यादें : कुछ लोग एक रोज जो बिछड़ जाते हैं..
कोरोना काल में मृत्यु की खबरें चारों ओर से आ रही हैं। इनमें बड़ी संख्या में कलाकारों, लेखकों, पत्रकारों, संस्कृति प्रेमियों के बिछड़ने का सिलसिला भी है।
यादें : कुछ लोग एक रोज जो बिछड़ जाते हैं.. |
यह सिलसिला कुछ ऐसा है कि हम अभी किसी एक के निधन की पीड़ा से गुजर ही रहे होते हैं कि कोई दूसरी खबर आकर हमें और दुखी कर देती है। कह सकते हैं कि यह क्रम किसी के बारे में ठहरकर कुछ सोचने, लिख पाने का अवसर भी नहीं दे रहा है। यह भी एक बेबसी है कि कोविड के कारण ऐसे लोगों से उनकी बीमारी के दौर में मिलने, बात करना भी संभव नहीं है, अंतिम मुलाकात भी मयस्सर नहीं है। हाल के दिनों में बहुत सारे ऐसे लोग बिछड़ गए, जिनसे काफी निकटता थी और जिनकी ढेर सारी यादें हैं।
राजन-साजन मिश्र से निकटता की एक वजह बनारस भी रहा। मिश्र बंधु के व्यक्तित्व की भी एक गहरी छाप मेरे हृदय पर अंकित है। दोनों ही भाइयों के चेहरे पर इत्मीनान, सुकून और ताजगी हमेशा से रही है, लेकिन उनमें हास्य-व्यंग्य की भी जो अद्भुत क्षमता है, ये उनके करीबी लोग ही जानते हैं। राजन मिश्र की हंसी भी कभी भुलाई नहीं जा सकती। हालांकि उनसे अक्सर बातें होती थीं, लेकिन मृत्यु से थोड़े समय पहले ही उनका एक साक्षात्कार भी करने का अवसर मिला था, प्रसिद्ध सितार वादक पंडित रविशंकर के सिलसिले में। यह बातचीत संगीत नाटक अकादमी की त्रैमासिक पत्रिका ‘संगना’ के पंडित रविशंकर विशेषांक के लिए थी। राजन मिश्र ने एक मजेदार बात बताई। उन्होंने बताया कि रविशंकर जब दिल्ली में होते तो दोनों भाइयों को घर बुला लेते। फिर नाश्ता करने के बाद एक कमरे में बैठक होती। इस बैठक में पंडित रविशंकर होते, सुकन्या जी और राजन-साजन मिश्र होते। रविशंकर उनसे कहते कि अब ये बताओ मार्केट में नया क्या है? रविशंकर जी का आशय चुटकुलों से होता। फिर चुटकुलों का दौर चलता और खूब ठहाके लगते। ऐसी बैठकें तब खूब होती थीं जब रविशंकर राज्य सभा के सांसद थे।
रविशंकर की वरिष्ठ शिष्या कृष्णा चक्रवर्ती का भी पिछले दिनों निधन हो गया। वे बनारस में रहती थीं। कृष्णा जी ने एक बार बताया था कि पंडित रविशंकर जी से सीखने के दौरान जब कई वर्ष निकल गए तो एक बार उनके सामने बजाते हुए वह बहुत उदास होकर बैठ गई। रविशंकर समझ गए, उन्होंने पूछा कि क्या बात हुई है, घर में कोई झगड़ा हुआ है क्या? कृष्णा जी ने कहा कि हम आपसे एक बात पूछना चाहते हैं। आप जब सितार छेड़ते हैं, विलायत खान छेड़ते हैं या फिर निखिल दा तो माहौल बन जाता है, एक स्ट्रोक लगाते ही मुंह से निकलता है, वाह क्या बात है, लेकिन यह चीज हमको अपने बजाने में क्यों नहीं दिखती है? कृष्णा चक्रवर्ती के इस सवाल पर पंडित रविशंकर हंसने लगे, बोले कि तुमने ऐसी बड़ी बात पूछ ली है, हम क्या जवाब दें? कृष्णा जी अड़ी रहीं कि नहीं हमें जवाब दीजिए, क्या मुझमें प्रतिभा नहीं है? हम सितार पर बहुत तैयारी के साथ बजा लें, लेकिन उसका क्या फायदा जब सितार श्रोताओं के दिल को छू न सके? रविशंकर बोले कि तुम इतना पूछ रही हो तो हम यह जरूर कहेंगे कि बजाते-बजाते एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब तुम्हारे सितार में भी यह बात हो सकेगी। कृष्णा जी ने बताया था कि फिर साल बीतते गए। एक दिन वह अभ्यास कर रही थीं। रविशंकर जी कहीं दूर से सितार सुन रहे थे, वे दौड़ते हुए आए और बोले कि तुम सितार छोड़ने की बात कर रही थी ना, देखो वह बात तुम्हारे हाथ में आ गई है! अगर तुम्हें विश्वास न हो रहा हो तो किसी कार्यक्रम में बजाना, देखना लोग खुद कहेंगे।
तीस वर्षो की सांस्कृतिक पत्रकारिता में बहुत सारे अधिकारियों से निकट का संपर्क रहा। कई अधिकारी पुलिस और प्रशासन की सेवा में हैं। उनमें से कुछ अब सेवानिवृत्त भी हो गए। निकटता प्राय: उन्हीं से हो पाती जिनको साहित्य-संगीत का शौक होता। कोरोना के कारण पिछले दिनों दिवंगत हुए योगेन्द्र प्रताप सिंह संस्कृति विभाग के उन अधिकारियों में थे, जिन्होंने सिर्फ नौकरी नहीं की बल्कि उनमें कला और कलाकारों के लिए हमेशा कुछ-न-कुछ बेहतर करने की दृढ़ इच्छाशक्ति थी। लोककला और उसके कलाकारों को प्रोत्साहित करने में उनकी विशिष्ट भूमिका रही। रामलीला के संरक्षण में और विश्व भर में फैले इसके विविध रूपों को संरक्षित करने के उनके प्रयासों को भी विशेष तौर पर याद किया जाना चाहिए।
बद्री विशाल बनारस के उन पत्रकारों में थे, जिनकी व्यक्तिगत तौर पर मेरे निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वास्तव में ये वे ही थे, जिन्होंने मुझे सांस्कृतिक-साहित्यिक पत्रकारिता की राह दिखाई। ‘आज’ के मेरे शुरुआती दिनों में उन्होंने मुझे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के युवा महोत्सव के समाचार संकलन में लगा दिया था। वास्तव में वे विश्वविद्यालय की खबरें करते थे और चाहते थे कि महोत्सव की अच्छी खबर समाचार पत्र में आए। बद्री जी बनारसी रंग ढंग में रंगे थे। नोएडा आए ‘सहारा’ में लेकिन फिर बनारस लौट आए।
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