खाद्यान्न संकट : पुतिन का नया पैंतरा
दुनिया बड़े खाद्य संकट का सामना कर रही है,रोजमर्रा और खाने-पीने की चीजों के दाम कई गुना बढ़ गये हैं। ब्रिटेन,जर्मनी,पाकिस्तान से लेकर कई देशों में विरोध प्रदर्शन देखे जा रहे हैं।
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महंगाई और भूख की समस्या से राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बन जाती है,अब यह संकट दुनिया में गहरा सकता है। दरअसल यूक्रेन काला सागर के ज़रिए अनाज का सुरक्षित निर्यात कर रहा था लेकिन रूस अब इस समझौते से पीछे हट गया है, जिससे यह समझौता अब खत्म हो गया है। यानी यूक्रेन से गेंहूं का निर्यात अब दुनिया के अन्य देशों तक नहीं हो पाएगा और इससे वैश्विक स्तर पर अभूतपूर्व मानवीय संकट बढ़ सकता है।
यूक्रेन की अहमियत दुनिया की फूड बास्केट जैसी है,यह देश-दुनिया के करीब 40 करोड़ लोगों के लिए अनाज उगाता है। यूक्रेन से सबसे ज्यादा गेहूं खरीदने वाले देशों में मोरक्को,इंडोनेशिया,पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल हैं। रूस और यूक्रेन दोनों खाद्यान्न और खाद्य तेल समेत दूसरे खाद्य पदार्थों के बड़े निर्यातक हैं। दुनिया के बाजार में आने वाले गेहूं में 29 और मक्के में 19 फीसद की हिस्सेदारी यूक्रेन और रूस की है। सूरजमुखी तेल का सबसे बड़ा उत्पादक यूक्रेन है। तुर्की और मिस्र अपनी जरूरत का 70 फीसद गेहूं रूस और यूक्रेन से आयात करते हैं।
यूक्रेन चीन का प्रमुख मक्का सप्लायर है। गृहयुद्ध से बुरी तरह जूझने वाला देश सोमालिया, जहां 2011 में अकाल पड़ा था, वह अनाज के लिए यूक्रेन पर पूरी निर्भर है। यूक्रेन में 2021-22 में करीब 33 मिलियन मीट्रिक टन गेहूं का उत्पादन हुआ था, इसमें से लगभग 20 मिलियन मीट्रिक टन गेहूं का यूक्रेन ने निर्यात किया था। दुनिया भर में निर्यात होने वाले कुल गेहूं का करीब 10 से 12 फीसद तो सिर्फ यूक्रेन से जाता है। अतएव, यूक्रेन से दुनिया के अन्य हिस्सों में अनाज न पहुंचा तो कई गरीब देशों में हाहाकार मच सकती है। र्वल्ड फूड प्रोग्राम पर भी विपरीत असर पड़ सकता है, जो कोविड महामारी के बाद खाद्य संकट से जूझ रहे 82 देशों के करीब 35 करोड़ लोगों के लिए चलाया जा रहा है। रूस यूक्रेन युद्ध के बीच दुनिया को खाद्य संकट से बचाने के लिए काले सागर से अनाज के निर्यात का सुरक्षित मार्ग बनाया गया था। काला सागर सामरिक रूप से बहुत अहम है, जो रूस और यूक्रेन से जुड़ा है। पिछले तीन दशक में मध्य और पूर्वी यूरोप की राजनैतिक स्थिति में बड़े बदलाव हुए हैं और इनसे सामरिक प्रतिद्वंदिता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।
इस क्षेत्र में दुनिया की बड़ी शक्तियों के बीच भू-राजनीतिक मुक़ाबला चरम पर है। संयुक्त राष्ट्र और तुर्की के मध्यस्थता प्रयासों के फलस्वरूप काला सागर अनाज पहल पिछले साल के अगस्त से शुरू की गई थी। इसके लिए संयुक्त समन्वय केन्द्र बनाया गया जिसका मुख्यालय इस्तान्बुल में स्थित है। समझौते की शर्तों का पालन करने, जहाज़ों की निगरानी और अन्य प्रक्रियात्मक कार्य यहीं से पूरे किए गये और इस समझौते पर यूक्रेन,रूस,तुर्की और संयुक्त राष्ट्र एक मत थे।
अब रूस का कहना है कि समझौतों की शर्तों का पालन अन्य पक्षों द्वारा न होने से वह इससे हट रहा है। ऐसा लगता है कि पुतिन खाद्यान्न संकट को बढ़ाकर यूरोप और अमेरिका पर दबाव डालना चाहते हैं। यूक्रेन पर कब्जा करने की पुतिन की कोशिशें लगातार नाकामयाब हो रही हैं। वहीं, यूक्रेन को नाटो की सहायता लगातार मिल रही है।
पुतिन अपने राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं। यूक्रेन पर रूस के हमले को 500 दिन बीत चुके हैं और युद्ध लम्बा खींचता जा रहा है, इससे रूस की परेशानियों में इजाफा ही हुआ है। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन मानते हैं कि नाटो के क्षेत्र में विस्तार उनके देश की सुरक्षा के लिए सीधा ख़्ातरा है। उन्होंने दावा किया था कि साल 2022 में यूक्रेन पर हमला करने की वजह यही थी। वहीं नाटो का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और पुतिन यूक्रेन युद्ध में उलझे हुए हैं।
पुतिन के यूक्रेन पर हमले की वजह से उत्तरी यूरोप में दीर्घकालिक शांति और स्थिरता को जोरदार झटका लगा है। इस हमले की वजह से ही रूस के करीबी देश असुरक्षित महसूस कर नाटो का भाग बनते जा रहे हैं। यूक्रेन पर रूस के आक्रमण ने नाटो का विस्तार बढ़ाने में ही योगदान दिया है। फिनलैंड का नाटो में शामिल होना उनके लिए सबसे अहम झटका है क्योंकि इससे नाटो का प्रभाव बाल्टिक सागर तक हो गया है। रूस ने अपने पड़ोसी देशों को डराने के लिए बेलारूस में अपने टैक्टिकल न्यूक्लियर हथियार पहुंचा दिए हैं। इससे फिनलैंड और स्वीडन इन हथियारों की रेंज में आ गए हैं। वहीं फिनलैंड और स्वीडन अब नाटो के साथ हैं। हाल ही में नातों का शिखर सम्मेलन लिथुआनिया की राजधानी विलनीयस में आयोजित किया गया था। ये रूस से सटे हुए तीन छोटे बाल्टिक देशों में से एक है, जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में सोवियत संघ ने अपने कब्ज़े में ले लिया था।
लिथुआनिया,लातविया और एस्टोनिया के लोग चाहते हैं कि यूक्रेन को नाटो में शामिल किया जाए। जाहिर है, इस मोर्चे पर पुतिन की नाकामी उन्हें अपने देश में एक कमजोर शासक बना रही है। करीब डेढ़ साल पहले पुतिन ने यूक्रेन में विशेष सैन्य अभियान शुरू किया था जिसका मक़सद रूस को सुरक्षित करना था। लेकिन रूस न तो बाहरी सीमा पर सुरक्षित नजर आ रहा है और न ही आंतरिक रूप से। हाल के महीनों में क्रेमलिन पर ड्रोन हमले हो चुके हैं,पश्चिमी रूस पर बमबारी हो चुकी है और कुछ दिन पहले हथियारबंद लड़ाकों ने तो मॉस्को कूच कर दिया था। वैगनर ग्रुप की बग़ावत ने रूसी सैन्यबलों की कमज़ोरी उजागर कर दी है और अंदरूनी खतरे से निबटने में पुतिन के अपने सैन्य बलों के सही से इस्तेमाल न करने की अक्षमता को भी। अब पुतिन विश्व में खाद्यान्न संकट को बढ़ाकर अपने देश में खुद को मजबूत करना चाहते हैं। उन्होंने यह रास्ता रूस को वैश्विक प्रतिबंधों से उबारने के लिए चुना है ताकि उसके सैन्य,आर्थिक और राजनीतिक हित पूरे हो सकें।
वे चाहते हैं कि रूस को अंतरराष्ट्रीय बैकिंग पण्राली का पुन: हिस्सा बना लिया जाए। यूक्रेन पर हमले के बाद से ही रूस कड़े वैश्विक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है। इससे पुतिन के खिलाफ असंतोष बढ़ता जा रहा है। दुनिया भर में ईधन व उर्वरकों के उच्च दामों,जलवायु परिवर्तन और संघर्ष व युद्धों की स्थितियों से मानवीय संकट बढ़ा हुआ है और ये हालात करोड़ों लोगों को निर्धनता व भुखमरी के हालात में धकेल रहे हैं। अफ़सोस पुतिन राजनीतिक फायदों के लिए वैश्विक मानवीय संकट को बढ़ा रहे है।
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