वैश्विकी : कोरोना और विदेश संबंध
भारत आज दो मोर्चों पर लड़ रहा है। एक मोर्चा कोरोना महामारी की दूसरी लहर का है तो दूसरा मोर्चा सुनियोजित अंतरराष्ट्रीय दुष्प्रचार का है।
वैश्विकी : कोरोना और विदेश संबंध |
संकट के इस दौर में अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने एक ओर भारत को चिकित्सा सहायता देने की पहल की है तो वहीं इन देशों की मीडिया ने असंवेदनशीलता का परिचय देते हुए भारत का मनोबल तोड़ने की कोशिश की है। केंद्र और राज्य सरकारों सहित कोई भी महामारी की दूसरी लहर का पुर्वानुमान लगाने और इसका सामना करने के लिए पहले से तैयारी में की गई लापरवाही से इनकार नहीं किया जा सकता। राजनीतिक नेतृत्व ही नहीं बल्कि चिकित्सा वैज्ञानिक भी कोरोना वायरस की टेढ़ी चाल को समझने में असफल सिद्ध हुए। यह बात केवल भारत पर ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर लागू होती है। पिछले वर्ष ही अमेरिका के प्रमुख चिकित्सा वैज्ञानिक एंटोनी काउची ने बयान दिया था कि ‘महमारी कब खत्म होगी यह वायरस तय करेगा’। इस बयान में चिकित्सा वैज्ञानिक की बेबसी नजर आती है। इस अनिश्चितता के बावजूद सरकारों की यह जिम्मेदारी तो बनती थी कि वे कुछ महीनों के लिए मिली राहत के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं को चाक-चौबंद करते।
इस अभूतपूर्व संकट में भी वैक्सीन निर्माता देश मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति से उबर नहीं पाए। अमेरिका और पश्चिमी देशों की वैक्सीन पर बौद्धिक संपदा कानून लागू है जिसके कारण भारत सहित अन्य देशों में बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन नहीं हो सकता। विश्व व्यापार संगठन में भारत और दक्षिण अफ्रीका ने यह अपील की है कि पेटेंट के नियमों में कुछ समय के लिए ढिलाई दी जाए ताकि पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन का उत्पादन हो सके। महामारी के दौर में भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न देशों का शक्ति परीक्षण जारी है। बड़े देश आपसी संघर्ष को भूलाकर सहयोग करने के लिए तैयार नहीं हैं। भारत के लिए यह बड़ा संदेश है। कोविड महामारी से उबरने के बाद भारत को अपनी विदेश नीति में आवश्यक बदलाव करने होंगे।
भारत को मिल रहे अंतरराष्ट्रीय सहयोग और सहायता में सबसे उल्लेखनीय बात चीन की राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ओर से प्रधानमंत्री मोदी को लिखा गया संवेदना और एकजुटता का पत्र है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने एस. जयशंकर से टेलीफोन वार्ता कर चीन से भारत को चिकित्सा उपकरण और सामग्री की आपूर्ति को सुगम बनाने का आश्वासन दिया है। चीन की इस पेशकश का सांकेतिक महत्त्व ही है। पूर्वी लद्दाख में सैनिकों को पीछे हटाने का काम अधिकतर स्थानों पर अभी होना बाकी है। चीन की ओर से मदद देने की पेशकश उसकी इसी नीति पर आधारित है कि सीमा विवाद को किनारे रख अन्य क्षेत्रों में कामकाज को सामान्य बनाया जाए। भारत चीन की इस नीति से सहमत नहीं है। आने वाले दिनों में यह पता लगेगा कि चीन संबंधों को सामान्य बनाते के प्रति कितना गंभीर है। यह एक वास्तविकता है कि भारत को यदि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना है तो उसमें चीन की भी एक भूमिका होगी। दोनों देश तात्कालिक और दूरगामी दृष्टियों से परस्पर आर्थिक निर्भरता के तथ्य को नकार नहीं सकते।
भारत को अंतरराष्ट्रीय सहयोग और सहायता के क्षेत्र में अमेरिका तथा रूस के बीच प्रतिस्पर्धा देखने को मिला। वैक्सीन के कच्चे माल के निर्यात पर अमेरिका की रोक को लेकर भारत में गहरी चिंता व्यक्त की गई। अमेरिकी रोक के विरुद्ध भारत में बने जनमत से अमेरिकी प्रशासन घबरा गया और आनन-फानन में उसने सहायता करने के अनेक कदम उठाए। सरकार के स्तर पर जहां ऐसा हो रहा था वहीं अमेरिका और पश्चिमी देशों की मीडिया में भारतीय नगरों में जलती हुई चिताओं की तस्वीरें छप रहीं थी। ऐसा माहौल बनाया गया मानो रोम जल रहा है और नीरो बांसुरी बजा रहा है। पूरे घटनाक्रम से साफ था कि पश्चिमी मीडिया की मंशा भारत के साथ एकजुटता प्रदर्शित करना नहीं बल्कि संकट को और गहरा बनाने की है।
रूस की सरकार और मीडिया की भूमिका सबसे प्रशंसनीय रही। रूस की मीडिया ने भारत के संकट के समाचार दिए, लेकिन न तो उन्हें अतिरंजित किया न ही राजनीतिक नेतृत्व पर हमला बोला। इस दौरान राष्ट्रपति पुतिन ने प्रधानमंत्री मोदी से टेलीफोन पर बातचीत की। रूस में निर्मित स्पुतनिक वैक्सीन का भारत में आने का सिलसिला शुरू हो गया है। रूस भारत का सबसे भरोसेमंद दोस्त है यह बात एक बार और प्रमाणित हो गई।
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