राग-विराग : कला से ये कैसा अनुराग?
विख्यात गायिका गिरिजा देवी अक्सर एक संस्मरण सुनाया करती थीं। यह सन 1952 की बात होगी।
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सर्वपल्ली राधाकृष्णन, जो राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर रहे, के समक्ष उनका गायन था। गायन के लिए दस मिनट का समय निर्धारित किया गया था, लेकिन जब तय समय पूरा होने पर उन्होंने गाना बंद कर दिया तो उन्हें और गाते रहने को कहा गया। फिर गिरिजा देवी ने करीब आधे घंटे तक गायन किया और राधाकृष्णन जी उन्हें तल्लीन हो सुनते रहे। यह संगीत के प्रति, कला के प्रति आदर का प्रदर्शन था।
विख्यात तबला वादक पंडित किशन महाराज के अनुभव कुछ दूसरे तरह के थे। उन्होंने राजनेताओं से जुड़ी कुछ बातें एक साक्षात्कार में बताई थी। शायद 1962-63 की बात है। संपूर्णानंद तब राजस्थान के राज्यपाल थे और राजभवन में संगीत का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। जब महाराज वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कलाकारों के कार्यक्रम के लिए जमीन पर कालीन बिछी हुई है और दर्शकों के लिए कुर्सयिां और सोफा सेट लगे हुए हैं। किशन महाराज को ये बात बहुत नागवार गुजरी। वे लिफ्ट के पास पहुंच गए जहां से संपूर्णानंद को आना था। जैसे ही वे आए, महाराज ने उनसे कहा कि इस प्रकार की व्यवस्था संगीत का अपमान है।
यदि आप वास्तव में संगीत के आराधक हैं तो ये कुर्सयिां हटा दी जाए और दर्शक भी कलाकारों के समान जमीन पर ही बैठकर संगीत का आनंद लें। संपूर्णानंद को बात समझ में आ गई और उन्होंने तुरंत सभागार में जाकर कुर्सयिां और सोफे हटाने के निर्देश दिए। साथ ही यह भी कहा कि भविष्य में जब भी संगीत के कार्यक्रम राजभवन में आयोजित किए जाए तो सबके बैठने की व्यवस्था एक समान होनी चाहिए। महाराज ने ऐसा ही तब भी किया था, जब त्रिभुवन नारायण सिंह बंगाल के राज्यपाल थे और राजभवन में संगीत कार्यक्रम आयोजित था। वहां भी किशन महाराज ने दर्शकों के लिए लगीं कुर्सयिां हटा दी थीं तथा कलाकारों एवं दर्शकों के लिए बैठने की समान व्यवस्था कराई थी। संगीत को राज्याश्रय का सहारा तो मिला है, लेकिन ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं जब कलाकारों ने अपने स्वाभिमान के लिए इसकी परवाह नहीं है। कलाकार का अपमान उसकी कला का अपमान होता है। अवध के संगीतकार हैदरी खान का वह किस्सा तो मशहूर है ही, जब उसने बादशाह गाजीउद्दीन हैदर से कहा था कि अगर मैं मर गया तो फिर मुझ-सा दूसरा पैदा नहीं होगा, आपका क्या है आप मर गए तो दूसरा तुरंत बादशाह बन जाएगा।
इन बातों की याद पिछले दिनों ग्वालियर के तानसेन समारोह में हुई एक घटना के कारण हो आई। संगीत समारोह की दूसरी संगीत संध्या में कुछ ऐसा हुआ जो उन्हें रास नहीं आया जो संगीत और संगीतकारों के इस सम्मान की रक्षा के कायल हैं। हुआ ये कि इस संध्या में शास्त्रीय गायन अपने रंग में था, अचानक पता चला कि पूर्व केंद्रीय मंत्री, राज्य सभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का उद्बोधन होना है। गायन बीच में बंद करा दिया गया। अब यह समारोह प्रदेश सरकार, उसके विभिन्न संस्थानों और जिला प्रशासन के तत्वावधान में होता है। उद्बोधन के पूर्व उनके नाम के साथ कलानुरागी विशेषण का प्रयोग भी हुआ, लेकिन संगीत कार्यक्रम को इस प्रकार रोककर भाषण देना और तानपुरा को सितार कहने में कलानुराग तो दिखने से रहा। यहां यह भी विचार आया कि किशन महाराज या उनके जैसा कोई कलाकार मंच पर होता तो क्या वह संगीत में इस प्रकार का व्यवधान स्वीकार कर पाता? तानसेन को लेकर कई किस्से प्रचलित हैं। इन्हीं में से एक उनकी और बैजू की स्पर्धा और श्रेष्ठता को लेकर भी है। तानसेन अकबर के लिए गाते थे, इसलिए बैजू के मुकाबले वह अपने संगीत में कम असर ला सके।
अक्सर सरकारी स्तर पर आयोजित होने वाले संगीत समारोहों में इस प्रकार की स्थितियां उत्पन्न होती हैं। जगह-जगह होने वाले महोत्सवों के दौरान विशिष्ट अतिथियों की आवभगत में इस बात की परवाह नहीं की जाती है मंच पर चल रहे कार्यक्रम इससे किस प्रकार प्रभावित हो रहे हैं। बनारस के गंगा महोत्सव और लखनऊ महोत्सव के दौरान मुझे कई ऐसी घटनाओं की स्मृति भी है जब कुछ कलाकारों ने कार्यक्रम के दौरान दर्शक दीर्घा में चाय-जलपान के वितरण पर कड़ी आपत्ति जताई थी जिसके बाद उसे बंद कर दिया गया था। संगीतकार जब अपने कार्यक्रम की प्रस्तुति करता है, किसी राग के स्वरों को सजाता है या ताल-लय की कड़ियां सजाता है तो वह खुद एक यात्रा पर नहीं निकलता, अपने साथ उस कार्यक्रम को देख-सुन रहे श्रोताओं-दर्शकों को भी ले चलता है, लेकिन इस यात्रा पर चलने के लिए केवल कलाकार की साधना ही महत्वपूर्ण नहीं है, श्रोता की समझ और संवेदनशीलता भी जरूरी है। ऐसी घटनाओं से तो यही लगता है कि जैसे इस यात्रा पर उसके साथ चलना तो दूर, उसके पैर खींचकर उसे गिरा दिया गया हो।
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