अतीत से : किसान आंदोलन और गांधी की सीख

Last Updated 13 Dec 2020 12:48:54 AM IST

सरकार की किसी नीति के विरोध में धरना, प्रदर्शन, हड़ताल और सत्याग्रह के बावजूद बातचीत के जरिए किसी भी समस्या के समाधान की कोशिश किसी जीवंत लोकतंत्र की खूबसूरती होती है।


अतीत से : किसान आंदोलन और गांधी की सीख

कृषि सुधारों की बाबत सरकार के तीन कानूनों के विरोध में किसानों के दो हफ्ते से ज्यादा समय से चल रहे धरने से अब तक तो ऐसा माहौल बनता नहीं दिख रहा है। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के पूरे होने और उनके सत्याग्रह आंदोलन से इतना सबक तो हम सीख ही सकते हैं कि सत्याग्रह की पहली शर्त होती है कि अपने विरोधी पर भी भरोसा करना। दक्षिण अफ्रीका में सभी स्त्री-पुरु षों ने सत्याग्रह आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और तमाम कष्ट सहन करने के बाद भी पीछे इसलिए नहीं हटे, क्योंकि उन्हें गांधी के नेतृत्व पर पूरा भरोसा था। पर आज ऐसे किसी भी आंदोलन के वक्त गांधी जैसे भरोसेमंद और दूर दृष्टि वाले नेतृत्व की कमी महसूस की जा रही है। भारत आगमन के बाद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना समारोह के अपने पहले  सार्वजनिक भाषण में महात्मा गांधी किसानों की समस्याओं से अपने को सम्बद्ध करते हुए वायसराय हार्डिंग की मौजूदगी में यह सवाल पूछते हैं कि यदि हम किसानों के परिश्रम की कमाई किसी और को उठा कर ले जाने दें, तो कैसे कहेंगे कि हममें स्वराज की भावना है। लगभग यही आवाज आज किसानों के आंदोलन से निकल रही है कि खेती-किसानी अगर निजी हाथों के हवाले हो जाएगी, तो उपज की गुणवत्ता में मनमानी खोट निकालकर निजी कंपनियां औने-पौने दाम पर किसानों को अपनी उपज बेचने पर मजबूर कर सकती हैं। जाहिर है तब निरीह किसानों के पास सुरक्षा कवच का कोई इंतजाम नहीं होने से वे मजबूरीवश मजबूत कंपनियों के आसान निवाले बन जाएंगे।

अभी तक हर सरकार किसान हित की बात करती रही है। पर यह भी एक सच्चाई है कि बार-बार किसानों के हाथ असफलता ही लगी है। इस वजह से किसानों के मन में सरकार की नीयत पर पहले आशंका पैदा होती है, फिर यह अराजकता में तब्दील हो जाती है। अभी तक गनीमत है कि मौजूदा किसान आंदोलन अराजक नहीं हुआ है। किसानों की आशंकाएं जायज भी हैं, क्योंकि ज्यादातर सरकारों ने किसानों से वादा खिलाफी ही की हैं। हालांकि केंद्र सरकार अपनी ओर से बातचीत की पेशकश कर रही है, पर किसान नेतृत्व अपनी जिद पर कायम हैं। मतलब किसान नेतृत्व यूं ही अपनी जिद पर कायम रहा, तो इसका संदेश गलत जाएगा। कहा जाएगा कि ऐसे धरने-प्रदर्शन का एकमात्र मकसद मोदी सरकार के हर तरह के सुधारात्मक नीतियों का विरोध है। कहना न होगा कि ऐसे विरोध से मोदी सरकार को राजनीतिक लिहाज से फायदा ही हुआ है।
गनीमत है कि मौजूदा किसान आक्रोश अभी उस हद तक नहीं पहुंचा है। पर किसानों से भी यह उम्मीद है कि वे बातचीत के रास्ते बिल्कुल बंद न करें। इस सरकार से भी उम्मीद है कि ऐसे बुरे वक्त जब कोरोना महामारी दिल्ली के सर चढ़कर दस्तक दे रही है, सरकार सामाजिक दूरी बनाए रखने के उल्लंघन का हवाला देकर किसानों पर दमन का रुख अख्तियार न करे। महात्मा गांधी की सिखवान से हम जानते हैं कि किसान किसी की तलवार के वश में कभी नहीं हुए और कभी होंगे भी नहीं। इतिहास का भी सबक है कि किसानों की सभी समस्याओं का एकमुश्त सार्वकालिक, सार्वभौमिक समाधान नहीं हो सकता है। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका के बाद भारत में चंपारण में निलहों के अत्याचार के विरु द्ध अपने सफल सत्याग्रह की इबारत इतिहास में दर्ज कर रहे थे, उधर खेड़ा किसानों के आंदोलनों के नेतृत्व करने के आमंतण्रआने लगे। लगभग आज जैसी परिस्थिति थी। किसान अकाल के अलावा प्लेग महामारी और महंगाई से भी परेशान थे। किसानों की फसल बर्बाद हो गई थी। परंपरानुसार जिस साल चार आने से कम फसल आती थी, उस साल किसानों के लगान माफ कर दिए जाते थे। पर तमाम आवेदनों, प्रतिवेदनों के बावजूद सरकारी मुलाजिम अपने अड़ियल रु ख पर कायम रहे। महात्मा गांधी और वल्लभभाई पटेल गांव-गांव जाकर किसानों को लगान न देने और परिणाम भुगतने का शपथ पत्र भरवा रहे थे। बता रहे थे कि सरकारी अधिकारी उनके नौकर हैं, मालिक नहीं। साथ ही किसानों को निर्भय और विनयशील होने का भी पाठ पढ़ा रहे थे। सरकार की ओर से पेशकश की गई कि जो समर्थ लोग हैं, वे लगान अदा करें तो बाकी लोगों का लगान माफ कर दिया जाएगा। गांधी जी की मध्यस्थता में कलेक्टर से समझौता हुआ। पर किसानों की सब मांगें पूरी नहीं हुई। इससे इतना जरूर हुआ कि गुजरात के किसान अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुए। मौजूदा किसान आंदोलन से भी कम से कम इतनी चेतना जागृत हो चुकी है कि कोई सरकार अब उनके मांगों को दरकिनार नहीं कर सकती, बिल्कुल आंख बंद कर मनमाने तरीके से फैसला ले लेने का दुस्साहस भी नहीं कर सकती। किसानों के जरूरी सवाल किसी भी सरकार की नजरों से ओझल नहीं हो सकते।

मोहन सिंह


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