मीडिया : एक पत्रकार की मौत और सोशल मीडिया

Last Updated 01 May 2021 11:41:53 PM IST

रोज का राजनीतिक ‘दंगल’ कराने वाले ‘आज तक’ चैनल के एंकर रोहित सरदाना का हृदयाघात से निधन हो गया।


मीडिया : एक पत्रकार की मौत और सोशल मीडिया

कुछ दिन पहले वे कोविड संक्रमित भी हुए थे। सोशल मीडिया में  उनके निधन पर दो तरह की प्रतिक्रियाएं दिखीं: पहली ‘शोक व्यक्त करने वाली’ और शिकायत करती हुई कि उसका चैनल उसकी मृत्यु की खबर क्यों नहीं दे रहा है? दूसरी वे रहीं जिनमें उनके निधन पर खुशी जाहिर की गई थी! कोई कहता था कि अच्छा हुआ मर गया वरना न जाने और कितनी घृणा फैलाता। कोई कहता कि वो सरकार का दल्ला था। सीएए का समर्थक था। अच्छा हुआ मर गया! इनमें से अधिकांश प्रतिक्रियाएं कुछ भूतपूर्व और कुछ अभूतपूर्व पत्रकारों की रहीं!
यह शायद पहली बार है कि मीडिया वाले ही एक मीडियाकर्मी के निधन पर खुशी जाहिर कर रहे थे मानो वे अमृत पीकर आए हों! कुछ देर बाद ‘आज तक’ ने सरदाना के निधन को न केवल बड़ी खबर बनाया बल्कि उसकी दो एंकर नेहा व चित्रा त्रिापाठी उसको याद करते हुए धड़-धड़ रोती दिखीं। यही हाल एक अन्य चैनल के चरचा कार्यकम में दिखा। उसकी एंकर रुबिका लियाकत और कांगेस प्रवक्ता रागिनी नायक और अभय दुबे की आंखें भर आई। इतना ही नहीं राष्ट्रपति, पीएम, गृह मंत्री, रक्षा मंत्री, योगी शिवराज, केजरीवाल आदि ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया।

आम जीवन में किसी की अरथी या जनाजा जाते देख हम अपना सिर झुका लेते हैं। आम जनता इसी तरह अपनी ‘हमदर्दी’ जताती है! मौत पर किसका वश? लेकिन मृत्युपरांत सभी को न्यूनतम सम्मान का हक होता है। लोक व्यवहार है। इसीलिए अनेक ने अपनी शोक संवेदनाएं जाहिर कीं! और जिन्होंने सरदाना की मौत पर खुशी व्यक्त की, उन्होंने उसके प्रति अपनी खुन्नस और घृणा ही जाहिर की! यों ऐसे लोगों की साफगोई की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी खुन्नस नहीं छिपाई, लेकिन उनकी खुन्नस में एक ईष्र्या का भाव भी रहा! लेकिन यह ईष्र्या सरदाना की वजह से न होकर उस सिस्टम की वजह से है जो हम सबको एक दूसरे से लड़ाता रहता है। लेकिन हमारा गुस्सा उस पर न होकर एक दूसरे पर बरस कर ठंडा हो जाता है। इन दिनों हम इस खुन्नस को सोशल मीडिया खुलकर खेलते देखते हैं। सोशल मीडिया एक ‘खुन्नसवादी’ मीडिया है। वह हमें प्रेम की जगह घृणा करना सिखाता है। जो हमें पसंद नहीं वह मरता क्यों नहीं? यह नया नॉरमल है, जो सोशल मीडिया में  अक्सर गूंजता रहता है: यह ‘माई वे  या हाई वे’ का दुर्दात रूप है। सोशल मीडिया हमें छोटे-छोटे तानाशाह में बदलता है और हम समझते हैं कि हम जनतांत्रिक हैं। ऐसे ही लोग शिकायत करते हैं कि जनतंत्र नहीं है। फासिज्म है और फिर भी वह सब लिखते रहते हैं जो किसी जनतंत्र में ही संभव है, लेकिन जो किसी के मरने पर खुशी मनाते हैं वे फासिस्ट ही नहीं ‘सेडिस्ट’ भी हैं, जो दूसरे के दुख में सुख मनाते हैं। ऐसे लोगों को कौन समझाए कि मीडिया सत्ता का चौथा पाया है।
वह सत्ता की सेवा करने के लिए होता है। सत्ता ‘लिमिटेड आलोचना’ की छूट देती है ताकि लोगों का गुस्सा निकलता रहे। फर्क है तो इतना कि वो तो ‘आज तक’ में था, लेकिन ये कहीं नहीं हैं! ऐसे लोग ‘मीडिया’ के ‘मानी’ तक नहीं जानते। अब तो मीडिया अध्ययनों का उतार है वरना जिन दिनों चढ़त थी, उन दिनों पत्रकारिता कोसरे में दाखिला लेने के लिए बहुत से युवा आया करते थे। इस लेखक का दाखिलों के लिए  जरूरी साक्षात्कारों को लेने  का अनुभव है। तब एक-से-एक मेधावी आते और यह पूछने पर कि ‘आप पत्रकार क्यों बनना चाहते हैं?’ कहते कि हम समाज को बदलना चाहते हैं। इसलिए पत्रकारिता करना चाहते हैं। जब यह लेखक उनसे कहता कि आपका यह आदर्शवाद तभी तक है जब तक पत्रकार नहीं बने। जब बन जाओगे तो सारे आदर्श धरे रह जाएंगे क्योंकि मीडिया क्रांति का माध्यम न होकर एक ‘बिजनेस’ है।
वह सत्ता का ‘चौथा पैर’ है। एक पैर बाकी तीन पैरों से झगड़ा मोल नहीं ले सकता। ‘राज्यसत्ता और क्रांति’ नामक किताब में लेनिन ने कहा था कि हर राज्यसत्ता जनतंत्र के नाम पर शासक वर्ग की तानाशाही ही होती है। लेकिन पढ़ें तो जानें! और सोशल मीडिया भी क्रांति की कोई गंगोत्री नहीं, बल्कि बड़े-बड़े ‘मल्टीनेशनल कॉरपोरेशनों’ की पूंजी के बनाए ‘साइबर स्पेस’ की तानाशाही में ‘प्राइवेट लिमिटेड आजादी’ का एक मंच है। इसलिए जो सरदाना को सरकार का दल्ला कह रहे हैं वे स्वयं सरकार का दल्ला न बन पाने का अफसोस जता रहे हैं और अपनी खुन्नस से अपनी मानवीयता की हत्या कर रहे हैं!

सुधीश पचौरी


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