आर्थिक मॉडल : वोकल फॉर लोकल को साकार करता ओडीओपी

Last Updated 15 Dec 2020 01:44:16 AM IST

भारत ने विकासक्रम में अपनी संस्कृति और अध्यात्म की वृहत परंपरा का विकास तो किया ही, साथ ही ज्ञान, विज्ञान, कला तथा उद्यम की ऐसी शैलियों का निर्माण किया जो भारत की विशिष्ट पहचान बनीं।


आर्थिक मॉडल : वोकल फॉर लोकल को साकार करता ओडीओपी

इन शैलियों का उद्भव देशज था, लेकिन पहुंच राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय। इस निर्मिंत हुई अर्थव्यवस्था ने भारत में नगरीय क्रांतियों को संपन्न किया और गांवों को भी रिपब्लिक की हैसियत तक पहुंचाया। शायद यही वजह है कि विजेताओं ने उत्पादन की स्थानीय तकनीकों व शैलियों को नष्ट किया और भारत के गांवों को जीतने की निरंतर कोशिश की। अभी हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत के लिए ‘वोकल फॉर लोकल’ की अनिवार्यता पर बल दिया, तो अकस्मात इतिहास के पन्ने मस्तिष्क में पलटते चले गए और आने वाले समय में भारत की वही तस्वीर फिर आकार लेने लगी जिसके लिए महाकवि तुलसी कह रहे थे-‘निहं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, निहं कोउ अबुध न लच्छन हीना।’ आधुनिक आर्थिक शब्दावली में कहें तो सही अथरे में भारतीय अर्थव्यवस्था के सर्वसमावेशी विकास का मॉडल यही था और यही भारतीय हैपीनेस का आधार।

भारतीय इतिहास के पृष्ठों में प्राचीन  काल के आर्थिक ढांचे को झांक देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि उस दौर में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप सुनिश्चित न होने के बावजूद भारत की गिल्ड्स (शिल्प अथवा व्यावसायिक संघों या श्रेणियों) ने अपने कौशल, अपनी तकनीक और अपने उत्पादों के जरिए विदेशी बाजार में इतनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराई थी कि पश्चिम के व्यापारी और विचारक विलाप करने के लिए विवश हो गए थे। इस संदर्भ में एक और बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है, वह यह कि अपनी माटी, मां का दिया हुआ मोटा कपड़ा और मोटे अनाज की रोटी ने ही भारत को पूरी तरह से गुलाम नहीं होने दिया। आज की विव्यवस्था और बाजार की प्रतिस्पर्धा को देखते हुए यह आवश्यक हो चुका है कि देशज और पारंपरिक कलाओं, शिल्पों व उत्पादों को भारतीयों के सेंटीमेंट्स से जोड़ते हुए आधुनिक तकनीक व कौशल से संपन्न कर गुणवत्तापूर्ण प्रतिस्पर्धी बनाया जाए। यह भारत की मौलिक विशेषता के अनुकूल तो है ही, लेकिन कोविड 19 जैसी आपदा ने हमें यह सिखा दिया है कि इकोनॉमी का यह मॉडल भारतीय लोकजीवन के निकट होने के साथ-साथ आत्मनिर्भरता व खुशहाली की बुनियादी विशेषताओं से संपन्न भी। अहम बात यह है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इसे सबसे पहले समझा और 2018 में  यूपी दिवस के अवसर पर ‘वन डिस्ट्रिक्ट, वन प्रोडक्ट’ (ओडीओपी) कार्यक्रम के माध्यम से इस इकोनॉमिक मॉडल की आधारशिला रखी।
ओडीओपी कार्यक्रम क्लासिकल इकोनॉमी के चश्मे से देखने से भले ही कुछ खास न लगे, लेकिन यह भारत की पारंपरिक, सांस्कृतिक और देशज अर्थव्यवस्था की संवेदनशीलता से संपन्न और समावेशी विकास का महत्वपूर्ण कारक है। दरअसल, क्लासिकल इकोनामी प्राइस मैकेनिज्म पर चलती है, जहां मांग और पूर्ति की शक्तियां केवल लाभ के उद्देश्य से काम करती हैं; जबकि ओडीओपी का मूल सरोकार भारतीय सेंटीमेंट्स से है, इसके बाद पारंपरिक शिल्पों के पुनरुद्धार व संरक्षण के साथ-साथ मार्केट मैकेनिज्म की विशिष्टता। शायद इसे ही देखते हुए प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से दिए गए अपने भाषण में ओडीओपी को जगह दी। वित्त मंत्री ने इसे संघीय बजट में स्थान दिया और केन्द्रीय रेल एवं वाणिज्य व उद्योग मंत्री ने स्टेट मिनिस्टर्स के साथ बैठक में इस क्षेत्र में मिशन मोड में काम करने की सलाह दी। यानी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का ब्रेन चाइल्ड देश की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण कम्पोनेंट ही नहीं बनेगा, बल्कि ग्राम्य अर्थव्यवस्था में खुशहाली का मुख्य कारक भी बनेगा।  
अगर हम उत्तर प्रदेश की बात करें तो यह प्रदेश आबादी के लिहाज से यूरोप के कई विकसित देशों का संयुक्त रूप तो है ही, लेकिन भौगोलिक, सांस्कृतिक व एथनिक के साथ-साथ जियो-पॉलिटिकल दृष्टि से एक विशिष्ट पहचान रखता है। ये विशिष्टताएं अपनी परंपराओं, अपनी कलाओं, अपने शिल्पों, उत्पादों आदि के जरिए अपनी निरंतरता को बनाए रखने के साथ-साथ स्वयं को समृद्ध करती हैं। किसी भी राष्ट्र या उसकी राजनीतिक इकाई के विकास की पटकथा लिखते समय इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि ये लोकजीवन की समरसता और खुशहाली का मूलाधार होती हैं। तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि उत्तर प्रदेश सरकार का ओडीओपी कार्यक्रम आर्थिक समावेशिता के साथ-साथ रूरल प्रॉस्पैरिटी एवं ईज आफ लाइफ का आधार बन सकता है?    
इसमें कोई संशय नहीं कि ओडीओपी कार्यक्रम न केवल उत्तर प्रदेश की, बल्कि संपूर्ण भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्राम्य अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा दे सकता है। लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि ओडीओपी उत्पादों को मार्केट मैकेनिज्म से कनेक्ट किया जाए। इसके लिए फैसलिटेशन और मार्केटाइजेशन यानी डिजाइनिंग, पैकेजिंग, ब्रांडिंग की जरूरत होती है। इन सबके साथ ही एक जो और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इससे जुड़े प्रॉडक्ट्स को लोगों के सेंटीमेंट्स से जोड़ा जाए। जब कोई प्रॉडक्ट सेंटीमेंट्स के साथ जुड़ता है, तो उसकी मांग स्वत: स्फूर्त होती है। इस संदर्भ में हमें यूरोप से सीखने की जरूरत है, जहां इस तरह के प्रॉडक्ट्स को यूरोपीयों के सेंटीमेंट से जोड़ दिया जाता है। लेकिन इसके लिए प्वाइंट ऑफ टाइम की तलाश करनी होगी।
बाजार की प्रतियोगिता में दो फैक्टर और महत्वपूर्ण होते हैं। एक है ‘व्हाट टू प्रेजेंट’ और दूसरा है -‘हाउ टू प्रेजेंट’ (यानी बाजार में क्या पेश करें और कैसे)। इसमें पहला पक्ष ब्रांड की विविधता और उसकी क्वालिटी ऑफ स्टैंर्डड की बात करता है और बाजार में उतारने की रणनीति की बात करता है, जिसकी सेंटीमेंट्स के साथ कनेक्ट में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वैसे आज की बाजार अर्थव्यवस्था में ‘हाउ टू प्रोड्यूस’ उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि ‘हाउ टू प्रेजेंट’ है। इसलिए ब्रांड की डिजाइनिंग और मार्केटिंग बेहद निर्णायक चर बन जाते हैं। इन सभी पहलुओं पर उत्तर प्रदेश सरकार ने मिशन मोड पर काम किया है।  
कुल मिलाकर भारत की आत्मनिर्भरता के लिए वोकल फॉर लोकल एक निर्णायक चर है, जो अर्थव्यवस्था में एक संरचनागत परिवर्तन ला सकता है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विजन पर आधारित ओडीओपी कार्यक्रम प्रधानमंत्री के वोकल फॉर लोकल मंत्र पर पूरी तरह से खरा उतरता दिख रहा है।

डॉ. रहीस सिंह


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