ताइवान प्रकरण : द. एशिया में बढ़ेगा भारत का प्रभुत्व

Last Updated 30 Aug 2022 12:32:51 PM IST

अमेरिकी हाउस की स्पीकर नैंसी पेलोसी जब पिछले दिनों ताइवान पहुंचीं तो दुनिया भर की निगाहें यहां टिक गई।


ताइवान प्रकरण : द. एशिया में बढ़ेगा भारत का प्रभुत्व

 पिछले ढाई दशकों में यह पहला मौका था जब अमेरिका का कोई इतना बड़ा नेता ताइवान पहुंचा था। हालांकि अमेरिका ने जब स्पीकर नैंसी की यात्रा का ऐलान किया तो चीन आगबबूला हो गया था और इस यात्रा को बेहद खतरनाक करार दिया था और परिणाम भुगतने तक की धमकी दे डाली थी। एक मौका ऐसा भी आया जब लगा कि पेलोसी ताइवान नहीं जाएंगी, लेकिन चेतावनी और धमकियों के बावजूद वो ताइवान पहुंचीं। चीन ने अपने फाइटर जेट रवाना कर दिए। ऐसा लगा कि रूस और यूक्रेन के युद्ध के बीच एक नया मोर्चा खुल गया है। अमेरिका और चीन सीधे आमने-सामने आ सकते हैं। बहरहाल, दोनों देशों के बीच तनाव अभी भी बरकरार है।

एक तरफ अमेरिका खुद को दुनिया की महाशक्ति तो कहता ही है, दूसरी तरफ चीन खुद इस स्थान को हासिल करने के लिए कोई मौका नहीं छोड़ता है। खासकर दक्षिण एशिया में तो चीन खुद को दादा साबित करने के तमाम प्रयास करता दिखाई देता है। भारत के अलावा दक्षिण एशिया के तमाम ऐसे देश, जो भौगोलिक, जनसंख्या और आर्थिक दृष्टि से बहुत छोटे हैं, चीन इनको सामरिक और कूटनीतिक तौर पर साथ मिलाकर भारत को घेरने के प्रयास में लगा रहता है। चीन और ताइवान के विवाद की पृष्ठभूमि को थोड़ा समझ लेते है। दोनों देशों के बीच पुराने संबंध रहे हैं, लेकिन द्वितीय वि युद्ध के बाद ताइवान ने अपना रास्ता बिल्कुल अलग कर लिया है।

ताइवान मूलत: एक आईलैंड है जो चीन के दक्षिण पूर्वी तट से करीब 100 मील की दूरी पर है। ताइवान खुद को स्वतंत्र देश मानता है, यहां एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार है, अपना संविधान है और अपने नियम-कायदे हैं, जबकि चीन लगातार कहता रहा है कि ताइवान उसका एक प्रांत है। चीन की शी जिनिपंग सरकार खासकर बेहद आक्रामक तरीके से ताइवान के एकीकरण की दिशा में पिछले कुछ सालों से प्रयास कर रही है और इस कवायद के बीच दोनों देशों का तनाव लगातार बढ़ता गया है। चीन ‘वन चाइना पॉलिसी’ फॉलो करता है और दावा करता है कि ताइवान भी इसी पॉलिसी का हिस्सा है।

यही नहीं, वन चाइना पॉलिसी में वह हांगकांग और मकाऊ को भी गिनता रहा है। अब यहां अमेरिका की भूमिका को समझ लेते हैं। ताइवान को लेकर अमेरिका की भूमिका बेहद संदिग्ध रही है। एक तरफ वह आधिकारिक तौर पर चीन की ‘वन चाइना पॉलिसी’ को भी मानता है, तो दूसरी तरफ खुद ‘ताइवान रिलेशंस एक्ट 1979’ के तहत ताइवान को भी संरक्षण देता रहा है और कहता रहा है कि जब भी ताइवान को खुद को डिफेंड करने की जरूरत पड़ेगी, हर तरीके की और हरसंभव मदद देगा। ताइवान, अमेरिका के लिए आर्थिक और रणनीतिक दोनों तरीके से महत्त्वपूर्ण है। एक तरफ अमेरिका, ताइवान में हथियारों का सबसे बड़ा सप्लायर है। दूसरी तरफ अमेरिका को लगता है कि अगर चीन ताइवान पर कब्जा कर लेगा तो पश्चिमी प्रशांत महासागर में उसका दबदबा बढ़ेगा। इससे ग्वाम और हवाई आइलैंड पर मौजूद अमेरिकी सैनिक ठिकानों पर एक तरीके से खतरा आ सकता है।

अमेरिका की ही तरह भारत भी 50 के दशक से ही ‘वन चाइना पॉलिसी’ को मानता आ रहा है, लेकिन बीते एक दशक से इसका जिक्र करना छोड़ दिया है। इसकी दो वजहें है। पहला चीन जिस तरीके से पिछले कुछ वर्षो में दक्षिण एशिया में अपनी बादशाहत कायम करने और जबरन आधिपत्य जमाने का प्रयास करता रहा है, उससे भारत ने उसके मंसूबे भांप लिये हैं। दूसरा उदाहरण हाल ही का है। चीन ने एक तरीके से भारत को चिढ़ाने के लिए ‘चाइना पाक इकोनामिक कॉरिडोर’ में पीओके को शामिल किया। यह सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता में दखल देने और चुनौती देने जैसा था। चीन की इन्हीं चाल और चुनौतियों को नाकाम करने के लिए भारत पिछले कुछ सालों से एक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत कूटनीतिक मोर्चे पर बेहद संजीदगी से काम कर रहा है। इसमें ताइवान भी शामिल है। एक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत ही भारत ने ताइवान के साथ व्यापार और निवेश के अलावा विज्ञान-प्रौद्योगिकी और इन्वायरमेंट जैसे क्षेत्रों में काफी काम किया है।

दोनों देशों के बीच भले ही कोई औपचारिक राजनियक संबंध नहीं है, लेकिन 1995 के बाद से नई दिल्ली और ताइपे में प्रतिनिधि कार्यालय की स्थापना की गई है। भारत हमेशा से दो देशों की लड़ाई या तनाव में सीधे दखल देने से बचता रहा है। हालिया रूस और यूक्रेन का युद्ध इसका सबसे ताजा उदाहरण है। पेलोसी के दौरे के बीच जब  तनाव की स्थिति बनी तो भारत ने पुन: इस पर कोई बयान नहीं दिया, लेकिन रूस और यूक्रेन से इतर चीन-ताइवान का मसला भारत के अलग है। यदि ताइवान के मसले पर अमेरिका और चीन आमने सामने आ जाते हैं तो यह लड़ाई बिल्कुल पड़ोस की होगी। इंडो पैसिफिक रीजन में भारत अमेरिका की चीन को काउंटर करने की नीतियों का समर्थन करता है। ऐसे में अगर टकराव हुआ तो इससे इंडो पैसिफिक रीजन में खतरा बढ़ेगा, जिससे सीधे तौर पर भारत भी प्रभावित होगा। हालांकि इससे दक्षिण एशिया में भारत के लिए नये मौके भी बन सकते हैं।

किरण लाम्बा


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