राजनीति : एनडीए बनाम इंडिया
वर्ष 2024 के लोक सभा चुनाव (Lok Sabha Election 2024) में अब कुछ ही महीनों की देर है, इसलिए स्वाभाविक है पक्ष-विपक्ष राजनीतिक मोर्चेबंदी पूरी कर लें।
राजनीति : एनडीए बनाम इंडिया |
2004 से 2014 के बीच कांग्रेस केंद्र सरकार में बनी हुई थी, तब उसने न तो अपने सांगठनिक ढांचे को दुरुस्त किया और न यूपीए के सहयोगी दलों के साथ तालमेल ठीक रखा। कम्युनिस्टों से तो कुछ पहले ही अनबन हो गई थी, उत्तर भारत के अनेक दल भी उसके प्रति उदासीन हो गए। राजद, लोजपा, तृणमूल आदि की दूरी कांग्रेस से बढ़ती गई। डॉ. मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत ईमानदारी पर किसी को शुबहा नहीं हुआ, किंतु टूजी और कॉमनवेल्थ गेम्स के मामले पर भ्रष्टाचार के मामले बोफोर्स मामले की तरह ही चर्चा के विषय बन गए। इन सब बातों का नतीजा हुआ कि 2014 में कांग्रेस 44 पर सिमट गई। वामदलों ने भी अपनी प्रभावकारी स्थिति खो दी। दूसरे गैर-भाजपा क्षेत्रीय दल भी अपने अंतर्विरोधों से बहुत कमजोर गए। लगभग यही स्थिति 2019 में भी बनी रही। इसलिए स्वाभाविक हैं कि 2024 चुनाव के पूर्व कांग्रेस और गैर-भाजपाई दल एकजुट और गोलबंद हों। 2014 के मुकाबले 2019 भाजपा ने छह फीसद वोट अधिक हासिल किए थे। उसने ऐसी ही रफ्तार बनाए रखी या उससे नीचे नहीं गिरी तो उसे पराजित करना मुश्किल होगा। ऐसे में स्पष्ट है कि गैर-भाजपा दलों की गोलबंदी ही भाजपा को रोक सकती है।
इस बार एकता की मुहीम बिहार से आरंभ हुई। 2022 अगस्त में बिहार में राजनीतिक अफरा-तफरी के बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिना सुगबुगाहट या पूर्वसूचना एक रोज भाजपा के खिलाफ पलटी मारी और अपने धुर विरोधी राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ सरकार बना ली। कुछ इसी तरह उन्होंने पांच साल पूर्व 2017 में राजद से हट कर भाजपा के साथ गठबंधन साध लिया था। दोनों बार नीतीश की छवि को धक्का जरूर लगा, लेकिन जिनके साथ वे गए उन्हें राजनीतिक फायदा हुआ। 2017 में भाजपा के साथ होने का राजनीतिक प्रतिफल यह निकला कि 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा गठबंधन ने बिहार की 40 में से 39 सीटें हासिल कर लीं। 2022 में उनके राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ होने पर कुछ लोगों का अनुमान है कि वैसे ही नतीजे प्राप्त होंगे। इसी उत्साह ने नीतीश को राजनीतिक रूप से ऐसा सक्रिय किया कि वह राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिपक्ष की गोलबंदी के अभियान में जुट गए। पिछले जून महीने में उनके प्रयास से पटना में सोलह प्रतिपक्षी दलों की बैठक हुई। उसकी अगली कड़ी के रूप में पिछले 18 जुलाई को बेंगलुरू में 26 गैर-भाजपा दलों की बैठक हुई जिसमें कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए का नया रूप इंडियन नेशनल डवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस ( संक्षिप्त रूप इंडिया) रखा गया।
ठीक इसी रोज दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का भी पुनर्गठन हुआ जिसमें इस बार 38 दल शामिल हुए। इस तरह देखा जाए तो आने वाले चुनाव में एनडीए और इंडिया के बीच सीधी लड़ाई संभावित है। एक समय कांग्रेस और हाल के दिनों में भाजपा भी क्षेत्रीय दलों को हिकारत की नजर से देखती थी लेकिन आज राजनीतिक मजबूरी है कि उपरोक्त दोनों दलों को क्षेत्रीय दलों की जरूरत है। कांग्रेस तो खैर राजनीतिक तौर पर अभी खस्ता हाल है, किंतु भाजपा, जो केंद्र में पूर्ण बहुमत में है, को इलाकाई दलों की जरूरत क्यों पड़ रही है? क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक उपयोगिता आने वाले समय में और बढ़ सकती है। अनुमान है भारतीय लोकतंत्र जितना अधिक लोकसत्तात्मक होगा, क्षेत्रीय दल उतने ही अपरिहार्य होते जाएंगे। इसलिए पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ इन दलों का ध्रुवीकरण हमारे लोकतंत्र के लिए शुभता का प्रतीक है। हां, इनका बिखरे रूप में चुनाव लड़ना और चुनाव बाद का मोल तोल ठीक नहीं होता है। आने वाले चुनाव में सबकी नजर इंडिया गठबंधन की तरफ होगी। लेकिन बेंगलुरू से जो संदेश मिला है वह बहुत उत्साहजनक नहीं है। भाजपा को हिन्दीभाषी राज्यों में पराजित करना उसके लिए मुख्य चुनौती होगी। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड ,दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्य होंगे। उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा को पराजित किए बिना केंद्र से उसे विस्थापित करना मुश्किल होगा। लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस ने उस तरह लक्ष्य नहीं किया, जिस तरह भाजपा ने किया। एनडीए में बिहार और यूपी के प्रतिपक्षी महागठबंधन के कई चेहरे दिखे। जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, राजभर जैसे भाजपा विरोधी कैंप के लोग आज यदि एनडीए के साथ हैं, तो इसे भाजपा की रणनीतिक सफलता ही कहेंगे।
आखिर कांग्रेस इन्हें अपने साथ रख क्यों नहीं सकी। बिहार और यूपी में लालू-नीतीश-अखिलेश के खिलाफ दलितों, अत्यंत पिछड़ी जातियों और सवर्ण कही जाने वाली जातियों में आक्रोश है, जिसका वोटों में प्रदशर्न होता रहा है। यह जरूर है कि इस बीच मुसलमानों और दलितों के बीच कांग्रेस के लिए आकषर्ण विकसित हुआ है लेकिन जब कांग्रेस लालू-नीतीश-अखिलेश के दलों के साथ गठबंधन में होगी तो इन प्रांतों में उसे सीटें कम मिलेंगी। और वर्तमान परिस्थितियों में राजद-जदयू-सपा द्वारा भाजपा का मुकाबला बहुत असरदार नहीं होगा।
अगले चुनाव में क्या होगा कहना मुश्किल है। लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस को हिन्दी इलाकों में अपने को मजबूत करना होगा। कांग्रेस नेता बार-बार विचारधारा की लड़ाई की बात करते हैं, लेकिन हिन्दी क्षेत्रों में इस लड़ाई का विस्तार देते नहीं दिखते। लालू, नीतीश, अखिलेश के लोकदली मानस के साथ वे इस लड़ाई की संगत स्थापित नहीं कर सकते क्योंकि इन दलों के साथ उनका बुनियादी वैचारिक विरोध है। केवल भाजपा विरोध पर वे एकमत हैं। कांग्रेस ने इन्हें अलग-थलग कर इन राज्यों में चुनाव लड़ा तो भाजपा को कारगर शिकस्त दे सकती है। लेकिन इसके पूर्व उसे अपने ढांचे का परिमार्जन करना होगा। दलितों, मुसलमानों और पिछड़े वगरे के एक हिस्से के साथ कांग्रेस ही सवर्ण कही जाने वाली जातियों के वोट हासिल कर सकने में सक्षम हो सकती है। सवर्ण वोट इन राज्यों में लगभग एकमुश्त भाजपा के साथ हैं, लेकिन उनके बीच भाजपा की आलोचना तीखे अंदाज में विकसित हुई है। लालू, नीतीश, अखिलेश के साथ ये वोट प्रभावकारी रूप में नहीं आ सकते। लेकिन यह बड़ा फैसला होगा जिसे इंदिरा गांधी तो ले सकती थीं, खड़गे और राहुल गांधी लेंगे इसमें संदेह है।
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