भारत-नेपाल संबंध : समयानुकूल था फैसला

Last Updated 08 Jan 2021 02:39:24 AM IST

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में बुद्ध की शिक्षाओं पर बात करते हुए बुद्ध और उनके शिष्य आनंद के बीच की घटना का वर्णन किया है।


भारत-नेपाल संबंध : समयानुकूल था फैसला

एक बार बुद्ध ने अपने हाथ में कुछ सूखी पत्तियां लेकर आनंद से पूछा कि हाथ की इन पत्तियों के अलावा क्या और भी कहीं पत्तियां हैं। आनंद ने जवाब दिया, ‘पतझड़ की पत्तियां सभी तरफ गिर रही हैं, और  इतनी हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती’। तब बुद्ध ने कहा, ‘इसी तरह मैंने तुम्हें मुट्ठी भर सत्य दिए हैं, लेकिन इनके अलावा कई हजार सत्य हैं, इतने कि उनकी गिनती नहीं हो सकती’। दरअसल, इतिहास में दफन घटनाओं को खोद कर बाहर लाने की किताबी कोशिशों से मुट्ठी भर घटनाओं का विश्लेषण तो किया जा सकता है लेकिन समय काल और परिस्थिति के अनुसार राष्ट्रीय मानस और उस पर आधारित तत्कालीन निर्णयों की दृष्टि का अंदाजा लगाना दुष्कर होता है। खासकर कूटनीतिक मामलों में रुको और देखो की दीर्घकालीन नीतियों को अच्छा नहीं समझा जाता। कोई भी राष्ट्रीय नेतृत्व राष्ट्रीय हित को सर्वोपरी रखकर समयानुकूल निर्णय लेने को बेहतर समझता है।
इस समय चर्चा में भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की ऑटोबायोग्राफी ‘द प्रेसिडेंशियल ईयर्स’ है। इसमें दावा किया गया है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू के सामने नेपाल के राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह ने अपने देश के भारत में विलय का प्रस्ताव था जिसे नेहरू ने स्वीकार नहीं किया। भारत की आजादी के समय त्रिभुवन बीर बिक्रम नेपाल के राजा थे और 1955 में मृत्यु तक इस पद पर बने रहे। कितान के दावे की सच्चाई को तलाशने का प्रयास इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि किसी राष्ट्र के हित उसकी कूटनीति में प्रतिबिम्बित होते हैं। दोनों देशों के बीच 1850 किमी. से अधिक लंबी साझा सीमा है, जिससे भारत के पांच राज्य सिक्किम, प. बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जुड़े हैं।

देखा गया था कि भारत को आजादी मिलने के समय नेपाल में भी लोकतंत्र स्थापित होने की बेकरारी देखी जा रही थी। 1950 में नेपाली कांग्रेस ने लोकतांत्रिक आंदोलन का नेतृत्व किया तो बड़ी संख्या में नेपाली जनता भी इस संघर्ष में शामिल हो गई। राणाओं  और राजा के बीच सत्ता और शक्ति संघर्ष का परिणाम हुआ कि भयभीत राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम और उनके बेटे महेन्द्र बीर बिक्रम शाह देव ने भारतीय दूतावास में शरण ली। विद्रोह को भारत के नेपाल से लगते सीमाई राज्यों से भी मदद मिल रही थी। नेहरू लोकतंत्र के बड़े समर्थक होकर भी फासिस्ट ताकतों की सर्वाधिकारवादी प्रवृत्ति के आलोचक भी थे। नेपाली कांग्रेस समाजवादी लोकतांत्रिक दल के रूप में पहचान बना चुका था। यह भारत की नीतियों के अनुकूल था। नेहरू के लिए लोकतांत्रिक सरकार को समर्थन करना लाजिमी था और राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम के लिए अपनी सुरक्षा। 17 मार्च, 1950 को नेहरू ने संसद में कहा था कि भारत तथा नेपाल के मध्य किसी तरह का कोई सामरिक संबंध नहीं है, किन्तु भारत नेपाल पर किसी भी आक्रमण को सहन नहीं करेगा क्योंकि नेपाल पर आक्रमण भारत की सुरक्षा के लिए निश्चित खतरा होगा।
जाहिर है कि नेहरू सौहार्दपूर्ण रिश्तों के बाद भी चीन पर ज्यादा भरोसा नहीं करते थे। भारत व चीन के बीच बफर राष्ट्र के रूप में नेपाल का स्थायित्व भारत के राष्ट्रीय हितों के लिए जरूरी समझा गया। नेहरू की नजर में नेपाल में राजतंत्र खत्म हो जाने से भारत के इस पड़ोसी देश में आंतरिक संघर्ष शुरू हो सकता था। नेपाल की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए सामरिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के लिए यह बेहतर स्थिति न होती। लिहाजा, भारत ने 1950 की मैत्री संधि के जरिए न केवल नेपाल की सुरक्षा सुनिश्चित की, बल्कि राजा त्रिभुवन की मदद भी की। इसके बाद नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र को बहाल किया गया।  यह वह समय था जब राजा त्रिभुवन के अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा था। ऐसे में भारत में नेपाल के विलय की पेशकश को मानना भारत की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए आत्मघाती कदम हो सकता था।  
किसी चूके हुए और अलोकप्रिय राजा के किसी राज्य की संप्रभुता को दांव पर लगाने के निर्णय का परिणाम जन विद्रोह के रूप में सामने आ सकता था। भारत के लिए इसे सम्हालना मुश्किल हो सकता था। लगता है कि नेहरू ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए न केवल नेपाल में राजनीतिक स्थिरता कायम करके वहां की जनता की संवेदनाओं को जीत लिया, बल्कि नेपाल की आर्थिक सहायता प्रदान करके चीन पर निर्णायक बढ़त हासिल कर ली। भारत और नेपाल के बीच 1950 की मैत्री संधि के अनुसार दोनों देशों की सीमा एक-दूसरे के नागरिकों के लिए खुली रहेगी। इस समय भी नेपाल और भारत के बीच बेरोकटोक आवागमन होता है। गौरतलब है कि नेपाल की राजनीति में 1950 से लेकर 1955 तक गहरा अस्थायित्व रहा।1951 में दिल्ली समझौते के बाद नेपाल में संयुक्त सरकार की स्थापना हुई। कुछ दिनों बाद राणाओं और नेपाली कांग्रेस में गहरे मतभेद पैदा हो गए। फिर नेपाल में सशत्र विद्रोह प्रारंभ हो गया था। उस समय देश में कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों का भी खासा प्रभाव था, भारत के किसी अप्रिय कूटनीतिक कदम से वहां की जनता भारत के खिलाफ लामबंद हो सकती थी और चीन मजबूत। भारत ने शुरू से ही नेपाल में लोकतंत्र को मजबूत करने की कोशिशें जारी रखीं, 1947 में नेपाल के प्रधानमंत्री की मांग पर भारत ने नेपाल में नया संविधान बनाने में सहायता की।
भारत की आजादी के आंदोलन में उपनिवेश और साम्राज्यवाद का विरोध केंद्र में रहा था। साम्राज्यवाद राज्य की ऐसी नीति है, जिसका उद्देश्य अपने राज्य की सीमाओं से बाहर रहने वाली ऐसी जनता पर नियंत्रण स्थापित करना होता है, जो सामान्य रूप से ऐसे नियंत्रण को स्वीकार करने के लिए अनिच्छुक है। क्या भारत किसी अलोकप्रिय राजा द्वारा अपने राज्य को भारत में मिलाने के फैसले को स्वीकार करने की गलती कर सकता था। नेपाल अब भी राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच झूलता नजर आता है। वहां आंतरिक अशांति बदस्तूर जारी है। शुक्र है कि नेहरू ने ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया जिसके दूरगामी परिणाम नव स्वतंत्र भारत की सुरक्षा और प्रगति के लिए नासूर बन जाते।

डॉ. ब्रह्मदीप अलुने


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