दिल्ली बनाम केंद्र : कब खत्म होगी तनातनी

Last Updated 11 Jul 2023 01:56:32 PM IST

प्रशासनिक अधिकारों को लेकर केंद्र सरकार से तनातनी के बीच पिछले कुछ समय से दिल्ली सरकार का सुप्रीम कोर्ट में जाना और सर्वोच्च अदालत का फैसला आना अखबारों में तकरीबन स्थाई स्तंभ जैसी जगह हासिल कर चुके हैं।


दिल्ली बनाम केंद्र : कब खत्म होगी तनातनी

आम तौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से संजीवनी पाती रही सरकार इस हफ्ते कुछ ‘आहत भाव ‘ में दिख रही है।

दरअसल दिल्ली-अलवर और दिल्ली-पानीपत कारिडोर निर्माण से जुड़ी इस परियोजना में विलम्ब की बाबत अदालत के सामने यह तथ्य रखे गए थे कि दिल्ली सरकार इस परियोजना में अपना अंशदान नहीं कर रही। दिल्ली सरकार के वकील का तर्क था कि एक तो कोविड के बाद उसके राजकोष की स्थिति खराब है और दूसरी तरफ केंद्र सरकार पिछले साल से लंबित 5000 करोड़ रुपये की वह राशि भी नहीं दे रही है, जो उसे जीएसटी मुआवजे के बतौर मिल जाना चाहिए था। हालांकि अदालत ने इस मामले में नाराजगी जाहिर करते हुए दिल्ली सरकार से इस तल्ख टिप्पणी के साथ बीते 3 सालों में विज्ञापन पर किए गए खर्च का ब्योरा मांग लिया कि सरकार के पास विज्ञापन और प्रचार के लिए तो पैसे हैं लेकिन जनहित के लिए नहीं, हमेशा की तरह अदालत की इस टिप्पणी पर भी मिश्रित प्रतिक्रियाएं आई। आम आदमी पार्टी ने ‘आहत भाव’ से तो उसके विपक्षी भाजपा और कांग्रेस ने ‘स्वागत भाव’ वाली प्रतिक्रियाएं जाहिर की। एक बात बेशक कही जा सकती है कि अदालती टिप्पणी ने कई अहम सवालों को जन्म दिया है।

आमतौर पर यह माना जाता रहा है कि राज्य के लिए नीतियां और योजनाएं बनाना, उनकी वरीयता तय करना और उनके लिए बजट आवंटित करना निर्वाचित सरकारों का विशेषाधिकार होता है। वह अपने घोषणा पत्रों, चुनावी वायदों के अनुरूप अपने कार्यक्रम, अपनी प्राथमिकताएं और उसका बजट तय करती हैं। ऐसी दशा में क्या इस मामले में अदालत का दिल्ली सरकार से यह कहना कि-‘क्या आप चाहते हैं कि हम यह आदेश दें कि विज्ञापन पर खर्च करने वाली राशि इस परियोजना की ओर डायवर्ट की जाए?’ इस विशेषाधिकार की विभाजक रेखा का अतिक्रमण है? सवाल यह भी है कि क्या सरकारों द्वारा किये गए विज्ञापनों को गैर जरूरी या कम जरूरी खर्च माना जा सकता है? इस दौर में जबकि लगभग सभी सरकारें विज्ञापनों पर धुआंधार खर्च कर रही हैं। ऐसी अदालती टिप्पणियां क्या इस प्रवृत्ति पर कोई अंकुश लगा सकती हैं? आमतौर पर शीर्ष अदालतें योजनाओं और कार्यक्रम तय करने या उन पर राशि आवंटित करने जैसे मामलों में सरकारों के विशेषाधिकार का सम्मान करती आई हैं लेकिन ऐसे कई मामले हैं जिनमें जनहित के मुद्दे पर अदालतों ने अपनी भूमिका बदली है। मिसाल के तौर पर 1980 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को याद किया जा सकता है। रतलाम नगरपालिका बनाम वृद्धि चंद के नाम से मशहूर इस मामले में सफाई कार्य से संबंधित एक नागरिक की अपील पर फंड की कमी के तर्क दे रही नगरपालिका ने स्थानीय अदालत और हाईकोर्ट में केस हारने के बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी।

इस मामले में जस्टिस कृष्ण अय्यर की अदालत ने यह कहते हुए नगरपालिका को कड़ी फटकार लगाई थी कि आपने जितनी राशि विभिन्न अदालतों में मुकदमा लड़ने में लगाई है उससे उससे आप सफाई से जुड़ा वह काम आसानी से कर सकते थे जो कि आपकी वैधानिक प्रतिबद्धता है। 1988 में भी एल के कोलवाल बनाम राजस्थान सरकार के एक मामले में राजस्थान हाईकोर्ट ने इसी तरह, नगर पालिका को उसकी जिम्मेदारी याद दिलाई थी। जस्टिस पीएन भगवती सहित सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने तो 1974 में बीपी रोयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य के मामले में यहां तक कहा था कि जनहित के मामलों में सरकार की मनमर्जी या विशेषाधिकार  दरअसल अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता के अधिकार के ही खिलाफ है। पीठ ने कहा कि  समानता और विशेषाधिकार या मनमर्जी कट्टर शत्रु हैं, जो एक साथ रह ही नहीं सकते। इन उदाहरणों के आलोक में देखें तो साफ है कि आरआरटीएस मामले में जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ का फैसला किसी परंपरा का अतिक्रमण नहीं बल्कि जनहित को प्रतिष्ठित करने की पुरानी परंपरा का एक विस्तार है।

अलबत्ता यह सवाल जरूर अहम है कि यह टिप्पणी ‘लोकतंत्र में जनिहत की सर्वोच्चता’ की आदशर्वादी स्थिति की ओर हमें कितना आगे ले जाएगी। जहां तक सरकारी विज्ञापन को गैर जरूरी या कम जरूरी खर्च मानने का सवाल है,इसका जवाब  देना बहुत सरल भी नहीं है। 1984 के आम चुनाव के बाद से पार्टयिों के विज्ञापन और नेताओं का छवि निर्माण सरकारों की प्राथमिकता सूची में साल दर साल ऊपर की ओर सरकता जा रहा है और कोई सरकार इसका अपवाद नहीं है। यह प्रवृत्ति स्थानीय नहीं बल्कि वैिक स्तर पर देखी जा सकती है. इस मामले में सरकारों के अपने तर्क हैं। उनके मुताबिक जनता के लिए बनाई जाने वाली योजनाओं का व्यापक प्रचार प्रसार इसलिए जरूरी है ताकि प्रत्येक संभावित लाभार्थी तक इसकी जानकारी पहुंच सकें और वे इसका लाभ उठा सकें। 

प्रो. हर्ष सिन्हा


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