बिहार : पाटलिपुत्र में गहराती रात

Last Updated 10 Dec 2020 02:00:45 AM IST

प्राय: देखा गया है कि हर चुनाव के बाद कोहराम सामान्यतया विपक्ष के बीच उभरता है और हार के लिए लोग एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं।


बिहार : पाटलिपुत्र में गहराती रात

लेकिन बिहार में इस दफा ऐसा नहीं हुआ। सरकार बनने के बाद विपक्ष में कोई खास खलबली नहीं हुई। आपसी नोकझोंक तो न के बराबर हुई। गठबंधन में कांग्रेस को अधिक सीट  दिए जाने और उसके कम सीटें जीत पाने को  लेकर चर्चा जरूर उठी लेकिन जल्दी ही थम गई। सब मिला कर महागठबंधन नामक खेमे में पराजय को लेकर कोई हताशा नहीं थी, बल्कि हताशा एनडीए में थी, जो फिर से सरकार बनाने में सफल रहा। मौजूदा हाल तो यही है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बन गई है, और बिहार विधानमंडल का एक सत्र भी संपन्न हो गया है। बावजूद इसके बिहार में रोज-रोज राजनीतिक कयासों का बाजार गर्म है।  
जनसामान्य में यह बात गहरे जम गई है कि यह स्थिर सरकार नहीं है। जनभावनाओं का निर्माण यूं ही नहीं होता। उसकी  पृष्ठभूमि होती है, कारण होते हैं। मौजूदा कयासों के कारण स्पष्ट हैं। प्रथम तो यह कि चुनाव नतीजों का कुल योग यह है कि एनडीए और महागठबंधन को प्राप्त मतों में केवल 12270  ( 0. 2 फीसद) यानी बाल बराबर का अंतर है। दूसरा कि भाजपा और जेडीयू के कुल विधायकों का योग 117 है यानी बहुमत से पांच कम। सरकार जिन आठ मतों के आधार पर टिकी हुई है, वे हैं दो छोटे-छोटे दलों के चार-चार विधायक, जो कुछ समय पूर्व तक महागठबंधन के हिस्सा थे। समझना मुश्किल नहीं है कि इन दोनों ने जिस रोज ठान लिया, उस  रोज सरकार अल्पमत में आ जाएगी यानी सरकार की जान आठ विधायकों के कोटर में बंद है। इसका टिकना-गिरना इन्हीं आठ पर निर्भर है। ऐसे कामचलाऊ बहुमत की सरकार को जनता यदि अस्थिर या कामचलाऊ मान कर चल रही है, तब शायद वह गलत भी नहीं है।

कोई कह सकता है कि चुनाव पूर्व भी एनडीए सरकार इतने ही बहुमत पर थी। नीतीश के पास केवल 126 का आंकड़ा था। 117 विपक्ष के पास थे। मात्र नौ मतों का अंतर तब भी था। इस बार भी कमोबेश वही आंकड़ा है। ओवैसी की पार्टी के पांच विधायकों के साथ विपक्ष के पास 115 की संख्या है। इसके अलावा, लोजपा, बसपा और निर्दलीय एक-एक विधायक हैं। लेकिन चुनाव पूर्व की स्थिति आज से भिन्न इसलिए कही जाएगी कि तब 126 की संख्या केवल दो पार्टयिों की थी-जेडीयू और भाजपा की। और यह स्थिति चुनाव से नहीं, चुनाव बाद हुए राजनीतिक पालाबदल से हुई थी।
2015 के चुनाव में जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया था। उस  समय  पक्ष  और  विपक्ष  के बीच 120 सीटों का फासला था। इस दफा का जनादेश संयोग अथवा किस्मत से मिला हुआ मामूली बहुमत प्रतीत होता है। कोई भी इस पर उंगली उठा सकता है और अनिश्चितता तो हर किसी के मन में है। उनके भी जो सरकार चला रहे हैं। इसीलिए इस बार मुख्यमंत्री बन कर भी नीतीश राजनीति के नायक की तरह रेखांकित नहीं किए गए। वह स्वयं भी बहुत कम सीटें और वोट मिलने के कारणों का विश्लेषण कर ही रहे होंगे। जैसी कि खबरें मिल रही हैं, उन्होंने अपनी तरफ से अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने की कवायद भी शुरू कर दी है। इसे लेकर भी कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।  
इन सब के अलग भी कई चीजों की चर्चा है। रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा, जिसका नेतृत्व अब चिराग पासवान कर रहे हैं, पराजित हो कर भी चर्चा में है। लोगों ने मान  लिया है कि भाजपा और जेडीयू की सीटों में इतना बड़ा अंतर केवल लोजपा के कारण हुआ। उसने जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार दिए थे लेकिन भाजपा के खिलाफ नहीं। हार के कारण कुछ दूसरे भी हो सकते हैं, लेकिन नीतीश और उनके पराजित उम्मीदवारों के पास यह कहने के लिए है कि वे लोजपा के कारण हारे। जेडीयू के पराजित उम्मीदवारों की एक बैठक के बाद यही समवेत स्वर उभर कर आया भी। ऐसे में यह लोजपा जेडीयू को फूटी आंख सुहाती नहीं, लेकिन क्या भाजपा की तरफ से भी ऐसा ही रुख है ? दो रोज पहले बिहार सरकार के एक भाजपाई मंत्री ने स्पष्ट  किया कि लोजपा के साथ हमारी पार्टी के संबंध हैं, और रहेंगे। उन्होंने लोजपा को एनडीए का हिस्सा बतलाया। भाजपाई  मंत्री का बयान बहुत कुछ स्पष्ट करता है, लेकिन सबसे अधिक स्पष्ट करता है नीतीश की राजनीतिक हैसियत। नीतीश आज मुख्यमंत्री भले ही हैं, लेकिन साफ पता चलता है कि एनडीए में उनकी अकड़ और पकड़ कमजोर हो गई है। कायदे से आज वह विवश विक्रमादित्य अथवा ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर के मुगल बादशाह जैसी स्थिति में आ गए हैं। क्या नीतीश ऐसे ही अंदाज के मुख्यमंत्री बहुत समय तक रह जाएंगे? क्या नीतीश को यह अनुकंपा वाली राजनीतिक स्थिति मंजूर होगी? क्या आज वह अपने महागठबंधन (नवम्बर 2015-जुलाई, 17) से  अधिक बदतर स्थिति में नहीं आ गए हैं? मुख्यमंत्री तो वह तब भी थे।  पाटलिपुत्र के राजनीतिक गलियारों में इसी तरह के अनेक सवाल गूंज रहे हैं।  
नीतीश स्थितियों का आकलन नहीं कर रहे हैं, ऐसा नहीं है। जैसे ही उनके चहेते उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को बिहार की राजनीति से हटाया गया, उन्होंने संभवत: समझ लिया होगा कि भाजपा अब उनकी मर्जी से नहीं चलेगी और यह भी कि उनके लिए आंतरिक मुश्किलें आने ही वाली हैं। नीतीश और सुशील मोदी के बीच समझ की एक केमिस्ट्री विकसित हो चुकी थी। दोनों जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े हुए थे और उनके बीच दोस्ताना था। यह भी कि सुशील में भाजपाई कट्टरता बिल्कुल नहीं है, और वह हर तरह से संकटमोचक रहे हैं। इसलिए दोनों मिल कर सरकार चलाने में सहज थे। सुशील मोदी के रहते भाजपा के किसी मंत्री ने ऐसा कभी कुछ नहीं कहा, जिससे विवाद सृजित हो। लेकिन सुशील के जाते ही स्थितियां बदल गई। ऐसे  में नीतीश के लिए सरकार चलाना आसान नहीं होगा। जैसे लोजपा के मुद्दे पर नोक-झोंक की पूरी संभावना होगी। लोजपा बिहार की ही पार्टी है। बिहार एनडीए में लोजपा और नीतीश का एक साथ होना क्या संभव होगा? ऐसे में दो ही स्थिति बन सकती हैं। प्रथम, नीतीश किसी रोज गुस्से में, जिसके दौरे उन पर इन  दिनों कुछ अधिक आने लगे हैं, एनडीए से बाहर हो  जाएंगे या यह भी  कि भाजपा जेडीयू के बीच कोई मीरजाफर पैदा कर दे। ऐसा नहीं प्रतीत होता कि नीतीश की नजर में यह सब नहीं है। समाजवादियों के लिए एक कहावत है कि वे चार रोज साथ नहीं रह सकते और आठ रोज अलग नहीं।

प्रेमकुमार मणि


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