सरोकार : मेनोपॉज और दफ्तरों में भेदभाव-वहां भी, यहां भी
औरतों के साथ किस किस मोर्चे पर भेदभाव होता है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अभी यूके से खबरें मिली हैं कि वहां प्रौढ़ औरतों को मेनोपॉज के चलते लैंगिक भेदभाव झेलना पड़ता है।
सरोकार : मेनोपॉज और दफ्तरों में भेदभाव-वहां भी, यहां भी |
इसका एक सबूत यह है कि बहुत सी औरतें अपने नियोक्ताओं को ऐसे भेदभाव के लिए अदालतों में घसीट रही हैं। चूंकि मेनोपॉज के कारण बहुत सी औरतों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ रहा है।
यूके के मेनोपॉज एक्सपर्ट्स नाम की एक वेबसाइट ने एक रिसर्च की है, और इससे पता चलता है कि 2018 में इंप्लॉयमेंट ट्रिब्यूनल्स में मेनोपॉज से जुड़े पांच, 2019 में छह, 2020 में 16 और 2021 में अब तक 10 मामले सामने आ चुके हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, औरतों को महसूस हो रहा है कि उनको नौकरी देने वाले लोग मेनोपॉज की गंभीरता को नहीं समझते और न ही उन्हें किसी तरह का सहयोग देने को राजी हैं। कई कंपनियों में औरतें अपने निजी, आंतरिक मेनोपॉज सपोर्ट ग्रुप्स बना रही हैं। अगर उन्हें लगता है कि कंपनी का एचआर उनकी मदद नहीं कर रहा है तो इससे बड़ी समस्याएं खड़ी हो सकती हैं।
दरअसल, यूके में 50 से 64 साल के बीच की औरतें लगातार आर्थिक मोर्चे पर सक्रिय हो रही हैं। इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि महिलाओं के लिए सरकारी पेंशन की आयु बढ़ा दी गई है। जीवन संभाव्यता बढ़ रही है, और कोविड-19 ने घरेलू आमदनी को प्रभावित किया है। यूके में रोजगार प्राप्त 70 फीसद औरतें इसी आयु सीमा के भीतर आती हैं, और नियोक्ताओं और कंपनियों के हित में है कि इनकी नौकरियां हर हाल में बनी रहें। इसके अलावा, इनमें से बहुत सी महिलाएं ऐसी भी हैं जो अपने कॅरियर के चरम पर हैं। अध्ययन बताते हैं कि जिन कंपनियों के कर्मचारियों में विविधता होगी, उन्हें उतना मुनाफा होगा।
कुछ साल पहले तक महिलाओं पर मेनोपॉज के असर पर लोग चर्चा करने से बचते थे। हाल के अध्ययनों से पता चला है कि यूके को मेनोपॉज की वजह से एक साल में 1.4 करोड़ कार्य दिवसों का नुकसान हो सकता है। मेनोपॉज के लक्षणों की शिकार हर चार महिलाओं में से एक महिला अपनी नौकरी छोड़ देना चाहती है। कहना न होगा कि इससे नॉलेज, अनुभव और प्रतिभा का नुकसान हो सकता है।
भारत में कैसी स्थिति है? यहां श्रमशक्ति में महिलाओं की संख्या पहले ही कम है। फिर 50 साल से अधिक उम्र की औरतों के लिए काम करना वैसे भी काफी मुश्किल होता है। दो साल पहले आईसीआईसीआई लोम्बार्ड ने कामकाजी महिलाओं की मानसिक और शारीरिक सेहत पर एक अध्ययन किया था। इसमें कहा गया था कि मेनोपॉज के बाद 89 फीसद कामकाजी महिलाएं डिप्रेशन का शिकार होती हैं। इसके चलते 42 फीसद को तो महीने में एक दिन छुट्टी करनी ही पड़ती है। ऐसे में अगर नियोक्ता यह सब न समझे तो दिक्कत होती है।
इस समस्या से निकलने का क्या रास्ता है? एक्सपर्ट्स कहते हैं कि इस बारे में बात करें। चीजें आसान करें। काम करने के समय को फ्लेक्सिबल बनाएं। पर क्या यह इतना आसान है? भारत जैसे देश में तो बिल्कुल नहीं। जब श्रम कानूनों को इस तरह बदल दिया जाए कि काम के घंटों को खींचकर बारह घंटे कर दिया जाए तो फ्लेक्सिबल वर्किग आवर की बात सोचना भी गलत है। औरतों को बिना ब्रेक के काम करने पर मजबूर किया जाए तो मेनोपॉज के बारे में कौन सोच सकता है? इसके लिए पहले प्रौढ़ औरतों को नौकरियां देनी पड़ेंगी, और भारत में महिला श्रमशक्ति में प्रौढ़ माहिलाओं की दर सिर्फ 10 फीसद है।
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