सड़क हादसे : क्यों कम हैं ट्रॉमा सेंटर
टाटा समूह के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की एक सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु से देश भर में सड़क सुरक्षा को लेकर कई सवाल उठने लगे हैं।
सड़क हादसे : क्यों कम हैं ट्रॉमा सेंटर |
सड़क दुर्घटना में चोटिल व्यक्ति को यदि समय पर प्राथमिक उपचार मिल जाए तो अधिकतर मामलों में घायल व्यक्ति की जान बचाई जा सकती है। साइरस मिस्त्री की मृत्यु के बाद एक ओर जहां सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गड़करी ने एक आदेश जारी किया है जिसके तहत अब से कार में पीछे बैठने वाले अगर सीट बेल्ट नहीं लगाएंगे तो उनका भी चालान होगा। वहीं सड़क सुरक्षा को लेकर अन्य कई सवाल भी उठने लग गए हैं। इनमें से अहम है देश में ट्रॉमा सेंटर्स की भारी कमी का होना।
ट्रॉमा सेंटर ऐसा अस्पताल होता है, जो ऊंचाई से गिरने, सड़क दुर्घटना, हिंसा आदि जैसे हादसों में घायल रोगियों की प्राथमिक चिकित्सा और देखभाल के लिए विशेष स्टाफ से लैस रहता है। आम तौर पर ट्रॉमा सेंटर में केवल गंभीर रूप से चोटिल व्यक्तियों का ही इलाज चलता है। प्राथमिक उपचार के बाद यदि किसी मरीज को किसी अन्य विशेषज्ञ से इलाज की जरूरत होती है, तो उसे आम अस्पताल में भेज दिया जाता है यानी ट्रॉमा सेंटर में रोजमर्रा के मरीज नहीं देखे जाते। असल में दर्दनाक चोट अपने आप में एक रोग प्रक्रिया है, जिसके लिए विशेष और अनुभवी उपचार और विशेष संसाधनों की आवश्यकता होती है। यदि ऐसे उपचारों को आम अस्पतालों में ही किया जाए तो आम मरीजों की भीड़ के चलते ट्रॉमा सेंटर की विशेष प्रक्रिया में असर पड़ सकता है। दुनिया का पहला ट्रॉमा सेंटर 1941 में बर्मिघम (इंग्लैंड) में खोला गया था।
इस अस्पताल को आम रोगियों की बजाय गंभीर रूप से घायलों के इलाज के लिए विशेष रूप से स्थापित किया गया था। ट्रॉमा सेंटर के उच्चतम स्तर पर विशेषज्ञ चिकित्सा और र्नसंिग देखभाल तक पहुंच है, जिसमें आपातकालीन चिकित्सा, आघात सर्जरी, महत्त्वपूर्ण देखभाल, न्यूरो सर्जरी, आर्थोपेडिक सर्जरी, एनेस्थिसियोलॉजी और रेडियोलॉजी के साथ-साथ अत्यधिक विशिष्ट और परिष्कृत सर्जिकल और नैदानिक उपकरण की विस्तृत विविधता शामिल है। आज हमारे देश में यदि कोई बड़ा हादसा हो तो उससे निपटने के लिए देश में कितने ट्रॉमा सेंटर हैं? मौजूदा अस्पतालों को सही ढंग से चलाने में सरकारें कितनी कामयाब हैं, इसका अंदाजा निजी अस्पतालों की लोकप्रियता से लगाया जा सकता है।
आम तौर पर यदि कोई व्यक्ति किसी सरकारी अस्पताल में जाता है, तो या तो वहां पर डाक्टरों की कमी होती है, या फिर वहां लगे उपकरण ठीक से नहीं चलते। मजबूरन जांच करवाने के लिए मरीजों को निजी क्लिनिक या अस्पतालों का रुख करना पड़ता है, जो उनकी जेब पर भारी पड़ता है। यदि मरीजों को सरकारी अस्पतालों में सभी सुविधाएं उपलब्ध हो जाएं तो भला वे निजी अस्पतालों में क्यों जाएं? हमारी सरकारें और अफसर बात-बात में यूरोप और अमेरिका के उदाहरण देते हैं जबकि वहां सबको सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं, और हमारी सरकारें अपने सरकारी अस्पतालों को बैंड करती जा रही हैं जबकि हमारे देश में गरीबों की संख्या कहीं ज्यादा है, और वो निजी अस्पताल का खर्च वहन नहीं कर सकते।
राजनेताओं द्वारा अक्सर मतदाताओं को लुभाने के लिए ऐसे वादे कर दिए जाते हैं, जो पूरे नहीं होते। चुनावी वादों में स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं का भी ऐलान किया जाता है। इन योजनाओं में करोड़ों की लागत से बनने वाले बड़े-बड़े अस्पताल और ट्रॉमा सेंटर भी शामिल होते हैं, लेकिन जरूरत इस बात की है कि करोड़ों रुपये के नये-नये अस्पतालों को बनाने की बजाय मौजूदा अस्पतालों को दुरु स्त किया जाए, उनकी दशा सुधारी जाए। उनमें मेडिकल उपकरण, दवाओं और जेनरेटर जैसी सुविधाएं दी जाएं क्योंकि अक्सर छोटे शहरों में बिजली की आपूर्ति नियमित नहीं होती। राजमागरे पर निश्चित दूरी पर ट्रॉमा सेंटर या अस्पतालों की सुविधा भी बनाई जाएं और इनका व्यापक प्रचार भी किया जाए। जैसे हमें राजमागरे और एक्सप्रेसवे पर जगह-जगह पेट्रोल पंप और विश्राम स्थल की जानकारी के बोर्ड दिखाई देते हैं, वैसे ही इन अस्पतालों/ट्रॉमा सेंटर की जानकारी भी उपलब्ध होनी चाहिए।
दिल्ली के प्रतिष्ठित ‘एम्स’ अस्पताल के अधीन जयप्रकाश नारायण एपेक्स ट्रॉमा सेंटर को देश का सर्वश्रेष्ठ ट्रॉमा सेंटर माना जाता है। कई सालों से इस ट्रॉमा सेंटर में कई जटिल उपचार सफलतापूर्वक किए गए हैं। इनमें से एक चर्चित मामला ऐसा था जो शायद आपको भी याद होगा। 19 अप्रैल, 2010 को दिल्ली के ग्रेटर कैलाश के पास गाड़ी चला रहे कुवात्रा अदामा नाम के एक विदेशी नागरिक की गाड़ी सरियों से लदे ट्रक में जा भिड़ी। दुर्घटना में ट्रक से लटकते हुए सरिए अदामा की छाती के आर-पार हो गए।
दुर्घटना में सरिए इस कदर शरीर के आर-पार हुए कि अदामा और उनके पीछे बैठे मित्र, दोनों को अपनी चपेट में ले लिया। इन दोनों घायलों को एम्स के ट्रॉमा सेंटर लाया गया। एम्स ट्रॉमा सेंटर के वरिष्ठ ट्रॉमा सर्जन डॉ अमित गुप्ता की टीम ने इस चुनौतीपूर्ण सर्जरी को सफलतापूर्वक किया। इस घटना को याद करते हुए डॉ गुप्ता बताते हैं कि यह एक ऐसा मामला था जहां दुर्घटना की शिकार गाड़ी को डॉक्टरों की निगरानी में अस्पताल के अंदर ही काटा गया। चूंकि सरिए इस तरह से आर-पार हुए थे कि मरीज को लेटाना भी संभव नहीं था, लेकिन एम्स ट्रॉमा सेंटर के अनुभवी डॉक्टरों की टीम ने इसे सफलतापूर्वक कर दिखाया और अदामा और उनके मित्र को एक नया जीवन दिया। सवाल यह है कि देश में एम्स ट्रॉमा सेंटर जैसे कितने अस्पताल हैं?
शायद हम उन्हें उंगलियों पर ही गिन लें। इसलिए इनकी संख्या बढ़ाने की जरूरत है। ऐसा इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि देश में उच्च गुणवत्ता वाले राष्ट्रीय राजमागरे की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसके साथ ही बढ़ रही है नवीनतम मॉडल की कारों की संख्या। इन चमचमाती गाड़ियों और चिकनी साफ सड़कों पर तेज रफ्तार से गाड़ी दौड़ने का लोभ युवा पीढ़ी रोक नहीं पाता है, और आय दिन खतरनाक दुर्घटनाओं का शिकार होती है। इसलिए ट्रॉमा सेंटरों की संख्या बढ़ाना और इसके साथ ही अति आधुनिक ट्रॉमा एंबुलेंसों की तैनाती इन राजमागरे पर कर दी जाए तो बहुत सी कीमती जान बच सकती हैं।
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