कांग्रेस : अस्तित्व का संकट!

Last Updated 30 Aug 2022 12:36:45 PM IST

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से एक गुलाम नबी आजाद का इस्तीफा किसी एक नेता का पार्टी से अलग होना भर नहीं है।


कांग्रेस : अस्तित्व का संकट!

वास्तव में इस घटना ने फिर यह साबित किया है कि कांग्रेस के अंदर इसके पुनरुद्धार की उम्मीद खत्म हो गई है। आजाद ने कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखे अपने 5 पृष्ठों के पत्र में कहा भी है कि कांग्रेस में चीजें इतनी बिगड़ गई हैं कि उनमें अब सुधार नहीं हो सकता।  

कोई यह कह सकता है कि आजाद को पार्टी छोड़ना था तो उन्हें कई तरह के तर्क देने ही थे। निष्पक्षता से विचार करने वाले स्वीकार करेंगे कि उनकी यह पंक्ति वर्तमान कांग्रेस पर शत-प्रतिशत सही बैठती है। आजाद के इस्तीफे के पहले के दो दिनों में दो अन्य नेताओं ने प्रकारांतर से पार्टी के भविष्य को लेकर निराशा ही प्रकट की है। आजाद से एक दिन पहले कांग्रेस के युवा प्रवक्ता जयवीर शेरगिल ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया था।

उनसे पहले आनंद शर्मा ने हिमाचल प्रदेश की संचालन समिति छोड़ दी थी। आप देखेंगे कि कांग्रेस छोड़ने वालों वरिष्ठ एवं ख्यातिप्राप्त नेताओं की इतनी लंबी सूची हो गई है कि उनका नामोल्लेख करना संभव ही नहीं। 2022 में  ही अश्विनी कुमार, हार्दिक पटेल, सुनील जाखड़ जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इनमें हार्दिक पटेल और सुनील जाखड़ भाजपा का दामन थाम चुके हैं। अगर अलग-अलग राज्यों में नजर दौड़ाएं तो स्थानीय स्तर के बड़े नेताओं के पार्टी छोड़ने और दूसरी पार्टी में शामिल होने की प्रतिस्पर्धा दिखाई देगी।

इन सब पर यह आरोप लगाना आसान है कि ये सारे लोग कांग्रेस और नेतृत्व के प्रति निष्ठा रखते ही नहीं। कांग्रेस छोड़ने वालों में ऐसे लोग शामिल हैं, जिनकी पूर्व की दो-दो पीढ़ियां पार्टी में रही है। स्वयं गुलाम नबी आजाद जैसे ने पांच दशक कांग्रेस में बताया है। जाहिर है कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व मंडल भले इसका उपहास उड़ाये, लेकिन भारतीय राजनीति के वर्तमान और भविष्य की दृष्टि से या गहरी चिंता का विषय है। इसलिए कि भारत की दृष्टि से भाजपा के समानांतर कोई एक अखिल भारतीय दल होना चाहिए। आजाद का बाहर जाना तो कांग्रेस में व्याप्त संकटों का एक लक्षण मात्र है।

वर्तमान स्थिति में ऐसे लोगों का कांग्रेस में रहना मुश्किल है जो पार्टी के भविष्य की दृष्टि से आंतरिक सुधार और पुनर्रचना के लिए चिंतित हैं, आवाज उठा रहे हैं और उसमें यह भी शामिल है कि नेतृत्व की बागडोर परिवार से बाहर किन्हीं और हाथों में जाए। ऐसे लोगों का पार्टी में रहना या बाहर रहना आज मायने नहीं रखता। वे होते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहे। आजाद ही नहीं पार्टी में परिवर्तन की मांग करने वालों के लिए बने समूह जी 23 के ज्यादातर नेताओं की हालत पार्टी में रहते हुए भी न रहने जैसे ही हो गई थी। आप देखेंगे कि आजाद के प्रकरण पर इस समय पार्टी के अंदर सक्रिय नेताओं तथा बाहर जा चुके या अंदर रहते हुए भी बाहर होने की सदृश स्थिति में रहने वाले नेताओं के बयानों में जमीन आसमान का अंतर है। वैसे आजाद के पत्र में उठाए गए मुद्दे में ज्यादा मौलिकता नहीं है। बावजूद व्यवहार के स्तर पर कई बातें ऐसी हैं, जिन पर चर्चा होनी चाहिए। उन्होंने कांग्रेस के 14 साल के लिए राहुल गांधी को मुख्य दोषी बताया है।

उन्होंने लिखा है कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि बीते आठ वर्षो में नेतृत्व ने एक ऐसे व्यक्ति को पार्टी पर थोपने का प्रयास किया जो गंभीर नहीं था। उनके अनुसार 2019 लोक सभा चुनाव में पराजय के बाद राहुल गांधी ने झुंझलाहट में अध्यक्ष पद से इस्तीफा अवश्य दिया, लेकिन उसके पहले सारे वरिष्ठ नेताओं को वे अपमानित कर चुके थे। वास्तव में राहुल गांधी को पार्टी के नायक की जगह खलनायक मानने वाले आजाद अकेले नहीं हैं। ज्यादातर वरिष्ठ नेताओं का यही मानना है। हालांकि पद पर रहने वाले भी यही मानते होंगे, लेकिन कृपाप्राप्त होने के कारण वे मुखर नहीं हो सकते या खुलकर नहीं बोल सकते।

कपिल सिब्बल ने ही सवाल उठाया था कि अगर पार्टी का कोई अध्यक्ष है ही नहीं तो फैसले कौन कर रहा है? उन्होंने कहा कि कोई तो कर रहा है। जाहिर है, उनका इशारा राहुल गांधी की ओर था। हार्दिक पटेल ने कांग्रेस छोड़ते समय राहुल गांधी पर ही आरोप लगाया था कि उनसे बात करना मुश्किल है और उन्हें राजनीति की समझ नहीं है। यह सच है कि राहुल गांधी ने यूपीए सरकार के समय से ही आवाज उठानी शुरू कर दी थी कि पार्टी में नई पीढ़ी को प्रमुखता मिलनी चाहिए। नई पीढ़ी की प्रमुखता की अपनी सोच में उन्होंने पुराने अनुभवी नेताओं की बातों को अनसुना करना आरंभ किया। आप देखेंगे कि पिछले वर्ष पांच विधानसभाओं के चुनाव हुए, लेकिन जी 23 के नेताओं का नाम स्टार प्रचार को तक में शामिल नहीं था। इस वर्ष भी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के चुनाव के दौरान इनमें से ज्यादातर नेताओं के नाम शामिल नहीं थे।

तो इसका कारण क्या हो सकता है? क्या इसे किसी नेता का सम्मान कहेंगे? कांग्रेस केवल दो लोक सभा चुनाव ही नहीं पिछले 9 वर्षो में ज्यादातर विधानसभा चुनाव हारी है। आजाद ने ही बताया है कि 2014 से 2022 के बीच हुए 49 विधानसभा चुनावों में से हम 39 चुनाव हार गए। पार्टी ने केवल 4 राज्यों के चुनाव जीते और 6 मौकों पर उसे गठबंधन में शामिल होना पड़ा। अभी कांग्रेस केवल 2 राज्यों में शासन कर रही है और 2 राज्यों में गठबंधन में उसकी भागीदारी मामूली है। इसमें दो राय नहीं कि राहुल गांधी ने अपने कार्यों से स्वयं साबित किया है कि वे अयोग्य, अक्षम एवं गैर जिम्मेदार हैं। सोनिया गांधी ने व्यावहारिक रूप में 2013 में ही पार्टी उनके हाथों सौंपने की कुंडली 2014 चुनाव के लिए जितनी भी समितियां सबका नेतृत्व उन्हीं के हाथ में था। तो क्या कांग्रेस की इस दशा के लिए केवल राहुल गांधी को दोषी मान लिया जाए?

थोड़े शब्दों में कहें तो पार्टी का संकट इतना गहरा है कि उसके भरने की कोई गुंजाइश नहीं। ऐसा तभी हो सकता है जब पार्टी परिवार से बाहर आकर ऐसा सामूहिक नेतृत्व विकसित करें, जिसके अंदर कांग्रेस की पुनर्जीवित करने का ईमानदार संकल्प हो तथा वह भारत के अतीत वर्तमान और भविष्य के साथ वर्तमान राजनीति एवं आम लोगों के मनोविज्ञान की समझता हो। क्योंकि अभी दूर-दूर तक इसकी संभावना नहीं दिखती इसलिए या मानने में कोई समस्या नहीं कि सोनिया गांधी परिवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस इतिहास का अध्याय बनने की ओर अग्रसर हो चुकी है।

अवधेश कुमार


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