बिहार : मुखौटे और कुर्सी की राजनीति
अब स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार नया इतिहास रचने जा रहे हैं।
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यह इतिहास इस तथ्य से संबंधित है कि बिहार में मुख्यमंत्री के रूप में सबसे अधिक दिन तक राज करने का रिकॉर्ड अभी तक पहले मुख्यमंत्री रहे श्रीकृष्ण सिंह के नाम है। अगले साल के मध्य में यह रिकॉर्ड नीतीश के नाम हो जाएगा। लेकिन बात केवल इतनी भर नहीं है। हाल के दिनों में नीतीश ने अपनी रणनीति में आमूल चूल बदलाव किए हैं। ये बदलाव इसलिए भी खास हैं कि बिहार में भाजपा मुखौटे की राजनीति कर रही है, और नीतीश को सत्ता प्यारी है। भाजपा भी जानती है कि बिना नीतीश के राजद को शिकस्त नहीं दे सकती और नीतीश भी जानते हैं कि बिना गठबंधन के सीएम नहीं रह सकते।
खैर! पहले बात तीन अहम बदलावों की कर लें। पहला बदलाव यह कि नीतीश ने अपनी पार्टी यानी जनता दल यूनाईटेड (जदयू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया और राज्य सभा सांसद, पूर्व नौकरशाह और स्वजातीय (कुर्मी, ओबीसी) आरसीपी सिंह को बागडोर सौंप दी। इससे यह संभावना खत्म हो गई कि जदयू के शीर्ष पर उच्च जाति के नेताओं का अधिकार होगा। दूसरा बदलाव है जदयू के प्रदेश अध्यक्ष पद पर राजपूत जाति के वशिष्ठ नारायण सिंह के बदले कुशवाहा (ओबीसी) जाति के उमेश कुशवाहा को स्थापित किया जाना। तीसरा बदलाव यह कि नीतीश ने सांसद दिलेर कामत को प्रदेशस्तरीय संसदीय समिति का अध्यक्ष बनाया है। कामत अति पिछड़ा जाति से आते हैं। ये सब बदलाव नीतीश ने पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में मिली जबरदस्त हार के बाद किए हैं। हार इसलिए कि विधानसभा चुनाव में जदयू को केवल 43 सीटें मिलीं और उसकी सहयोगी रही भाजपा को 74 सीटें।
अब इन तीन बदलावों से दो बातें साफ-साफ दिखती हैं। पहली तो यह कि नीतीश अब फिर से अपने जातिगत आधारों की ओर लौटना चाहते हैं। वापस 1990 के दौर में जाना चाहते हैं, जहां से उन्होंने अपनी शुरुआत की थी। तब लालू प्रसाद के खिलाफ उन्होंने ओबीसी की दो बड़ी जातियों कोईरी-कुर्मी के बीच अपना आधार बनाया था। दूसरी बात यह कि नीतीश अपनी इस छवि को तोड़ देना चाहते हैं कि सवर्णो के सहारे सियासत करते रहे हैं। दूसरे अथरे में कहें तो सवर्णो से उनका मोहभंग हो चुका है। इसके पीछे भी पिछले साल हुआ विधानसभा चुनाव ही है। जदयू को हार उन इलाकों में ही अधिक मिली जहां उच्च जाति के लोग दबंग हैं। मसलन, भोजपुर, मगध और सारण का इलाका जबकि नीतीश को उन इलाकों में अधिक लाभ हुआ जहां पिछड़ी जातियों के लोगों का राजनीतिक दबदबा है।
अब सवाल है कि नीतीश के मोहभंग की पृष्ठभूमि क्या है? इसका जवाब बिहार की चुनावी राजनीति का इतिहास देता है। दरअसल, 1994 में लालू प्रसाद से अलग होने के बाद वर्ष 1955 में नीतीश ने कुर्मी और कुशवाहा वोटरों के आधार पर चुनौती पेश की। इस चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लेकिन इस चुनाव से एक बात स्पष्ट हो गई थी कि कुर्मी और कुशवाहा लालू के आधार वोटरों के समुच्चय से बाहर हो गए थे। फिर चुनाव-दर-चुनाव इनके मतों का नीतीश के पक्ष में ध्रुवीकरण बढ़ता ही चला गया। सीएसडीएस के आंकड़े बताते हैं कि 1996 में जब लोक सभा के चुनाव हुए तब 69 फीसदी कुर्मी और कुशवाहा नीतीश के पक्ष में गए। वषर्1998 में जब फिर से लोक सभा चुनाव हुए तब बिहार के 75 फीसदी कुर्मी और कुशवाहा वोटरों ने भाजपा-जदयू को वोट दिया।
कालांतर में नीतीश के इस आधार वोट को नुकसान उपेंद्र कुशवाहा ने पहुंचाया। लेकिन इसकी भरपाई नीतीश ने बिहार में अति पिछड़ा आधारित राजनीति के जरिए कर ली। यह नीतीश की राजनीति का मास्टरस्ट्रोक रहा। दरअसल, नीतीश लालू प्रसाद की तरह ही बिहार के समाज की नब्ज समझते हैं। वे साफ मान चुके हैं कि सवर्ण तभी तक उनके साथ हैं जब तक कि वे भाजपा के साथ हैं। वर्ष 2014 के लोक सभा परिणाम के आंकड़े इसके सबूत हैं। तब नीतीश ने भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ा। हुआ यह कि इस चुनाव में जदयू को केवल दो सीटों पर जीत मिली। उसमें से भी एक नालंदा सीट पर जो नीतीश का गढ़ मानी जाती है। वोट प्रतिशत के हिसाब से बात करें तो इस चुनाव में जदयू को 15.8 प्रतिशत कम वोट मिले।
यह लोक सभा चुनाव एक तरह से नीतीश के लिए अल्टीमेटम था कि वे अकेले कुछ नहीं कर सकते। वर्ष 2015 का विधानसभा चुनाव उन्होंने राजद के नेतृत्व में लड़ा और परिणाम बदल गया। पराजित नीतीश एक साल बाद ही विजेता बनकर उभरे लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण वर्ष 2014 का एक आंकड़ा है, जिसे अब जाकर नीतीश ने समझा है। सीएसडीएस के मुताबिक वर्ष 2014 के लोक सभा चुनाव में कोईरी और कुर्मी जाति के केवल 30 फीसदी वोटरों ने नीतीश कुमार में विश्वास व्यक्त किया। शेष ने भाजपा गठबंधन को अपना वोट दिया। इसकी वजह भी यह रही कि तब भाजपा ने उपेंद्र कुशवाहा को अपने साथ रखा था।
कुल मिलाकर बिहार की चुनावी राजनीति का गणित नीतीश के पक्ष में नहीं है। इसके बावजूद कि वे भाजपा के रहमोकरम पर सरकार चला रहे हैं। इसकी कीमत भी उन्हें सूद समेत चुकानी पड़ रही है। इसका अनुमान इस मात्र से लगाया जा सकता है कि खुद को अंधविश्वासों से दूर रखने वाले नीतीश आजकल खरमास के बीतने का इंतजार कर रहे हैं। बताया जा रहा है कि वे अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करना चाहते हैं, और भाजपा की ओर से कई स्तरों पर दबाव बनाया जा रहा है। ऐसे ही दबाव की अभिव्यक्ति नीतीश ने तब की जब भाजपा की ओर से अचानक ही विजय कुमार सिन्हा को विधानसभा अध्यक्ष के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया।
बहरहाल, 2024 के पहले नीतीश कुमार अपनी राजनीति को चाक-चौबंद कर लेना चाहते हैं ताकि उनकी दावेदारी कमजोर न पड़े। यही वजह है कि वे एक बार फिर से गैर-यादव पिछड़ा और गैर-बनिया अति पिछड़ा को अपनी राजनीति के केंद्र में रख रहे हैं। वैसे, यह उनकी मजबूरी भी बन चुकी है। भाजपा ने इस बार उन्हें अपना मुखौटा बनाकर अति पिछड़ा मतदाताओं का समर्थन हासिल किया है। अब भाजपा से उन्हें अलग करना स्वयं नीतीश कुमार के लिए बहुत मुश्किल है।
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