मीडिया : मीडिया बनाए ‘मास्क कल्चर’
इस कोविड काल में मीडिया जो दिखा रहा है, सच दिखा रहा है। आज जो हो रहा है, उसके लिए यों तो हम सब जिम्मेदार हैं, लेकिन जिनके हाथ में इस चुनौती का मुकाबला करने की रीति-नीति बनाने और उनको लागू करने के अधिकार हैं, सबसे बड़ी जिम्मेदारी उन्हीं की बनती है, और कहने की जरूरत नहीं कि इस मामले में सब दल और उनके नेता बुरी तरह से नाकामयाब रहे हैं।
मीडिया : मीडिया बनाए ‘मास्क कल्चर’ |
नेता अपनी टुच्ची राजनीति से जब मुक्त होंगे तब होंगे, आज की भयावह स्थिति से निपटने की एक बड़ी जिम्मेदारी मीडिया की बनती है क्योंकि ‘कोविड 19’ से बचाव का मुद्दा सिर्फ सत्ता का नहीं सारे समाज का मुद्दा है।
यह अच्छा ही है कि जब से ‘कोविड 19’ की दूसरी लहर आई है, तब से मीडिया सरकारों से भी कुछ कठोर सवाल पूछने लगा है और संक्रमण के नित्य बढ़ने वाले रिकॉर्डतोड़ आंकडों को दिखाते हुए सरकारों की तैयारियों की भी पोल खोलने लगा है, और कड़वे यथार्थ को बताने लगा है कि हमारे पास न पर्याप्त बेड हैं, न ऑक्सीजन है न रेमडेसिविर है, न पर्याप्त टीके हैं। दूसरी लहर पहली लहर से अलग है। पिछले साल आई पहली लहर में लंबा और पूर्ण लॉकडाउन लगाया गया था, जिसका सबसे बुरा शिकार असंगठित प्रवासी मजदूर बने, जो लॉकडाउन के लागू होते ही बेरोजगार हो गए और हजारों मील दूर अपने घरों की ओर लौटने का मजबूर हुए। हजारों लोग हजारों किलोमीटर पैदल-पैदल ही गए। कुछ साइकिलों पर कुछ ट्रकों में गए। कुछ रास्ते में मरे और कुछ दुर्घटनाओ में मरे। उनकी यातना के मीडिया कवरेज हमारे मन में गहरी सहानुभूति पैदा करते थे, लेकिन तब के हाहाकार में और अब के हाहाकार में फर्क है। तब का हाहाकार सड़कों पर था, लेकिन अब का हाहाकार मिडिल-क्लास मुहल्लों में हो रहा है।
मीडिया उनके पलायन को भी तब भी किसी ‘शो’ की तरह दिखाता था और लेकिन उनके प्रति हमदर्दी भी जताता था, लेकिन उनकी मदद करने वाले व्यक्तियों की ‘दरियादिली’ को दिखाकर उनको हीरो बनाने लगता था। फिर भी, जिन नेताओं व सरकारों ने इन गरीबों की मजबूरी और पलायन की अनदेखी की, उनके प्रति मीडिया उतना क्रिटिकल नहीं था जितना कि उसे होना चाहिए था। किसी महादानी ने उनके लिए रेल चला दी। किसी ने बसें चला दीं तो मीडिया वाहवाही करने लगता था, मगर ‘कोविड 19’ की यह ‘दूसरी लहर’, खाती-पीती पढ़ी-लिखी अपने शहरी मिडिल क्लास को अपनी चपेट में ले रही है। इसीलिए हर ओर अधिक हाय-हाय है। आये दिन कहीं न कहीं कोई न कोई छोटा मझोला या रिटार्यड नेता या वीआईपी या मीडियाकर्मी या उसका रिश्तेदार कोविड की चपेट में आ रहा है और वे कुछ नहीं कर पा रहे। सभी बेबस नजर आते हैं। शायद इसीलिए मीडिया पहली बार कुछ क्रिटिकल होता नजर आता है और सरकारों से बार-बार कड़े सवाल पूछने लगा है। पहली बार भक्त-मीडिया तक अपनी भक्त-भूमिका को छोड़ ‘आलोचक’ की भूमिका में आया है, और लोगों को यथार्थ बता रहा है कि दूसरी लहर आएगी यह जानते हुए भी-केंद्र हो या राज्य सरकारें-किसी ने कोई तैयारी नहीं की। आज न अस्पतालों में पर्याप्त बेड हैं, न ऑक्सीजन है, न दवा है, और न टीका है। लोग अस्पतालों के ऐन सामने मर रहे हैं। मानो कब्रिस्तानों में अंतिम क्रिया की जगह तक नहीं मिल रही। दवा और ऑक्सीजन तक पर ब्लैक है। मीडिया बताता रहता है कि किसी अस्पताल में ऑक्सीजन एक घंटे की बची है, कहीं दो घंटे की। शनिवार की सुबह दिल्ली के दो निजी अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से कई मरीज मर चुके हैं। ऐसे सीन पिछले बरस नहीं थे और इतना क्रिटिकल मीडिया भी नहीं था, लेकिन आज मीडिया की क्रिटिकल भूमिका बड़ी निर्णायक नजर आती है: न ऐसा कवरेज होता न अदालतें सरकारों को फटकारतीं और न सरकारें हिलतीं।
यों आम जनता जानती थी कि कोई नेता, कोई दल किसी का सगा नहीं, लेकिन इस बार भक्त-मिडिलक्लास भी जान गई कि आप दलों और नेताओं के भरोसे नहीं जी सकते। मीडिया की असली भूमिका यही है। नेता को पांच बरस में एक बार जनता की जरूरत होती है, लेकिन मीडिया को हर वक्त दर्शकरूपी जनता की जरूरत होती है। आज सबसे बड़ी जरूरत ‘मास्क कल्चर’ की है। इसके लिए हमारे तीन सुझाव हैं: 1-सभी चैनलों के एंकर-रिपोर्टर-चर्चक टीवी में सदैव मास्क पहने दिखें; 2-पीएम-सीएम-नेता जब भी टीवी में बोलें मास्क लगाकर बोलें; और 3-चैनल मास्क को अपना ‘लोगो’ बनाएं। तभी जनता के बीच जरूरी ‘मास्क कल्चर’ बनेगी और तभी ‘बचाव ही इलाज है’ की सलाह सिद्ध होगी।
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