मीडिया : अपनी सी पर आता मीडिया
अपना मीडिया अंतत: अपने यथार्थवादी दौर में वापस आ गया है। यह यथार्थवाद भी एक सीमित यथार्थवाद है, लेकिन जितना है उसने केंद्र तथा राज्य की उन तमाम सत्ताओं को रक्षात्मक बना दिया है।
मीडिया : अपनी सी पर आता मीडिया |
जिस मीडिया में बहुत से सीएम चमकते चेहरे लिए अपने-अपने राज्यों को चमकता दिखाते हुए नजर आते थे, सोचते थे कि ये मीडिया हमने खरीद लिया है वही मीडिया अब अपनी असली क्लासिकल भूमिका में लौट आया है, सारे सत्ताधीश हिलते दिखते हैं।
प्रिंट मीडिया हो चाहे टीवी-सब चौबीस बाई सात के हिसाब कोरोना से ही जूझते दिखते हैं। हर मीडिया रोज के संक्रमितों और मरने वालों के अांकड़ों से भरा होता है। खासकर टीवी जब से अपनी कमेंटरी और अपने कैमरे जनता के पक्ष में तीखे किए हैं और बेड व ऑक्सीजन के अभाव से ग्रस्त अस्पतालों के गेट के आगे तोड़ते मरीजों को और रोते- बिलखते परिजनों को दिखाता है, तो कलेजा मुंह को आने लगता है। बड़ी-बड़ी सत्ताओं ने आम जनता को एकदम अकेले छोड़ दिया है। कोई मदद करने वाला नहीं, लेकिन लूट को छूट देने वाले हैं। एक हाथ में अपने मरीज को पकड़े, दूसरे हाथ से ऑक्सीजन के सिलेंडर को ढोते जब तीमारदार अस्पताल के बाहर डाक्टर के आगे गिड़गिड़ाते दिखते हैं तो पहली बार हमें भी लगता है कि अपना भी कोई नहीं है, सब भगवान भरोसे हैं। आप जिंदा हैं, तो इसलिए कि आप बस किसी तरह जिंदा हैं। अगर कल कोरोना आपको चपेटता है तो आपको भी बचाने वाला कोई नहीं है। पहली बार मीडिया ने जनता की तकलीफ के साथ अपनी हमदर्दी और ऐंपेथी पैदा की है, और जिम्मेदारों से तीखे सवाल पूछता है।
यह ‘क्रिटिकल मीडिया’ है, जिसकी महामारी की मार ने और जनता की त्राहि-त्राहि ने कमर भी सीधी कर दी है और वह ऐसे सवाल भी पूछने लगा है कि ‘इस सबके लिए कौन जिम्मेदार है? जब विशेषज्ञों ने चेताया था कि दूसरी लहर आनी थी तो केंद्र और राज्य सरकारों ने तैयारी क्यों नहीं की?’ और कुछ एंकर- रिपोर्टर तो यह तक पूछने लगे हैं कि बेडों की कमी और ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ते निरीह लोगों की निरीह मौतों का जिम्मेदार कौन है? न वैक्सीन नीति है, न वैक्सीन है न प्लान हैं और आप कहते हैं कि हमने पहली लहर जीती थी, दूसरी भी जीतेंगे? सच पहली बार मीडिया यथार्थ के प्रति सच्चा हुआ है एक ताकतवर सत्ता की बोलती बंद हो गई है। यही मीडिया था जो कल तक सत्ता का भक्त था जो ‘देशभक्ति’ ‘राष्ट्रवाद’ तथा ‘पांच ट्रिलियन की इकोनॉमी’ के सपने दिन-रात बेचा करता था और असहमतों को बोलने नहीं देता था। राष्ट्रवाद के दंभी प्रवक्ता कठिन प्रश्न करने वाले एंकरों को ऐसे डांट दिया करते थे जैसे वे उनके नौकर हों और ‘पापी पेट के वास्ते’ वे भी सह जाया करते थे।
हम कोरोना की पहली लहर के कवरेज को याद करें: तब यही मीडिया ‘थाली और ताली’ पर गाल बजाता फिरता था। घरों को लौटते करोड़ों बेरोजगार मजदूरों की तकलीफ दिखाता था, लेकिन उनके लिए किसी को रगड़ता नहीं था। इसके बरक्स आज की रिपोर्टे देखिए और समूची दुरावस्था के लिए सत्ताओं को जिम्मेदार बताते उन एंकरों व रिपोर्टरों को देखिए जो रिस्क लेकर भी निडर होकर सच को दिखा रहे हैं। कल तक जो एंकर-रिपोर्टर धर्म प्राण थे, वे अब न कुंभ की भीड़ को बख्श रहे हैं, न हैदराबाद की ईद की भीड़ को बख्श रहे हैं, न चुनावों की रैलियों को बख्श रहे हैं, न यूपी के पंचायती चुनावों को बख्श रहे हैं, जिनमें सात सौ मास्टर कोरोना संक्रमण से मरे हैं, और अब संक्रमण गांव-गांव में मार रहा है, और न केरल के मुन्नार के ईसाइयों की रैली को बख्श रहे हैं, जिसके सौ से अधिक पादरी संक्रमित हो चुके हैं, और न किसानों के धरने को बख्श रहे हैं।
इन दिनों मीडिया साफ-साफ कहता है कि एक ओर सत्ताओं के निकम्मेपन और दृष्टिहीनता ने, दूसरी ओर इन भीड़ों ने ही दूसरी लहर को इतना आक्रामक बनाया है कि अब मध्यम वर्ग और पत्रकार तक चपेट में आने लगे हैं। अरसे बाद मीडिया को भी महसूस होने लगा है कि ‘सच’ वो हेाता है, जो सिर चढ़के बोलता है जो किसी के दबाए नहीं दबता और जब मीडिया उसे वाणी देता है, तो बड़ों-बड़ों का सिंहासन डोलने लगता है। यह जनता के दुख का दबाव है कि कथित ‘गोदी मीडिया’ तक अब सत्ता से कुछ कठोर किस्म के सवाल पूछने लगा है, और कोरोना के लिए राष्ट्रीय नीति की मांग करने लगा है। मीडिया की इसी ‘आलोचनात्मक यथार्थवादी’ भूमिका ने इन दिनों सभी आत्ममुग्ध अहंकारियों की नीदें उड़ा दी हैं! बहुत दिन बाद मीडिया अपनी-सी पर आया है!
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