राजनीति : चरम पर शीतयुद्ध
विश्व-राजनीति में दूसरे विश्व युद्ध के बाद बिना हथियारों का एक लम्बा युद्ध हुआ, जिसे शीतयुद्ध कहा जाता है।
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इसके चरित्र और नफे -नुकसान से पूरी दुनिया परिचित है। यह मुख्यत: सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच का एक-दूसरे के खिलाफ प्रचार युद्ध था ,जिसमे एक दूसरे को मिटा देने या फिर कमतर सिद्ध करने की कोशिशें होती थीं। सोवियत संघ के विघटन के बाद ही यह शीतयुद्ध समाप्त हुआ। इस युद्ध ने लोगों के सोचने -समझने की प्रवृत्तियों तक को बुरी तरह प्रभावित किया था। अनेक लोग अब तक उसी अंदाज में सोचने के अभ्यस्त हैं।
हाल की घटनाओं से प्रतीत होता है बिहार की राजनीति में भी शीतयुद्ध जैसे ही लक्षण उभर रहे हैं। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद एक विचित्र सी स्थिति विकसित हो रही है। चुनाव में भाजपा-जदयू का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और राजद-कांग्रेस-कम्युनिस्टों का महागठबंधन आमने -सामने था। नतीजों के बाद सरकार तो राजग की बनी, लेकिन विश्लेषकों ने इसे न किसी की जीत माना, न किसी की हार। महागठबंधन की हार ऐसी नहीं थीं, जिसे हार कही जाए और राजग की जीत भी जीत जैसी नहीं थीं। दोनों के बीच वोटों में केवल बारह हजार का फर्क था। चुनाव पूर्व वायदे के अनुसार भाजपा से बहुत कम सीटें आने के बाद भी नीतीश ही मुख्यमंत्री बनाए गए, लेकिन ऐसा लगा जैसे उनका राजनीतिक स्वत्व समाप्त हो गया हो। वह तीसरे स्थान की पार्टी के नेता हैं और भाजपा उनसे संख्या बल में बहुत आगे है।
ऐसा तब हुआ जब नीतीश की पार्टी ने भाजपा से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा था। 2014 के लोक सभा चुनाव में बुरी तरह हार के बाद नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद जीतनराम मांझी मुख्यमंत्री बनाए गए थे। इस बार चुनाव में अपेक्षित सीटें नहीं मिलने से क्षुब्ध नीतीश कुमार ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया। मुख्यमंत्री भी अनिच्छा से बने, ऐसा उन्होंने कहा। स्थितियां संकेत दे रही हैं, मुख्यमंत्री बने रहना उनके लिए बहुत सुखद नहीं है। कुल मिला कर यह कांटों का ताज पहनने जैसा है। रोज-रोज मुश्किलें खड़ी हो रही हैं। दो महीने से अधिक हो गए, लेकिन मंत्रिमंडल विस्तार अब तक नहीं हुआ है। इसे लेकर कहा जा रहा है कि अंदर-खाने में सब कुछ ठीक नहीं है। बिहार में 2005 से लेकर 2013 तक का राजनीतिक संघर्ष मुख्य रूप से लालू और नीतीश के बीच था, जिसमें भाजपा नीतीश का साथ दे रही थी, अथवा उसके पीछे खड़ी थी। नीतीश ने 2013 में भाजपा से नाता तोड़ा और स्वतंत्र रूप से राजनीति करने की कोशिश की, लेकिन जब विफलता हाथ लगी तब कुछ समय बाद अपने विरोधी लालू प्रसाद के साथ हो गए। फिर एक नाटकीय घटनाक्रम में उन्होंने लालू का साथ छोड़ भाजपा का साथ लिया। इस बार फिर भाजपा उनके पीछे खड़ी होने के लिए मजबूर हुई, लेकिन 2020 के चुनाव नतीजों ने भाजपा को जद (यू) के मुकाबले बहुत मजबूत बना दिया है। इसीलिए अब स्थितियां बदली-बदली नजर आ रही हैं। मुख्यमंत्री भले नीतीश हुए हैं, लेकिन वह राजनैतिक तौर पर भाजपा के पीछे खड़े नजर आ रहे हैं। सच कहा जाए तो बिहार में ‘डबल इंजन की सरकार’ नहीं ‘डबल सरकार’ चल रही है। भाजपा की भी राजनीतिक स्थिति सरकार बनाने लायक नहीं है।
फिलहाल उसकी मजबूरी है कि वह नीतीश के साथ खड़ी रहे। क्योंकि बिहार में अपनी भागीदारी वाली सरकार वह खोना नहीं चाहेगी। इसलिए मौजूदा सरकार के गिरने की मुझे कोई संभावना नहीं दिखती। संख्या बल में जो कमजोरी है, वह राजग की मजबूती बन सकती है। क्योंकि वह हमेशा सतर्क रहेगी, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि नीतीश की पार्टी के साथ भाजपा अनंत वर्षो तक चलना चाहेगी। उसकी कोशिश राजनीतिक तौर पर स्वावलम्बी बनने की होगी। इसलिए भाजपा की कोशिश होगी कि वह राजनीतिक संघर्ष में महागठबंधन के आमने-सामने हो और नीतीश उनके पीछे रहें अथवा केंद्र की राजनीति में शिफ्ट हो कर बिहार उनके लिए खाली कर दें। हां, वह नीतीश को किसी कीमत पर तेजस्वी के साथ नहीं होने देना चाहेगी। इसीलिए वह उनके समाजवादी स्वाभिमान को जगाने की हर कोशिश को विफल करना चाहेगी। बिहार की जो राजनीतिक जमीन है, उसमें समाजवादी एका का महत्त्व असंदिग्ध है। इसे भाजपा के रणनीतिकार अच्छी तरह समझते हैं। नीतीश इन तमाम स्थितियों को समझ रहे हैं। ऊपर से देखने पर वह तेजस्वी की राजनीति से जूझ रहे हैं, लेकिन वास्तविक तौर पर वह अपने ही गठबंधन राजग में भाजपा के साथ लड़ रहे हैं। उनकी लड़ाई अभी तो जाहिर नहीं हो रही है, लेकिन वह कभी भी सांप-नेवले की लड़ाई जैसी बन सकती है।
राजनीति में भाजपा का साथ तो उन्हें स्वीकार है, लेकिन वर्चस्व नहीं। भाजपा सधे कदमों से बढ़ रही है। वह नीतीश को फिलहाल छेड़छाड़ नहीं करने जा रही। नीतीश संभावित खतरों को समझ रहे हैं। संभवत: इसे भांपते हुए ही पिछले 24 जनवरी को कर्पूरी ठाकुर के जन्मदिन पर आयोजित एक जलसे में उन्होंने भावुक लहजे में कहा कि कर्पूरी ठाकुर को जिन शक्तियों ने अपदस्थ किया था, वे अभी भी सक्रिय हैं और उन्हें भी हटाया जा सकता है। शब्दों पर गौर करने की जरूरत है। उन्हें किन से भय लग रहा है? 1979 की जिस घटना का नीतीश उल्लेख कर रहे हैं, उसमें कर्पूरी ठाकुर को हटाने में मुख्य भूमिका जनता पार्टी के जनसंघ धड़े ने निभाई थी। उस जनसंघ का वर्तमान रूप भाजपा है, राष्ट्रीय जनता दल नहीं।
इसका अर्थ यही होगा कि नीतीश को खतरा अपने गठबंधन के भीतर से ही अनुभव हो रहा है। बहुत संभव कि ऐसा कह कर नीतीश अपने गठबंधन को ही धमकी दे रहे हों,और मोलभाव की राजनीति कर रहे हों, लेकिन यदि ऐसा नहीं हो रहा है और नीतीश अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं तो इसका मतलब है एनडीए में वैचारिक संघर्ष की शुरुआत हो चुकी है। कल राजद और कांग्रेस से जुड़े कुछ नेताओं को भाजपा ने जिस प्रचार के साथ अपनी पार्टी में शामिल कराया है, उसका प्रभाव भी नीतीश पर पड़ना स्वाभाविक है। भाजपा की कोशिश अपनी पार्टी को आत्मनिर्भर बनाना है। इसी उद्देश्य से दो उपमुख्यमंत्री उन्होंने पिछड़े वर्ग से बनाए हैं। इन सब का प्रभाव राजद की राजनीति पर उतना नहीं पड़ेगा ,जितना नीतीश की राजनीति पर। इसलिए कुल मिलाकर यही बात निकलती है कि भाजपा-जदयू गठबंधन में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। आग भीतर ही भीतर सुलग रही है।
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