवर्तनीयता का अर्थ किसी मुद्रा का अन्य मुद्राओं में बिना किसी नियंत्रण के प्रवर्तन से है। विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राएं डॉलर, पाउंड, युरो, रूबल आदि परिवर्तनीय मुद्राएं हैं। 2004 में जब मैंने वकालत शुरू की थी तो मैं मुख्य रूप से विदेशी मुद्रा प्रबंध अधिनियम, 1999 (फेमा) का सलाहकार हुआ करता था । वे दिन थे जब अगर कोई फेमा अधिसूचनाओं और परिपत्रों पर नियमित रूप से नजर रखता था तो लगभग निश्चितता के साथ भविष्यवाणी कर सकता था कि निकट भविष्य में फेमा नियमों के क्या बदलाव होने वाले हैं। मध्यम से अल्पावधि में रुपये के पूरी तरह परिवर्तनीय होने के बारे में बहुत चर्चा थी और लग रहा था कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और सरकार धीरे-धीरे उस दिशा में बढ़ रहे हैं। फिर 2007 के आर्थिक संकट ने दुनिया को प्रभावित किया और इस प्रक्रिया में एक ठहराव आ गया। तब से भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत कुछ बदल गया, लेकिन फेमा उदारीकरण की जो गति 2000 के दशक के पूर्वार्ध में थी, वह गति फिर नहीं आई।

कई लोग तर्क देते हैं कि विदेशी मुद्रा को नियंत्रित करने के लिए एक नियामक उपकरण के रूप में फेमा ने भारत को अच्छी स्थिति में रखा है क्योंकि रु पए ने उस तरह की गिरावट नहीं देखी है, जो कई अन्य मुद्राओं ने देखी है, लेकिन मेरे विचार से यह एक रक्षात्मक तर्क है, जो ऐसे देश को शोभा नहीं देता जो चाहता है कि उसकी मुद्रा को वैश्विक स्वीकृति मिले। फेमा की नियामक संस्थाएं रुपए और विदेशी मुद्रा का नियंत्रण अलग-अलग उद्देश्यों से करती आई हैं। संरक्षणवाद के उद्देश्य से विदेशी निवेश की सीमाएं लागू की गई हैं, और कहीं-कहीं स्थानीय सोर्संिग की शत्रे भी लगाई गई हैं। मुद्रा अस्थिरता को रोकने के लिए विदेशी प्रेषण की सीमाएं बांधी गई हैं, जबकि ‘पण्रालीगत जोखिम’ के डर से बाहरी ऋण के प्रवाह को नियंत्रित रखा गया है। दुर्भाग्यवश, आरबीआई और सरकार हमेशा संदेह में रहते हैं कि लोग फेमा के नियमों का जुगाड़ न ढूंढ लें, जिसका नतीजे में नियमों में कुछ अधिक ही जटिल परतें बन जाती हैं, जिन्हें अक्सर अस्पष्ट रखा जाता है ताकि प्रशासकों को अपनी आवश्यकता अनुसार व्याख्या करने की सहूलियत रहे। फेमा विनियमों में बदलाव की घोषणा के पहले बहुत कम औपचारिक चर्चा होती है, कई बार परिवर्तन परिपत्रों के माध्यम से हो जाता है, वास्तविक नियम-विनियमों में औपचारिक संशोधन बहुत बाद में होता है ।

फेमा कानून केंद्र सरकार और आरबीआई को फेमा के नियमन की लगभग अनियंत्रित अनुमति देता है। यद्यपि सैद्धांतिक रूप से नियम-विनियम संसद में प्रस्तुत किए जाते हैं, जिन्हें संसद बदल सकती है, लेकिन वास्तव में संसद ने अपने इस अधिकार का प्रयोग कभी नहीं किया है। विदेशी मुद्रा विनिमय पर फेमा का ऐसा नियंत्रण है कि कोई भी भारतीय व्यापारी आसानी से यह रु ख अपना सकता है कि हम फेमा के नियमों के चलते भुगतान करने में अक्षम हैं। टाटा-डोकोमो विवाद याद करें, जहां डोकोमो को टाटा के खिलाफ आर्बिट्रेशन अवार्ड को लागू कराने में फेमा नियमों के चलते परेशानी उठनी पड़ी। आरबीआई और सरकार का रु पये पर नियंत्रण इतना सख्त और अपारदर्शी है कि संदेह बना रहता है कि रुपए की विनिमय दर उसके वास्तविक मूल्य को दर्शाती भी है, या नहीं। इस संबंध में चीनी मुद्रा रेनिमनबी का हवाला दिया जा सकता है जहां मुद्रा नियमन भारत जैसा ही सख्त है मगर रेनिमनबी की अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति रुपये से अधिक है। यह तुलना उचित नहीं है क्योंकि चीन का अन्य अर्थव्यवस्थाओं के साथ द्विपक्षीय व्यापारिक संबंध ऐसा है, जहां चीन रेनिमनबी में व्यापार निपटान को मजबूर कर सकता है, वास्तव में रेनिमनबी की स्वैच्छिक स्वीकृति कम ही है।

यदि भारत सरकार रुपए को वैश्विक रूप से स्वीकार्य मुद्रा बनाने के अपने उद्देश्य के प्रति वास्तव में गंभीर है, तो उसे रुपए और विदेशी मुद्रा नियामक ढांचे में अधिक निश्चितता लाने की आवश्यकता है। सबसे पहले तो सरकार को अपने और आरबीआई के अधिकारों पर लगाम लगाने की जरूरत है। आवश्यक है कि पूंजी खाता लेन देन पर किसी भी प्रकार के दीर्घकालिक नियंत्रण के पहले पर्याप्त चर्चा हो, यहां तक कि संसदीय अनुमोदन भी लिया जाए। अस्थायी नियंत्रण स्पष्ट उद्देश्यों के साथ होना चाहिए न कि अस्पष्ट चिंताएं दूर करने के लिए, और वह भी एक परिभाषित अवधि के लिए। ऐसे में नीति निर्माता के रूप में सरकार अपने विनियामक ढांचे के माध्यम से अपनी असुरक्षाओं को प्रदर्शित नहीं कर सकती, जबकि वह विश्व बाजार को रुपए की ताकत दिखाना चाहती है। आशा है कि नॉर्थ ब्लॉक में बैठे महानुभाव यह समझेंगे।

अभिषेक त्रिपाठी


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