मुद्दा : मंडी व्यवस्था पर राजनीति क्यों?
कृषि कानूनों पर जो बवाल हो रहा है, उसमें एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी संबंधी कानून को लेकर सबसे ज्यादा बवाल मचा हुआ है।
मुद्दा : मंडी व्यवस्था पर राजनीति क्यों? |
किसान और व्यापारियों को इन कानूनों से एपीएमसी मंडियां खत्म होने की आशंका है। कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, 2020 में कहा गया है कि किसान अब एपीएमसी मंडियों के बाहर किसी को भी अपनी उपज बेच सकता है, जिस पर कोई शुल्क नहीं लगेगा, जबकि एपीएमसी मंडियों में कृषि उत्पादों की खरीद पर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग मंडी शुल्क व अन्य उपकर हैं। इसके चलते आढ़तियों और मंडी के कारोबारियों को डर है कि जब मंडी के बाहर बिना शुल्क का कारोबार होगा, तो कोई मंडी आना नहीं चाहेगा। यूं कहें मोदी सरकार ने राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही इन मंडियों के एकाधिकार को समाप्त कर दिया है। अभी तक मंडी में किसान से अनाज की खरीद पर व्यापारी को 6 से 8 प्रतिशत का टैक्स देना होता था। हालांकि केंद्र सरकार कह रही है कि हम मंडियों में सुधार के लिए यह कानून लेकर आए हैं, लेकिन सच तो यह है कि कानून में कहीं भी मंडियों की समस्याओं के सुधार का जिक्र नहीं है।
भारत में दशकों से कृषि उत्पाद बाजार समिति कानून यानी एपीएमसी एक्ट के तहत बनी मंडियों के द्वारा कृषि उत्पादों की बिक्री का विनियमन होता आया है। इस मॉडल में कई त्रुटियां भी हैं और इन्हें दूर करने के लिए कई तरह के सुधारों पर चर्चा बीते कई सालों से हो रही है। पर आज तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। गौर करने वाली बात यह है कि सभी एपीएमसी मंडियों के चेयरमैन सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के होते हैं। इसके अलावा मंडियों में बिचौलियों का कब्जा है। पंजाब और हरियाणा में एपीएमसी मंडियों का नेटवर्क मजबूत है। दूसरी चिंता नए कानून से जो पैदा हुई है, वह आढ़तियों की है। पंजाब में ही 28,000 से ज्यादा आढ़ती हैं। इन्हें लाभकारी मूल्य के ऊपर 2.5 प्रतिशत का कमीशन मिलता है। पंजाब और हरियाणा में इस कमीशन से इन आढ़तियों ने पिछले वर्ष 2000 करोड़ रु पये कमाएं हैं। अक्सर धनी किसान व कुलक ही आढ़ती व मध्यस्थ व्यापारी की भूमिका में होते हैं, सूदखोर की भूमिका में भी होते हैं और निम्न मंझोले एवं गरीब किसानों से लाभकारी मूल्य से काफी कम दाम पर उत्पाद खरीदते हैं और उसे लाभकारी मूल्य पर बेचकर एवं साथ ही कमीशन के जरिये मुनाफा कमाते हैं। इसके अलावा राज्य सरकारों को भी एपीएमसी मंडी में होने वाली बिकवाली पर कर प्राप्त हैं। ऐसे में अगर मोदी सरकार सचमुच किसानों की आय दोगुनी करने की बात सोच रही है, तो उन्हें बिचौलियों को खत्म करना होगा। इसके लिए मंडियों में आधी दुकानें किसान संगठनों को आवंटित होनी चाहिए। ऐसे किसान संगठन जो रजिस्र्टड हैं, इससे मंडी में अपने उत्पाद आसानी से बेच पाएंगे।
मौजूदा समय में देश भर में 7,600 एपीएमसी मंडियां हैं। इन मंडियों की स्थापना तो किसानों के भले के लिए की गई थी, लेकिन धीरे-धीरे इन पर व्यापारियों का कब्जा हो गया। व्यापारी आपस में मिलकर ऐसा दाम तय करते हैं, जिससे उन्हें लाभ होता है और किसानों को नुकसान। लेकिन किसान के पास कोई और विकल्प नहीं होता, इसीलिए वो मजबूरी में इन्हीं दामों पर अपने उत्पाद बेच कर नुकसान उठा कर घर चला जाता है। ये भी आरोप लगते हैं कि इन मंडियों में भारी भ्रष्टाचार होता है और व्यापारी मंडियों को देने वाले टैक्स की चोरी भी करते हैं। केंद्र सरकार के नए कानून के पीछे सरकारों का दावा है कि इनसे अब कहीं का भी किसान किसी भी राज्य के किसी भी जिले में अपने उत्पाद बेच पाएगा। इससे कृषि व्यापार में पारदर्शिता आएगी, किसान को सही दाम मिलेगा और व्यापारी को भी लाभ होगा। लेकिन ऐसा होने की उम्मीद नजर नहीं आती।
एपीएमसी कानून के तहत राज्य सरकार जो भी चार्ज या सेस तय करे, उसे अंतत: भरते हैं किसान ही। स्थिति तो यहां तक बदतर है कि सरकारी खरीद में भी 2.5 फीसदी का आढ़तिया चार्ज फिक्स है। मंडी में जो भी उत्पाद बिकते हैं, किसानों से पहले उत्पाद आढ़तिये खरीदते हैं। सरकार को भी गेहूं या धान खरीदना हो तो पहले किसानों से यह आढ़तिया खरीदेंगे, उसके बाद और उससे एफसीआई। आढ़तिया ऐसे ही मनमानी नहीं करते। इन्हें राजनेताओं का संरक्षण मिलता रहा है। इस वजह से न तो किसानों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य मिला और न ही उपभोक्ताओं को कोई लाभ हुआ। बहरहाल, ज्यादातर किसान इस बात से सहमत होंगे कि एपीएमसी की मंडियों का राजनीतिकरण हो चुका है और उनमें सुधार की सख्त जरूरत है।
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