मीडिया : ऑप्टिक्स की पॉलिटिक्स और मीडिया

Last Updated 08 Aug 2021 01:38:00 AM IST

ऑप्टिक्स की पॉलिटिक्स’ का मतलब ‘दिखाउ राजनीति’! दिखाने की राजनीति! दिखावटी राजनीति! दृश्य बनाने की राजनीति! दृश्य बनाकर की जाने वाली राजनीति! नजर में रहने की राजनीति! कहने की जरूरत नहीं कि यह एक ‘सेक्सिस्ट’ राजनीति है!


मीडिया : ऑप्टिक्स की पॉलिटिक्स और मीडिया

इस प्रकार की राजनीति एक प्रकार की ‘राजनीति की अदाकारी’ होती है। अपनी ‘व्यथा-कथा’ को ‘विजुअल’ बनाना है, दृश्यमान बनाना है ताकि टीवी दिखा सके, कैमरे दिखा सकें, सोशल मीडिया में दिखाया जा सके, जिसे ट्वीट किया जा सके, फार्वड किया जा सके, यूट्यूब पर डाला जा सके और उसका इतिहास बनाया जा सके! पहले इस प्रकार की राजनीति कभी-कभार दिखती थी अब हर रोज दिखती है। जब कुछ बड़े विदेशी मीडिया ने पेगासस जैसे जासूसी साफ्टवेयर से सरकार द्वारा विपक्ष और पत्रकारों की मोबाइल हैक करने का आरोप लगाया तब से विपक्ष उत्साहित होकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है और तभी से इस पकार की ‘ऑप्टिक्स की पॉलिटिक्स’ पापूलर हुई है!
जरा देखिए: एक दिन विपक्षी नेताओं ने संसद के परिसर में लगी गांधी की मूर्ति के आगे ‘पेगासस की जांच कराओ’ लिखे पोस्टर हाथ में लेकर ‘फोटो ऑप’  किया! कैमरों ने नेताओं के बयानों से अधिक उनके पोस्टरों को दिखाया! इसी तरह इन दिनों, कई टीवी चैनलों की बहसों में कांग्रेस की एक प्रवक्ता जब बोलती नहीं हैं तब वे अपने हाथ में एक ‘जांच कराओ’ वाला पोस्टर लेकर बैठ जाती है और टीवी कैमरों का लाइव टेलीकास्ट का लाभ उठाती हैं! भाजपा के प्रवक्ता सिर्फ बोलते रहते हैं, जबकि विपक्षी प्रवक्ता अराम से पोस्टर युद्ध भी चलाती हैं! इसी तरह संसद में एक दिन कई सांसदों ने अपने हाथ में इसी तरह के पोस्टर लिये और कैमरों को दिखाए और इस तरह लाइव रिपोर्ट हुए! उनमें यह संदेश प्रिंटेड था: ‘सरकार बताए पेगासस खरीदा कि नहीं? हां या ना?’

इस प्रकार की ‘आप्टिक्स की पॉलिटिक्स’ का चलन कुछ पहले किसानों ने शुरू किया था। वे बातचीत करने संसद में आते, लेकिन कुछ बोलने की जगह अपने हाथों में पोस्टर लेकर दिखाते रहते जिनके दोनों तरफ ‘ना’ लिखा था। वे पोस्टर का सिर्फ ‘ना’ वाला हिस्सा दिखाते रहे! यह एक प्रकार का एक ‘प्रोटेस्ट संवाद’ था जिसे किसान सरकार से करते थे। यह ‘असहयोग आंदोलन’ की  ‘संवाद असहयोग’ था, जिसमें किसान नहीं, उनके ‘पोस्टर’ बोलते थे! कहने की जरूरत नहीं कि पोस्टर का प्रभाव आपके बोलने से अधिक होता है। आपका बोला सुना न सुना! किसी ने शोर मचा दिया और आप सुन न पाए, लेकिन जो पोस्टर पर लिखा है उसे कैमरे दिखाएंगे और वही पोस्टर हमारी आखों में खुभ जाएगा! यह नये तरीके की ‘आप्टिक्स की लड़ाई’ है, जिसमें विपक्ष का पलड़ा भारी है। सरकार की समझ में नहीं आ रहा कि इसका जबाव कैसे दे? विपक्ष ‘पोस्टर वार’ करता है। सत्ता पक्ष जुबानी जमा खर्च करता है।
‘याद रखने-रखाने’ की राजनीति ही अब असली राजनीति है। अब जनता के पास कोई नहीं जाता! सभी ‘दिखाउ राजनीति’ करते हैं और विपक्ष आप्टिक्स की राजनीति इसलिए भी करता है क्योंकि उसे लगता है कि टीवी चैनल उनको पूरा  बोलने नहीं देते इसीलिए पोस्टर दिखा-दिखा कर चैनलों और सत्ता का चिढ़ाते  हैं! इसी तरह  एक दिन विपक्षी सांसदों का साइकिल चलाकर संसद आना जाना, राहुल का ट्रैक्टर चलाकर संसद तक आना भी ‘आप्टिक्स की राजनीति’ है! अब तक की राजनीति भीड़ों की, उनके प्रदर्शनों की राजनीति रही है, लेकिन  इस कोरोना काल में  आप भीड़ बनाएंगे तो निंदा के पात्रा बनेंगे इसलिए भी विपक्ष ‘दिखाउ राजनीति’ करने पर आमादा है।
अब न सरकारी नेता जनता के बीच जाते हैं न विपक्ष जाता है! जनता के बीच जाने से सब डरते हैं। यों भी यह युग आराम की राजनीति का है, लेकिन इस ‘ऑप्टिक्स की पॉलिटिक्स’ की भी सीमाएं हैं। यह पढ़े-लिखों की ‘ऐलीटिस्ट’ राजनीति है। यह मीडिया के जरिए तकलीफ को भी तमाशे में बदलती है! यह एक ‘मिडिल क्लासी भदल्रोक’ की यानी सज्जनों की राजनीति है! यह ‘चिढ़ाने’ की राजनीति है। इसे करते हुए किसी के हाथ मैले नहीं होते! फोटो खिंचाने का मजा अलग से मिलता है! यह मीडिया के लिए एक ‘मेड टू आर्डर’ किस्म की राजनीति है! यह राजनीति यह भी बताती है कि आज के राजनीतिक दलों, उनके नेताओं और आम जनता के बीच का जीवंत रिश्ता टूट चुका है! अब नेता नेता नहीं, एक ‘अदाकार’ हैं। एक एक्टर है! कहने की जरूरत नहीं कि यह एक नितांत नई ‘उत्तर आधुनिक राजनीति’ है!

सुधीश पचौरी


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