वैश्विकी : पेटेंट में फंसी संजीवनी
महामारी के दौर में भी क्षुद्र स्वार्थ और मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति को अमीर देश छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।
वैश्विकी : पेटेंट में फंसी संजीवनी |
कोरोना विषाणु महामारी से जूझ रही दुनिया को सस्ते दाम पर और व्यापक स्तर पर वैक्सीन की जरूरत है, लेकिन वैक्सीन के उत्पादन में पश्चिमी देश और उनकी औषधि निर्माता कंपनियां उदार रवैया अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं। सामान्य दिनों में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के जिस बौद्धिक संपदा संरक्षण समझौते की दुहाई दी जाती है, वही तर्क लाखों लोगों की मौत होने और करोड़ों लोगों के बीमार होने के दौर में भी दोहराई जा रही है।
अमीर देशों की यह असंवेदनशीलता इस लिहाज से और भी चौंकाने वाली है कि ये सभी देश कोरोना महामारी की विभीषिका झेल चुके हैं जबकि भारत जैसे विकासशील और अल्प विकसित देश इस महामारी से जूझ रहे हैं। अमीर देश उदारता दिखाने के लिए तैयार नहीं हैं। भारत और दक्षिण अफ्रीका ने पिछले वर्ष अक्टूबर में बौद्धिक संपदा के नियमों में छूट देने का प्रस्ताव रखा था। डब्ल्यूटीओ में इस प्रस्ताव पर अमीर देशों ने ध्यान नहीं दिया। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और जर्मनी सहित सभी यूरोपीय देशों के साथ ही जापान जैसे देशों ने भी वैक्सीन की पेटेंट में छूट या ढिलाई देने से पूरी तरह इनकार कर दिया। यदि उस समय इन देशों ने थोड़ा मानवतावादी रवैया अपनाया होता तो इस समय तक दुनिया के अनेक देश पश्चिमी देशों में विकसित फाइजर, मॉडर्ना जैसी वैक्सीन का उत्पादन कर रहे होते। अकेले भारत की ही सीरम इंस्टीटय़ूट, भारत बॉयोटेक, डॉ. रेड्डी’ज लैब जैसी कंपनियां उतनी बड़ी मात्रा में वैक्सीन का उत्पादन कर रही होतीं जो घरेलू मांग को पूरा करने के साथ ही दुनिया के अन्य देशों को इनकी आपूर्ति कर रही होतीं। पिछले साल अक्टूबर में भारत ने डब्ल्यूटीओ में कहा था कि अमीर देश दोहरा रवैया अपना रहे हैं। एक ओर वे वैक्सीन की अंधाधुंध खरीद और जमाखोरी में लगे रहे हैं वहीं शेष दुनिया में वैक्सीन की मांग के प्रति उदासीन हैं।
भारत के औषधि उद्योग को यह श्रेय जाता है कि उसने बौद्धिक संपदा नियमों की गिरफ्त से ऊपर उठते हुए स्वदेश में ही वैक्सीन विकसित कर ली। भारत बॉयोटेक की कोवैक्सीन बाजार में उपलब्ध अन्य वैक्सीनों की तुलना में अधिक कारगर मानी जा रही है। इतना ही नहीं भारत ने अपनी इस उपलब्धि का लाभ छोटे देशों को भी पहुंचाया तथा उन्हें वैक्सीन की आपूर्ति की।
भारत और द. अफ्रीका ने पिछले वर्ष डब्ल्यूटीओ में बौद्धिक संपदा नियमों में छूट देने का जो प्रस्ताव रखा था, वह बहुत व्यापक था। इसमें वैक्सीन ही नहीं निदान और उपचार के उपकरणों, पद्धतियों, वेंटिलेटर, सुरक्षात्मक परिधान आदि सबको पेटेंट की गिरफ्त से मुक्त रखने का प्रावधान था। अमीर देशों के तीव्र विरोध के कारण भारत और द. अफ्रीका ने अब अपने प्रस्ताव को सीमित करते हुए इसे वैक्सीन पर ही केंद्रित रखा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पिछले दिनों ‘ट्रीप्स’ के पेटेंट नियमों में कुछ समय के लिए छूट देने के प्रति समर्थन देने का वक्तव्य दिया है। अमेरिका केवल वैक्सीन के मामले में ही छूट देने के लिए तैयार है। चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया बहुत जटिल है और इसमें अनेक देशों की कंपनियों के बौद्धिक संपदा अधिकार हैं। पेटेंट से छूट को व्यावहारिक स्तर पर लागू करना एक बड़ी चुनौती होगी।
फिलहाल 160 सदस्यीय डब्ल्यूटीओ में अमेरिका सहित करीब 120 देशों ने भारत के प्रस्ताव का समर्थन किया है। डब्ल्यूटीओ की कार्यप्रण ाली के अनुसार किसी भी फैसले के लिए सभी 160 सदस्यों की सहमति जरूरी है। कोई एक सदस्य भी पूरी कवायद को नाकाम बना सकता है। अगर सब कुछ अनुकूल रहा तो भी डब्ल्यूटीओ के विचार-विमर्श और अंतिम फैसले में एक या दो महीने लग सकते हैं। भारत के लिए यह महामारी एक बड़ा सबक और संदेश लेकर आई है। इस तरह के संकट का मुकाबला करने के लिए भारत को अपनी घरेलू क्षमताओं का विस्तार करना होगा। भारत भले ही दुनिया की मदद के लिए खुले दिल से तैयार है, लेकिन अन्य देश ऐसी उदारता दिखाने के लिए तत्पर नहीं रहते। आज के दौर में भी जब भारत कोरोना की दूसरी लहर का मुकाबला कर रहा है; पश्चिमी देशों का प्रचार तंत्र देश के चिकित्सा वैज्ञानिकों और स्वास्थ्यकर्मियों का मनोबल तोड़ने में लगा है।
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