संगीत : शाम-ए-अवध में शास्त्रीय संगीत की तलाश
हर शहर का अपना मिजाज होता है, इसलिए किसी की तुलना का कोई औचित्य तो नहीं, लेकिन बनारस से लखनऊ आने के बाद पिछले डेढ़ दशक से मुझे जो कमी सबसे अधिक खलने वाली लगी वह थी शास्त्रीय संगीत की महफिलों की है।
संगीत : शाम-ए-अवध में शास्त्रीय संगीत की तलाश |
हालांकि ये बात तो खुद प्रसिद्ध संतूर वादक शिवकुमार शर्मा ने बनारस के प्रसिद्ध संकटमोचन संगीत समारोह में एक बार कही थी कि हम देश भर के संगीत समारोहों में जाते हैं, लेकिन बनारस में जिस तरह शास्त्रीय संगीत के समारोह होते हैं और संगीत रसिक कई-कई रातों तक जागकर इनका आनंद लेते हैं, वैसा लगाव मैंने दूसरे नगरों में नहीं देखा। उन्होंने कहा था कि बनारस से बहुत करीब इलाहाबाद, कानपुर और लखनऊ जैसे नगर हैं, लेकिन वहां भी शास्त्रीय संगीत के प्रति ऐसा अनुराग नहीं दिखाई देता है।
लखनऊ संगीत और खासकर शास्त्रीय संगीत के काफी करीब रहा है। लखनऊ पर प्रसिद्ध पुस्तक ‘गुजिश्ता लखनऊ’ में एक किस्से का वर्णन मिलता है। बताते हैं कि लखनऊ में हैदरी खान नामक कलाकार थे। वह बादशाह गाजीउद्दीन हैदर का जमाना था। हैदरी गोलागंज में रहते थे और बहुत मशहूर थे। हैदर को यह पीड़ा थी कि इतना बड़ा संगीताचार्य मेरे राज में है, लेकिन कभी मुझे सुनाने नहीं आया। हैदरी एक रोज टहलने निकले तो बादशाह को लोगों ने खबर पहुंचाई और हैदरी को लाकर बादशाह के सामने खड़ा कर दिया। गाजीउद्दीन ने हैदरी से कहा कि कभी मुझे अपना गाना नहीं सुनाते तो हैदरी बोले कि सुना तो सकता हूं,, लेकिन मुझे यह नहीं मालूम कि आपका मकान कहां है। बादशाह हंसे और बोले कि चलो मैं तुम्हें अपना मकान दिखाता हूं। रास्ते में हैदरी ने यह भी इच्छा जताई कि पहुंचकर पूड़ी भी खाएंगे। गाना सुनाया तो बादशाह के हुक्के पर भी नजर पड़ी। गाना सुनकर बादशाह खुश हुए तो हैदरी को पूड़ी खिलाई गई और हुक्का पिलाया गया। हैदरी ने खुद भी पूड़ी खाई और बीबी के लिए भी भिजवा दी, लेकिन जब गाजीउद्दीन ने हैदरी से कहा कि तुमने मुझे खुश तो बहुत किया, लेकिन अब अपने गाने से मुझे रुलाकर दिखाओ। नहीं रु लाया तो याद रखना गोमती में डुबवा दूंगा। हैदरी की अक्ल ठिकाने आ गई, लेकिन गाने में जोर था और उनकी किस्मत भी कि गाना सुनकर बादशाह रोने लगे। इससे वे बहुत खुश हुए। बोले-हैदरी जो मांगना है मांग लो, दूंगा। हैदरी ने पूछा-दीजिएगा ना और तीन बार हामी भी भरवाई। जब बादशाह सहमत हो गए तो हैदरी बोले कि आप कभी मुझे मत बुलाइएगा और न ही गाना सुनिएगा। बादशाह बोले क्यों? हैदरी ने कहा कि क्योंकि अगर मैं मर गया तो फिर मुझ-सा हैदरी खान दूसरा पैदा नहीं होगा, आपका क्या है आप मर गए तो दूसरा तुरंत बादशाह बन जाएगा।
लखनऊ काफी पहले से संगीताचायरे का गढ़ रहा है। संगीताचार्य अपने आगे बादशाह को भी कुछ नहीं समझते थे। कथक के विकास में लखनऊ का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इलाहाबाद की हंडिया तहसील के पं. ईश्वरी प्रसाद के वंशज अवध के नवाबों के दरबार में पहुंचे। शुजाउद्दौला और उनके बाद आसिफउद्दौला एवं फिर नवाब सआदत अली खान के दरबार में इस नृत्य का काफी विकास हुआ। ईश्वरी प्रसाद के पौत्र प्रकाश, दयाल और हरिभान ने अवध के दरबार में इस नृत्य का प्रचार किया। प्रकाश जी के बेटे ठाकुर प्रसाद से वाजिद अली शाह ने कथक की शिक्षा ली थी। ठाकुर प्रसाद के भाई दुर्गाप्रसाद भी कुशल नर्तक थे, जिनके बेटे बिंदादीन महाराज और कालका महाराज और कालका महाराज के बेटे अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज हुए। अच्छन महाराज के बेटे बिरजू महाराज और शंभू महाराज के पुत्र राममोहन और कृष्णमोहन भी कथक के प्रमुख नर्तक हैं। इसी प्रकार तबले का भी लखनऊ घराना है और विद्वानों का यह भी मानना है कि बनारस और फरूखाबाद जैसे घराने लखनऊ घराने के कलाकारों के प्रयासों से ही शुरू हो सके। तबले के लखनऊ घराने के प्रचलन का श्रेय मोदू खान और बख्शू खान को जाता है। इतना ही नहीं संगीताचार्य विष्णु नारायण भातखण्डे ने जब विद्यालय स्थापित करने की सोची तो उन्होंने लखनऊ को चुना। डीम्ड विश्वविद्यालय का दरजा प्राप्त भातखंडे संगीत संस्थान शताब्दी के करीब है।
रातंजनकर, आबिद हुसैन, रहीमुद्दीन डागर, बेगम अख्तर, अहमद जान थिरकवा, वी.जी.जोग, विद्याधर व्यास, श्रुति सडोलीकर जैसे कलाकार यहां गुरु रहे हैं और विद्यार्थियों में तलत महमूद, अनूप जलोटा, दिलराज कौर, मालिनी अवस्थी जैसे नाम शामिल हैं। एक ऐसे नगर में महीनों बीत जाते हैं, जब शास्त्रीय संगीत की कोई महफिल नहीं सजती है। कोरोना संकट में तो वैसे ही कार्यक्रम बंद हो गए थे लेकिन जब होते थे तब भी शास्त्रीय संगीत के समारोहों की संख्या बहुत कम होती थी। हां, कथक के कार्यक्रम यहां जरूर हो जाते हैं, लेकिन शास्त्रीय संगीत के दूसरों कार्यक्रमों के लिए संगीत रसिक तरसते रह जाते हैं।
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