सामयिक : टमाटर और किसान एक भाव
झारखंड के लातेहार जिले में बालूमाथ और बारियातू के इलाके दो किस्म के टमाटर की खेती के लिए मशहूर हैं-एक है मोटे छिलके वाला गुलशन जिसका इस्तेमाल सब्जी विशेष तौर पर सलाद के रूप में किया जाता है। वहीं सलेक्शन नामक किस्म के टमाटर के छिलके की परत नरम होती है।
सामयिक : टमाटर और किसान एक भाव |
इसका इस्तेमाल सब्जी, चटनी और टोमैटो कैचअप के लिए किया जाता है। कुछ साल पहले तक टमाटर की लाली यहां के किसानों के गालों पर भी लाली लाती थी, लेकिन इस साल हालत यह है कि फसल तो बंपर हुई लेकिन लागत तो दूर, तोड़ कर मंडी तक ले जाने की कीमत तक नहीं निकल रही। रामगढ़, हजारीबाग, लोहरदग्गा में जिन किसानों ने टमाटर उगाए या फिर पत्ता या फूल गोभी या फिर पालक, वे ट्रैक्टर से रौंद कर अपनी खड़ी फसल खुद ही चौपट कर रहे हैं।
गोभी के दाम हैं दो से चार रु पये तो टमाटर के हैं दो रु पये। इतने में तुड़ाई भी निकलती है, फिर मंडी तक कौन ले जाए। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के हरवाई गांव में सुर्ख लाल टमाटर की फसल पर रोटवेलर चला कर गेहूं बोए जा रहे हैं। यहां किसानों ने 15 हजार रु पये बीघा पर खेत किराये पर लिए, फिर टमाटर बोए। पिछले महीने तो 400 रुपये क्रेट (25 किलो) एक बार बिका। फिर दाम 60 से 100 रु पये क्रेट गिर गए। अब 30 रु पये क्रेट तुड़ाई, 15 रु पये मंडी के पल्लेदार को, फिर परिवहन। आखिर, किसान कितना घाटा सहे! मध्य प्रदेश के बड़वानी में टमाटर मवेशी खा रहे हैं। दिल्ली और उसके आसपास भले ही बाजार में टमाटर के दाम 40 रुपये किलो हों लेकिन टमाटर उगाने के लिए मशहूर देश के विभिन्न जिलों में टमाटर कूड़े में पड़ा है। छत्तीसगढ़ के टमाटर किसान तो जलवायु परिवर्तन की अजब मार झेल रहे हैं, और उन्हें फसल खेत में नष्ट करनी पड़ रही है।
दुर्ग जिले में पहले तो चक्रवाती तूफान के चलते कोई 15 दिन बदली हुई, फिर अचानक जाड़ा बढ़ गया। इससे टमाटर तेजी से पकने लगे। जब पके टमाटर की आवक ज्यादा हुई तो दाम गिर गए। यहां प्राय: इतनी ठंड पड़ती नहीं। अब टमाटर समय से पहले पक रहे हैं, न तोड़ो तो गिर जाते हैं। मजबूर किसान फसल नष्ट कर रहा है। करीबी राज्य तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के हालात भी अलग नहीं हैं। यहां मेडक के शिवमपेट में टमाटर की तैयार फसल को आग लगाने की सैकड़ों घटनाएं हो चुकी हैं। विदित हो टमाटर 15-27 डिग्री के बीच के तापमान में सबसे अच्छे से उगते हैं तथा इसके लिए माकूल औसत मासिक तापमान 21-23 होता है। 32 डिग्री से अधिक तापमान फल लगने और उसके विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। दक्षिणी राज्यों में जलवायु परिवर्तन से प्रभावित टमाटर की खेती में सफेद फंगस और पत्ती में छेद करने वाले कीट की दिक्कत ने पहले से ही कीटनाशक का खर्च बढ़ाया था। फसल अच्छी हो गई तो बाजार में दाम नहीं मिलने से किसान कर्ज में दब गया। हालांकि न तो यह पहली बार हो रहा है, और न ही टमाटर के साथ हो रहा है।
उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है-घर की नई छप्पर, बहन की शादी, माता-पिता की तीर्थ-यात्रा; न जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर ‘कैश क्रॉप’ कहलाने वाली फसल के साथ फेंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता-खेती के लिए बीज, खाद के लिए लिए गए कर्ज को कैसे उतारा जाए? पूरे देश की खेती-किसानी अनियोजित, शोषण की शिकार और किसान विरोधी है। तभी हर साल देश के कई हिस्सों में अफरात फसल को सड़क पर फेंकने और कुछ ही महीनों बाद उसी फसल के लिए त्राहि-त्राहि की घटनाएं होती रहती हैं। किसान मेहनत कर सकता है, अच्छी फसल दे सकता है, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को भी उसके परिश्रम के माकूल दाम, अधिक माल के सुरक्षित भंडारण के बारे में सोचना चाहिए। हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक में कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मशहूर हरी मिर्च को सड़क पर लावारिस फेंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताश करती है। दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े मवेशियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं।
आश्चर्य इस बात का होता है कि जब हताश किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चौपट कर रहा होता है, तो गाजियाबाद, नोएडा, या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किमी. दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी न निकले। दुर्भाग्य है कि कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे गौण दिखते हैं, और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता का प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्रॉप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल, तेल-बीजों (तिलहनों) और अन्य खाद्य पदाथरे के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं।
किसानों के सपनों की फसल को बचाने के दो तरीके हैं। एक, जिला स्तर पर अधिक से अधिक कोल्ड स्टोरेज हों और दूसरा, स्थानीय उत्पाद के अनुसार खाद्य प्रसंस्करण खोले जाएं। देश में इस समय अंदाजन आठ हजार कोल्ड स्टोरेज हैं, जिनमें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में 1817, गुजरात में 827, पंजाब में 430 हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश पर आलू और प्याज का कब्जा होता है। जरूरी है कि खेतों में कौन सी फसल और कितनी उगाई जाए, उसकी स्थानीय मांग कितनी है, और कितने का परिवहन संभव है -इस बाबत नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें तो पैदा फसल के एक-एक कतरे के श्रम का सही मूल्यांकन हो सकेगा। एक बात और, कोल्ड स्टोरेज या वेअरहाउस पर किसान का नियंत्रण हो, न कि व्यापारी का कब्जा।
(लेख में विचार निजी हैं)
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