ट्रैक्टर रैली : क्या गलती सिर्फ पुलिस की?
एक दुर्घटना हो जाने के बाद घर में रजाई में बैठकर उसका विश्लेषण करना बहुत आसान होता है, लेकिन भविष्य के लिए सबक लेने के लिए भूल कहां हुई, किससे हुई और इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा; इसका विश्लेषण जरूरी है।
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जहां तक 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली के दौरान किसान और पुलिस में हुई हिंसा और लालकिले पर झंडा फहराने की शर्मनाक घटनाओं की बात है; इसमें दो राय नहीं कि इससे देश शर्मसार हुआ है।
पिछले दो दिनों से अपने जान पहचान वाले सरकारी और कुछ पुराने पुलिसकर्मिंयों से बातचीत से मुझे बड़ी निराशा हुई क्योंकि अधिकतर लोगों का मानना था कि इन घटनाओं का ठीकरा दिल्ली पुलिस के सर पर फूटना चाहिए। मैं इससे कतई सहमत नहीं हूं। इसलिए नहीं कि मैं स्वयं दिल्ली पुलिस में लगभग तीन दशकों तक उच्च पदों पर रहा हूं या इसलिए कि पुलिस से सेवानिवृत्त होने के बाद भी मैंने दिल्ली को ही अपनी कर्मभूमि चुना। उस दिन की घटना के बारे में सिर्फ आधी-अधूरी जानकारी होने की वजह से ही आम लोगों में ऐसी धारणा बनना तो स्वाभाविक है, लेकिन हम जैसे लोग,जो इस सिस्टम को अच्छे से जानते हैं उन्हें थोड़ा गहराई से सोचना चाहिए। पहली बात ये कि इतना बड़ा फैसला दिल्ली के पुलिस कमिश्नर अपने आप तो नहीं ले सकते। उन्हें गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों से 26 जनवरी को किसानों की ट्रैक्टर रैली के लिए हरी झंडी जरूर मिली होगी।
कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि इस रैली के लिए जानबूझ कर इशारा किया गया क्योंकि वो चाहते थे कि यह सब हो, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मैं इस साजिश वाली कहानी को नहीं मानता। पर कड़वा सच ये भी है कि अगर गणतंत्र दिवस जैसे महत्त्वपूर्ण दिन पर जब पुलिस की आधी फोर्स जनपथ की परेड देखने आए हुए वीआइपी सुरक्षा में लगी है, जहां देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और विदेशों से आए मेहमान उपस्थित होते हैं; किसानों की ट्रैक्टर रैली की इजाजत दी गई है तो स्वाभाविक रूप से पुलिस इस फैसले में सबसे निचले पायदान पर होगी। 26 जनवरी की सुबह मैं जहांगीरपुरी की ‘प्रयास’ शाखा में था, जब बाहर से गड़बड़ी की खबरों के बाद हमें बच्चों के कार्यक्रम को बीच में रद्द करना पड़ा। इस घटना के बाद मुझे प्रेस के माध्यम से एक बात कहनी है। लगभग 2 महीनों से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों को सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक हटने को क्यों नहीं कहा। किसी भी वर्ग की जो भी समस्या हो, और समस्या किसको नहीं है, ये अधिकार नहीं होना चाहिए कि वो लोगों के रोज-रोज की दिनचर्या में व्यवधान उत्पन्न करे। अगर कुछ लोगों ने इस विषय में पीआईएल डाल कर न्यायालय से इतने लम्बे धरने की इजाजत मांगी भी तो न्यायालय को इस विषय से अपने को अलग कर लेना चाहिए था। हम शाहीन बाग का मामला पहले देख चुके हैं। समय आ गया है कि देश के प्रबुद्ध नागरिकों को अब ये फैसला करना चाहिए कि न्यायालय को कानून व्यवस्था के फैसलों में दखल नहीं देना चाहिए। कहावत है, ‘तुम्हारे हाथ की आजादी वहीं खत्म हो जाती है जहां से तक मेरी नाक शुरू होती है।’ जहां तक दिल्ली पुलिस की बात है; मैं इसके 1485 वर्ग किलोमीटर और 100 किलोमीटर की पड़ोसी राज्यों की सड़कों से और उनकी विभिन्न समस्याओं से अच्छे से वाकिफ हूं और दावे के साथ कह सकता हूं अगर 35000 ट्रैक्टर पर सवार दो लाख बेलगाम किसान जो 60 दिनों से अधिक समय से अपनी मांगों के समर्थन में धरने पर बैठे हैं; दिल्ली में घुसने की कोशिश करेंगे तो उनको रोकना असम्भव है। और विशेषकर ऐसे दिन जब पुलिस की आधी संख्या राजपथ पर लगी हो।
टीवी पर पुलिस और किसानों के बीच दिन भर चलती झड़प देख कर बहुत से लोग सोशल मीडिया पर लिख रहे थे कि पुलिस को उपद्रवियों को रोकने के लिए गोली चलानी चाहिए थी। पर पुलिस के उच्च पदस्थ अधिकारियों का कहना है कि अगर वो गोली चलाते भी तो कहां-कहां। इन अधिकारियों का ये भी कहना है किसानों ने उनके साथ वादाखिलाफी की और समझौते की 37 में से एक भी शर्त नहीं मानी। किसान कहते हैं कि उनके बहुत बड़े धड़े ने शांतिपूर्ण रैली निकाली, लेकिन उसकी सुर्खियां नहीं बनी। दूसरी ओर पुलिस का कहना है कि उस दिन उन्होंने लाल किले पर 300 बच्चों को बचाया जो गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम के लिए आए हुए थे। अब मीडिया क्या दिखाना चाहता है इसका फैसला तो वही करेगा, लेकिन इतना तो तय है सिर्फ पुलिस को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना नाइंसाफी होगी। ऊपर बैठे नीतिकारों में किसी-न-किसी को तो इस काले दिन के कृत्यों की जिम्मेदारी लेनी होगी।
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