रंगमंच : महफिल सजाने की कला

Last Updated 31 Jan 2021 01:56:20 AM IST

एक मित्र ने पिछले दिनों लखनऊ में प्रेक्षागृह की उपलब्धता के बारे में मुझ से जानकारी मांगी। दूसरे शहर में होने के कारण और लखनऊ में कार्यक्रम करने की इच्छा के कारण कारण वह मेरी मदद चाहता था।


रंगमंच : महफिल सजाने की कला

मैंने जब उसकी जरूरत के हिसाब से नगर के कुछ प्रेक्षागृहों की पड़ताल शुरू की तो इस बात से मुझे निराशा और खुशी दोनों हुई कि फरवरी में प्रेक्षागृह उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि वहां कई नाटकों के मंचन और नाटय़ समारोहों के आयोजन हो रहे हैं। निराशा इसलिए कि मित्र का काम नहीं हो सका और खुशी इस बात को लेकर कि चलो नगर में रंगमंच का माहौल अच्छा हो रहा है, और पिछले 10 महीनों से कोरोना संकट के कारण जो चीजें रुक गई थीं, अब उनकी बहाली हो पा रही है। मैंने जब इस बात की जानकारी लेनी शुरू की कि आखिर, जब इतनी अधिक संख्या में नाटकों के मंचन होने जा रहे हैं, तो ये किस तरह के, कौन से नाटक हैं, किन नये विषयों को उठाया जा रहा है, क्या हाल के कोरोना संकट और इससे जुड़ी तमाम समस्याओं पर भी कोई प्रस्तुति लेकर होने जा रही है तो, मेरा सारा उत्साह जाता रहा। ये आयोजन मुझमें बहुत रुचि नहीं जगा सके।

पता चला कि अचानक बड़ी संख्या में नाटकों के मंचन इसलिए किए जाने हैं कि नगर के रंगमंच से जुड़ी संस्थाओं को नाटकों के लिए जो अनुदान मिलते हैं, ये अनुदान संस्थाओं के संचालन के लिए भी होते हैं, और प्रस्तुतियों के लिए भी। लंबे समय से प्रस्तुतियां ना हो पाने के कारण उनकी उपयोगिता साबित कर पाना कठिन हो गया था। इसलिए अब जब कोरोना का संकट कम होता दिख रहा है, और वित्तीय वर्ष समापन की ओर अग्रसर है, संस्थाएं चाहती हैं कि जल्द-से-जल्द प्रस्तुतियां कर इस धनराशि की उपयोगिता प्रामाणित की जा सके। रंगमंच के प्रोत्साहन के लिए सरकारी संस्थाओं से अनुदान मिलें, रंगमंच करना ‘घर फूंक तमाशा’ देखने जैसा न हो, इस कार्य में लगे लोगों को इससे रोजी-रोटी मिल सके, सिद्धांतत: इन बातों से किसी का क्या इनकार हो सकता है? सरकार के संस्कृति विभाग और उसकी विभिन्न संस्थानों, अकादमियों द्वारा अनुदान देने, समारोह आयोजित कर संस्थाओं को नाटकों के लिए आमंत्रित करने के पीछे भावना भी यही रही होगी कि संस्थाओं को आर्थिक लाभ दिया जा सके जिससे कि वे रंगमंच के लिए अधिक-से-अधिक कार्य कर सकें।
लखनऊ और तमाम दूसरे नगरों में बड़ी संख्या में ऐसी संस्थाएं हैं। इनमें मासिक मानदेय का प्राविधान होता है। निश्चय ही धनराशि बहुत अधिक नहीं होती, लेकिन जहां अपने घर से धन लगाकर नाटक करने की परंपरा रही हो, वहां यह स्थिति बहुत बेहतर कही जा सकती है। इसके साथ ही प्रस्तुतियों के लिए अलग से अनुदान दिए जाते हैं, लेकिन इन सबके कारण एक बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई है। नाटकों का स्वभाव ही बदल गया है। अब आपको ऐसे नाटकों की, प्रस्तुतियों की बहुतायत मिलेगी जो हल्के-फुल्के विषयों और खासकर हास्य पर आधारित होंगे। केवल हास्य, व्यंग्य भी नहीं। नाटक देखिए, हंसिए-मुस्कुराइए और घर चले जाइए। जो अधिक अनुदान चाहते हैं, या लोगों का अधिक ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं, वे इतिहास या पौराणिक कथाओं में चले जाते हैं, या तकनीक का सहारा लेते हैं। इतिहास का भी वह हिस्सा, जिससे किसी को तकलीफ न हो। इतिहास और पौराणिक कथाएं नाटकों के विषय बनते ही रहे हैं, लेकिन कहना गलत न होगा कि कुशल लेखक या निर्देशक जब इन कथाओं को उठाता है, तो इनमें कुछ ऐसी दिशाएं भी बनाता है, जो आपको एक नये विचार की ओर ले जाते हैं। ऐसे नाटक आज के समय से जुड़ते हैं, सवाल उठाते हैं, और एक नये ढंग से अपनी प्रासंगिकता रेखांकित करते हैं। अनुदान से होने वाले नाटकों में ये बातें देखने को नहीं मिल रही हैं।
वास्तव में आज नाटकों से प्रतिरोध का स्वर गायब हो गया है। यथार्थ का झकझोर देने वाला चितण्रअब इनसे गायब है। विचार नहीं है। रोजी-रोटी के सवाल को लेकर मानव संघर्ष के स्वर अब नहीं हैं। पहले ऐसे खूब नाटक होते थे, जो सामान्य-सी घटनाओं को लेकर, पारिवारिक स्थितियों पर भी मानव मन की द्वंद्वात्मकता, उसके अंतरविरोधों को कुछ इस तरह व्यक्त करते थे कि वे हर किसी की कहानी बन जाते थे। सांप्रदायिकता के सवाल भी नाटकों में खूब उठाए जाते थे। यह सारा कुछ आज के नाटकों से लुप्त होता दिख रहा है? ऐसा लगता है कि जैसे आज के हिंदी रंगकर्म ने एक सुविधाजनक रास्ता चुन लिया है। यह रास्ता ऐसा है कि जिसमें किसी को भी दिक्कत नहीं होती, न किन्हीं दर्शकों को, न अनुदान देने वाली अकादमियों-संस्थानों को और न ही शासन को। रंगमंच में प्रतिरोध की ताकत न होती तो सफदर हाशमी की हत्या न होती। आज का रंगमंच, प्रेमचंद के शब्दों को याद करते हुए कहें तो, महफिल सजाने की ही कला बनता जा रहा है!

आलोक पराड़कर


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