भाषा : औपचारिकता और कृत्रिमता में स्वाभाविकता न खो दे हिंदी
पिछले कुछ दिनों से अपने आसपास जिस हिंदी को देख रहा हूं, वह कुछ-कुछ बदली सी है। अलग-अलग कामों से बैंक, नगरपालिका, अस्पताल और सरकारी प्रतिष्ठानों में जाना हुआ।
भाषा : औपचारिकता और कृत्रिमता में स्वाभाविकता न खो दे हिंदी |
हर प्रतिष्ठान में कोविड-19 की जागरूकता से संबंधित सूचनाओं के अलावा एक वार्षिक आयोजन का बैनर भी बंधा था। वह वार्षिक आयोजन था-हिंदी पखवाड़ा यानी कि हिंदी में काम करने, हिंदी में बोलने और लालफीतों से बंधी फाइलों में हिंदी लिखने का पर्व। जब इन संस्थानों के कर्मिंयों से अनौपचारिक बातचीत की तो इनमें से कई इस अवधि में आयोजित होने वाली प्रतियोगिताओं को लेकर उत्साहित थे तो कुछ इसके आयोजन की चुनौतियों से जूझ रहे थे। सभी हिंदी के इस पर्व के पूरे होने का वैसे ही इंतजार कर रहे थे जैसे कोई टेंट वाला बारात के जाने का इंतजार करता हो। सोशल मीडिया पर शिक्षा और हिंदी से जुड़े आयोजनों के भी अनेक विज्ञापन मौजू़द थे। इन सारी गतिविधियों को देख ऐसा लगा कि मानो अब हिंदी का उद्धार होने ही वाला है। इन औपचारिकताओं के बाद हिंदी सरकारी प्रतिष्ठानों और शिक्षा संस्थानों में स्थापित हो जाएगी। इस ‘आदर्श एवं परिकल्पनात्मक’ स्थिति के बीच बार-बार जिस हिंदी से मेरा सामना हो रहा था उसमें स्वाभाविकता के स्थान पर कृत्रिमता थी। बार-बार ऐसा लग रहा था कि कानों में जो शब्द पड़ रहे हैं वे नये-नये से हैं। या कहूं तो वे ‘सरकारी’ हिंदी के प्रतिनिधि शब्द थे जो रस्म निभाने के लिए एक साथ ‘कट-पेस्ट’ किए गए थे। हिंदी के इस परिवेश को देखकर मन में यही विचार आ रहा है कि क्या किसी भाषा को औपचारिकताओं में बांध कर बचाया जा सकता है? वास्तव में पिछले पचहत्तर वर्षो से हिंदी इसी ‘औपचारिकता के संकट’ से ग्रस्त है। वह न तो ‘सरकार’ की भाषा बन पाई है और न ही शिक्षा की। बाजार उसे जिस रूप में जितना बेच पा रहा है, उतना उसका व्यापार कर रहा है। कभी वह ‘नई वाली हिंदी’ का शोर मचाता है तो कभी हिंदी को सिनेमा के रास्ते प्रतिष्ठित करना चाहता है। यह एक अलग किस्म की कृत्रिमता है जिसका लक्ष्य भाषा को बेचना है। इन सब यत्नों के बीच क्या हमने कभी सोचा है कि कबीर और तुलसी को कौन सा सरकारी अनुदान मिला था? निराला और दिनकर को किस संस्थान में हिंदी ‘पढ़ाई’ गई थी? महात्मा गांधी और अटल जी जैसे नेताओं ने राजनीति में हिंदी को कैसे स्थापित किया? किस ध्येय से रामेर दयाल दूबे ने कविता लिखी कि ‘भारत जननी एक हृदय हो..’?
हिंदी हो या कोई अन्य भारतीय भाषा उसके बारे में इतना तो स्पष्ट है कि इनका भला सरकारी कोशिशों और शिक्षा संस्थानों के प्रयास से नहीं हो सकता है। कई दशकों से ‘हिंदी पखवाड़ा’ मनाने के बाद इन संस्थानों में हिंदी वहीं की वहीं है। बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि हिंदी को अपने अस्तित्व के लिए सर्वाधिक संघर्ष सत्ता के केंद्रीय प्रतिष्ठानों और शिक्षा के क्षेत्र में करना पड़ रहा है। यह स्थिति तब है जबकि लोक भाषा के रूप में हिंदी को बोलने वालों की संख्या पर्याप्त है। पूरे देश में यह संपर्क भाषा के रूप में भी देखी जा सकती है। तो हिंदी कहां नहीं है? हिंदी उन बौद्धिक उद्यमों में नहीं है जो सामाजिक गतिशीलता द्वारा सामाजिक प्रतिष्ठा का रास्ता खोलते हैं। मुझ जैसे युवा जो ग्रामीण और कस्बाई जीवन को छोड़कर महानगरीय होते जा रहे हैं, वे अनुभव करें तो पाएंगे कि महानगरीय चलन वाली हिंग्लिश को तो हम तेजी से अपना रहे हैं, लेकिन गांव और कस्बों में बोले जाने वाले हिंदी के कितने शब्द अपरिचित होते जा रहे हैं। यह अपरिचय तब भी दिखता है जब पढ़ाई तो हिंदी में होती है, किताबें भी हिंदी में तैयार की जाती हैं, लेकिन इनसे बाहर निकलते ही कक्षा और किताब वाली औपचारिक हिंदी हांफने लगती है।
वहां तो वही मुहावरे, लोकोक्तियां और पहेलियां होती है, जो भाषा की मौखिक परंपरा में जीवित हैं। सरकारी-हिंदी इसी लोक-हिंदी से दूर है। इसे आप रेलवे स्टेशन से लेकर बैंक, अस्पताल और न्यायालय तक हिंदी में प्रचारित-प्रसारित सूचनाओं में देख सकते हैं। तुर्रा यह कि ये सूचनाएं आम आदमियों के लिए लिखी जाती है। इन सूचनाओं में अर्थ कम सरकार का ‘रौब’ अधिक दिखता है। जबकि हिंदी ‘रौब’ की भाषा नहीं है। किसी भी लोक भाषा की तरह वह आमजन को भावनाओं से जोड़ती है। आज भी सिविल सेवाओं की तैयारी करने वालों को देखिए वे अपना दिन किसी न किसी अंग्रेजी अखबार से शुरू करते हैं। हमें यह प्रचारित करने की कोई जरूरत नहीं है कि हिंदी कोई लड़ाई लड़ रही है और इस लड़ाई को हम कुछ औपचारिकताओं से जीत सकते हैं। हिंदी हो या कोई अन्य भाषा वह स्वाभाविक राग संबंध को पोषित करती है।
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