उत्तराखंड हादसा : फिर गुस्से में हिमालय
शीत ऋतु में जहां सभी नदियां खासकर ग्लेशियरों पर आधारित हिमालयी नदियां सिकुड़ जाती हैं।
उत्तराखंड हादसा : फिर गुस्से में हिमालय |
उनमें भयंकर बाढ़ आना उतना ही विस्मयकारी है जितना केदारनाथ के ऊपर स्थायी हिमरेखा का उल्लंघन कर बादल का फटना था। शीतकाल में ग्लेशियरों के पिघलने की गति बहुत कम होने से हिमालयी नदियां इन दिनों निर्जीव नजर आती हैं। गर्मियों का मौसम शुरू होते ही उनमें नये जीवन का संचार होने लगता है, लेकिन चमोली में भारत-तिब्बत सीमा से लगी नीती घाटी की धौली गंगा और ऋषिगंगा कड़ाके की ठंड में ही विकराल हो उठीं।
अलकनंदा की इन सहायिकाओं का ऐसा विनाशकारी रौद्र रूप अपने आप में चेतावनी है। प्रकृति के इस विकराल रूप को हम अगर अब भी हिमालय के जख्मों और उसे नंगा करने के विरुद्ध चेतावनी नहीं मानेंगे तो पुन: भयंकर मानवीय भूल होगी। प्रख्यात पर्यावरणविद् चण्डी प्रसाद भट्ट एक बार नहीं, अनेक बार इस अति संवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्र में भारी निर्माण के प्रति आगाह कर चुके थे। उन्होंने खासकर धौलीगंगा की बर्फीली बाढ़ से बरबाद हुए तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना के प्रति सचेत किया था। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने भी 2019 में रेणी गांव के ग्रामीणों की शिकायत पर निर्माणाधीन ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना के निर्माण में हो रही पर्यावरणीय लापरवाहियों के प्रति राज्य सरकार को आगाह कर दिया था। परियोजनाओं के मलबे ने भी बर्फीली बाढ़ की विभीषिका को कई गुना बढ़ाया है।
मानव कल्याण के लिए विकास तो निश्चित रूप से जरूरी है, मगर विकास की योजनाएं बनाते समय योजनाकारों को क्षेत्र के इतिहास एवं भूगोल की जानकारी के साथ ही इको सिस्टम की संवेदनशीलता का ध्यान भी रखना चाहिए। ग्लेशियर (हिमनद) बर्फ की नदी होते हैं, जो चलते तो हैं मगर चलते हुए दिखते नहीं, जबकि बर्फ की विशालकाय चट्टानों के टूटकर नीचे गिरने से एवलांच बनता है और उसके मार्ग में जो भी आता है उसका नामोनिशान मिट जाता है। ऋषिगंगा और धौली की बाढ़ इसी एवलांच स्खलन का नतीजा थी, लेकिन उसे ग्लेशियर टूटना और फटना बताया जा रहा है। हिमालय पर एक महासागर जितना पानी बर्फ के रूप में जमा है। इस हिमालयी ‘क्रायोस्फीयर’ में ग्लेशियर और अवलांच जैसी गतिविधियां निरंतर चलती रहती हैं। इनका असर निकटवर्ती मानव बसावटों पर भी पड़ता है। अलकनंदा नदी के कैचमेंट इलाके में इस तरह की घटनाएं नई नहीं हैं। अलकनंदा के इसी कैचमेंट क्षेत्र में तीव्र ढाल वाले नदी-नाले पूर्व में भी अनेक बार भारी विप्लव मचा चुके हैं। 1868 में चमोली गढ़वाल के सीमांत क्षेत्र में झिंझी गांव के निकट भूस्खलन से बिरही नदी में एक गोडियार ताल नाम की झील बनी, जिसके टूटने से अलकनंदा घाटी में भारी तबाही हुई और 73 लोगों की जानें गई। 1893 में गौणा गांव के निकट एक बड़े शिलाखंड के टूट कर बिरही में गिर जाने से नदी में फिर झील बन गई, जिसे गौणा ताल कहा गया जो 4 किमी. लंबा और 700 मीटर चौड़ा था।
यह झील 26 अगस्त, 1894 को टूटी तो अलकनंदा में ऐसी बाढ़ आई कि गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर का आधा हिस्सा तक बह गया। बदरीनाथ के निकट 1930 में अलकनंदा फिर अवरुद्ध हुई थी, इसके खुलने पर नदी का जल स्तर 9 मीटर तक ऊंचा उठ गया था। 1967-68 में रेणी गांव के निकट भूस्खलन से जो झील बनी थी उसके 20 जुलाई, 1970 में टूटने से अलकनंदा की बाढ़ ने हरिद्वार तक भारी बताही मचाई। इसी बाढ़ के बाद 1973 में इसी रेणी गांव गौरा देवी ने विश्व बिरादरी को जगाने वाला चिपको आंदोलन शुरू किया था। हिमालयी नदियां जितनी वेगवान होती हैं, उतनी ही उच्चश्रृंखल भी होती हैं। उनका मिजाज बिगड़ गया तो रविवार को धौली गंगा में आई बाढ़ की तरह ही परिणाम सामने आते हैं। नदी का वेग उसकी ढाल पर निर्भर होता है। हरिद्वार से नीचे बहने वाली गंगा का ढाल बहुत कम होने के कारण वेगहीन हो जाती है। पहाड़ में गंगा की ही श्रोत धारा भागीरथी का औसत ढाल 42 मीटर प्रति किमी. है। मतलब यह कि यह हर एक किमी. पर 42 मीटर झुक जाती है। अलकनंदा की ढाल इससे अधिक 48 मीटर प्रति किमी. है जबकि इसी धौलीगंगा की ढाल 75 मीटर प्रति किमी. आंकी गई। इसी प्रकार नंदाकिनी की 67 मीटर और मंदाकिनी की ढाल 66 मीटर प्रति किमी. आंकी गई है। जाहिर है कि धौली सबसे अधिक वेगवान है तो उससे खतरा भी उतना ही अधिक है।
हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लंबा इतिहास है। मगर अब इन विप्लवों की बारंबारता बढ़ रही है। लेह जिले में 5 एवं 6 अगस्त, 2010 की रात्रि बादल फटने से आई त्वरित बाढ़ और भूस्खलन में 255 लोग मारे गए थे। वहां दो साल में ही फिर सितम्बर, 2014 में आई बाढ़ ने धरती का इस को नर्क बना दिया था। मार्च, 1978 में लाहौल स्पीति में एवलांच गिरने से 30 लोग जानें गंवा बैठे थे। मार्च, 1979 में अन्य एवलांच में 237 लोग मारे गए थे। सतलुज नदी में 1 अगस्त, 2000 को आई बाढ़ में शिमला और किन्नौर जिलों में 150 से अधिक लोग मारे गए थे। उस समय सतलुज में बाढ़ आई तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून, 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अंदर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ आ गई। 1995 में आई आपदाओं में हिमाचल में 114 तथा 1997 की आपदाओं में 223 लोगों की जानें चली गई थीं।
भूगर्भविद् के अनुसार यह पर्वत श्रृंखला अभी भी विकासमान स्थिति में है। भूकंपों से सर्वाधिक प्रभावित है। इसका प्रभाव यहां स्थित हिमानियों, हिम निर्मित तालाबों तथा चट्टानों और धरती पर पड़ता रहता है। इस कारण इन नदियों की बौखलाहट बढ़ी है। अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, अहमदाबाद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमखंड के बढ़ने-घटने के चक्र में बदलाव शुरू हो गया है। हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है, लेकिन पिछले दो दशकों में उत्तर-पूर्व के हिमालयी राज्यों में वनावरण निरंतर रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति से बेतहाशा छेड़छाड़ हो रही है। पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर हिमालय पर उमड़ रही मनुष्यों और वाहनों की अनियंत्रित भीड़ भी संकट को बढ़ा रही है।
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