सियासी दांव-पेच, मौके की दोस्ती
लोकसभा चुनाव-2024 (Loksabha election 2024) करीब आते देख देश का सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों नये-नये राजनैतिक समीकरण साधने में जुट चुके हैं।
सियासी दांव-पेच : मौके की दोस्ती |
कल तक बिखरा नजर आने वाला विपक्ष जब 23 जून को बिहार की राजधानी पटना में एक साथ नजर आया उस समय कांग्रेस सहित 15 विपक्षी पार्टयिों ने बीजेपी के खिलाफ एकजुटता का इजहार किया था। परन्तु अब 17-18 जुलाई को जब इसी विपक्षी एकता की दूसरी बैठक बैंगलुरू में हुई तो इसमें 26 राजनैतिक दल यानी 26 राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल मिलकर भाजपा के विरुद्ध ताल ठोकने की तैयारी में दिखाई दिए।
विपक्षी दल चुनाव में जहां कमरतोड़ महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी, लोकतंत्र और संविधान पर मंडराते खतरे, भ्रष्टाचार, विफल विदेश नीति तथा अल्पसंख्यकों और दलितों पर बढ़ते हमलों जैसे मुद्दों को लेकर भाजपा के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं वहीं भाजपा सरकार द्वारा केंद्रीय जांच एजेंसियों के भारी दुरुपयोग के चलते भी राजनीतिक दल एक साथ आने को मजबूर हुए हैं। दूसरी तरफ, सत्ता पक्ष यानी भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को आशंका है कि कहीं 2024 में उसकी सत्ता में वापसी की उम्मीदों पर पानी न फिर जाए। इसलिए भाजपा न केवल पुराने सहयोगी दलों को पुन: अपने खेमे में शामिल करने के प्रयास में जुट चुकी है, बल्कि कुछ नये सहयोगियों को भी अपने साथ शामिल करने की कोशिश में है। भाजपा अच्छी तरह समझ चुकी है कि 2024 में उसे उस तरह की जीत कतई हासिल नहीं होने वाली जैसी 2019 में हुई थी। उसे विगत दस वर्षो में पैदा हुई सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा। इसीलिए भाजपा जहां बिहार से जीतन राम मांझी, चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा के अलावा नीतीश के करीबी रहे आरसीपी सिंह जैसे और भी कई छोटे दलों के नेताओं को अपने पाले में लाने के लिए प्रयासरत है वहीं उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर और जयंत चौधरी को भी अपने साथ जोड़ने की कोशिश में लगी है।
गौरतलब है कि 2014 में भाजपा ने राजभर की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की स्थिति में राज्य की 80 में से 71 सीटों पर फतह हासिल की थी। परंतु 2017 में राजभर के साथ छोड़ने के बाद उसे 62 सीटें मिली थीं। भाजपा की कोशिश है कि किसी तरह छोटे दलों को साथ लेकर जातीय समीकरण साधे जाएं और 2014 के प्रदशर्न के कीर्तिमान को भी तोड़ा जाए। पंजाब में वह अपने पुराने सहयोगी और विवादित कृषि कानून के विरोध में राजग से अलग हुए शिरोमणि अकाली दल बादल को साधने में लगी है।
कर्नाटक में हार के बाद दक्षिण भारत में कई पुराने तो कई नये सहयोगियों से रिश्ते बनाने की कोशिश में है। भाजपा अपने राजग परिवार में ही इजाफा नहीं कर रही, बल्कि कांग्रेस, शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में सेंध लगाकर इनमें तोड़फोड़ करके भी स्वयं को सुदृढ़ करने की योजना पर काम कर रही है। कुछ समय पहले भाजपा ने एकनाथ शिंदे ग्रुप को शिवसेना से अलग करने के बाद एनसीपी में अजित पवार और कई अन्य नेताओं को पार्टी से तोड़ कर अपने पाले में शामिल कर लिया। मेघालय के मुख्यमंत्री और बीजेपी की सहयोगी पार्टी नेशनल पीपुल्स पार्टी के प्रमुख कोनार्ड संगमा, एनडीडीपी प्रमुख और नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो, अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल, आरपीआई के रामदास अठावले, जन सेना पार्टी के पवन कल्याण, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी, उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, संजय निषाद की निषाद पार्टी, हरियाणा में बीजेपी की सहयोगी जेजेपी, तमिलनाडु की अन्ना द्रमुक, तमिल मानिला कांग्रेस, आईएकेएमके (तमिलनाडु), आजसू, सिक्किम की एसकेएफ, जोरम थंगा के नेतृत्व वाली मिजो नेशनल पार्टी और असम की असम गण परिषद आदि विभिन्न छोटे-बड़े क्षेत्रीय दल एनडीए के कुनबा विस्तार योजना के पात्र हैं, और जो नेता भाजपा के पाले में स्वेच्छा से या उसकी कोशिशों के बावजूद नहीं आ रहे, उन्हें ईडी या सीबीआई का खौफ दिखा कर खामोश करने या अपने साथ जोड़ने जैसा अनैतिक काम भी भाजपा कर रही है।
एक बात तो तय है कि सत्ता हासिल करने के लिए सत्ता और विपक्ष, दोनों की तरफ से किए जा रहे गठबंधन के खेल में अनैतिकता और अवसरवादिता के साफ दशर्न हो रहे हैं। जो अरविंद केजरीवाल कल तक सोनिया गांधी की गिरफ्तारी की मांग करते नहीं थकते थे, आगस्ता वेस्टलैंड खरीद मामले में गांधी परिवार को घेरते रहते थे, यहां तक कि सोनिया गांधी की गिरफ्तारी न करने के लिए यहां तक कहा करते थे कि चूंकि गांधी परिवार नरेन्द्र मोदी के सीक्रेट्स जानता है, इसलिए उनको गिरफ्तार करने की मोदी में हिम्मत नहीं, वही केजरीवाल सोनिया गांधी और कांग्रेस के साथ विपक्षी गठबंधन में अहम किरदार बनने जा रहे हैं। राजभर एनडीए से अलग होने के बाद जनसभाओं में कहते फिरते थे-‘दुनिया में झूठ बोलने वाला सबसे बड़ा नेता कोई है तो मोदी है।’ जीतन राम मांझी ने तो ऐसा बयान दिया था कि यदि कांग्रेस या अन्य किसी गैर-एनडीए दल के नेता ने दिया होता तो भाजपा, संघ और वि हिन्दू परिषद के लोग राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ देते। मांझी ने कहा था-‘भगवान श्रीराम ने माता शबरी के जूठे बेर खाए थे, लेकिन ऊंची जाति के लोग हमारा छुआ भी नहीं खाते हैं। हम सिर्फ महर्षि वाल्मीकि और तुलसीदास को मानते हैं, पर राम को नहीं जानते।’ अब राम के नाम पर सत्ता हासिल करने वाली भाजपा के वही मांझी खेवनहार बनने जा रहे हैं। पीएम ने अजीत पवार को घोटालेबाज बताया और कुछ ही दिनों बाद महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार में उन्हें और उनके अन्य आरोपी सहयोगियों को शामिल कर लिया। अनेक उदाहरण हैं जो निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए काफी हैं कि राजनीति में शर्म और नैतिकता नाम की कोई चीज बाकी नहीं रह गई।
बहरहाल, सत्ता के सभी हथकंडों से मुकाबला करने के लिए लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के नाम पर नया विपक्षी गठबंधन तो फिर भी काफी हद तक समय की जरूरत कही जा सकती है। परंतु वि के सबसे बड़े राजनैतिक दल का दावा करने वाली भाजपा, जो लोक सभा में अपना अकेले पूर्ण बहुमत रखती है, को बैसाखियों की दरकार होना जरूर दशर्ता है कि भाजपा के लिए 2024 की राहें आसान नहीं हैं।
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