मीडिया : मीडिया मरीचिका
जब तक टीवी में आप दिखते हैं तब तक बिकते हैं, जिस दिन नहीं दिखते उस दिन नहीं बिकते। उस दिन कोई नहीं पूछता।
मीडिया : मीडिया मरीचिका |
पहले आप धरना-प्रदर्शन का सीन बनाते हैं, फिर उसे टीवी बनाने लगता है और फिर आप भी उसे टीवी के लिए बनाने लगते हैं और टीवी में आकर यह धरना एक ‘शो’ बन जाता है और ‘शो’ होते ही धरना कम रह जाता है ‘शो’ अधिक हो जाता है। यही हो रहा है और यह सब किसानों के हितों के विपरीत जा रहा लगता है। रविवार के लिए दिल्ली के घेराव के लिए आते हजारों ट्रैक्टर-ट्रॉलियों का दृश्य ऐसा लगता है, जैसे कोई ‘सेना’ आ रही हो। इससे डर फैलता है। जिससे डर फैलता है, वह अपनी जनतांत्रिक ताकत खो बैठता है। हमारे कहने का मतलब यह नहीं कि किसान ऐसा डर फैलाना चाहते हैं। हम सिर्फ इतना कह रहे हैं कि टीवी के लांग शॉट में सड़क भरकर आते हजारों वाहन ऐसा उल्टा प्रभाव पैदा करते हैं। इससे किसानों के प्रति अब तक पैदा हुई हमदर्दी की भावना बिखर सकती है।
यह पहला अवसर नहीं है, जब मीडिया किसी जन-आंदोलन को दिखा रहा है। जब से ‘चौबीस बाई सात’ का मीडिया आया है, तब से हर आंदोलन दिन-रात का शो बना है। काफी पहले हमने ‘अन्ना आंदोलन’ को देखा, फिर ‘बाबा रामदेव का आंदोलन’ देखा। ये दोनों आंदोलन जितने जमीन पर थे, उससे अधिक ‘मीडियामेड’ थे। अन्ना आंदोलन को तो निश्चय ही एक बेहद दोस्ताना मीडिया मिला था। फिर भी ये आंदोलन अपनी सीमा समझ सकते थे। कब तक आंदोलन करना है कब वापस ले लेना है, वे जानते थे। फिर भी रामदेव से कुछ गलती हुई, जबकि अन्ना ने वक्त पर समझौता करके समझदारी बरती। उसके सलाहकार समझदार थे।
टीवी एक छलिया माध्यम है। उसमें आते ही आंदोलन किसी ‘सीरियल’ की तरह बनने लगते हैं और इसीलिए हर सीरियल की तरह ही आंदोलनों का भी ‘आदि, मध्य और अंत’ होता है। जो अपने ‘आदि मघ्य अंत’ को समझ जाता है, वह उजड़ने से ‘सुखांत’ को प्राप्त होता है। जो ऐसा नहीं करता, तो वह ‘दु:खांत’ को प्राप्त होता है। पिछले दिनों वाला ‘शाहीन बाग धरना’ भी इसी दुखांत को प्राप्त हुआ है, क्योंकि वक्त रहते शाहीन बाग वालों ने अपना हठ न छोड़ा और अपने दु:खांत को निमंत्रित किया।
किसानों का ‘हठ’ भी उनको इसी रास्ते ले जाता लगता है! किसानों का यह आंदोलन भी जितना जमीन पर है, उससे अधिक मीडिया में है। जमीन का आंदोलन कष्ट साध्य होता है, जबकि टीवी में दिखाया जाता आंदोलन उस कष्ट को भी एक ‘शो’ में बदल देता है और ‘शो’ बनते ही कोई भी आंदोलन अपने मानी खोने लगता है। मीडिया का ‘हाइप’ यही करता है। वह उसको उसकी जड़ से काट देता है। यही होने लगा है। मीडिया की शुरुआती सहानुभूति किसानों के हठ के चलते कम होती दिखती है और अगर एक बार ये कम हुई तो फिर उसके मानी वे नहीं रह जाने हैं जिनके भरोसे उनके नेता उनको भरमाए हुए हैं और जिद ठाने हुए हैं।
मीडिया किसी का सगा नहीं होता और अगर सगा होता भी है तो सत्ता का सगा होता है। इसीलिए उसे सत्ता का ‘चौथा पाया’ माना जाता है। जब तक वह साथ है तब तक सब ठीक है, लेकिन अगर उसकी नजर फिरी तो आंदोलन खबर बनने तक को तरस जाएगा। पिछले एक दिन ऐसा हो भी चुका है! और मीडिया अपने सुर बदलने भी लगा है। इन दिनों एक से एक मंत्री आरोप लगाने लगे हैं कि आंदोलन को ‘अल्ट्रा लेफ्ट’ व ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ ने ‘हाइजेक’ कर लिया है। इससे आंदोलन रक्षात्मक हुआ है! इसलिए अपने धरने की कीर्ति पर इतराने की जगह किसानों को ‘मीडिया मरीचिका’ से बाहर आना चाहिए और इस कटु सत्य को जानना चाहिए कि दुनिया में किसानों ने कभी कहीं क्रांति नहीं की है, क्योंकि किसान कोई ‘क्रांतिकारी वर्ग’ नहीं होता और इस ‘उत्तर मार्क्सवादी’ समय में तो मजदूर वर्ग तक क्रांतिकारी नहीं दिखता। ‘ट्रेड यूनियनिज्म’ का इतिहास यही सुझाता है कि फिलहाल जो मिल रहा है, उसे ले लें और आगे की सोचें। हमारे जैसा किसानों का हमदर्द मानता है कि मीडिया की बनाई ‘रोमांटिक छवि’ से बाहर निकलकर किसानों को कुछ ‘प्रैक्टीकल’ होना चाहिए और समझना चाहिए कि कोई भी संप्रभु सरकार अपने बनाए कानून वापस नहीं लिया करती। तिस पर बहुमतवाली मोदी की सरकार! ये वापस लिया, तो फिर देश पर शासन कर लिया! मीडिया कहने भी लगा है कि सिर्फ दो राज्यों के किसान आंदोलन पर हैं, बाकी के तो नहीं हैं और सच में नहीं हैं! अगर मीडिया ने अपने तेवर बदले और आंदोलन को अटैक करना शुरू किया या ‘ब्लैक आउट’ करना ही शुरू कर दिया, तो आंदोलन कहां होगा?
| Tweet |