महिला प्रतिनिधित्व : संस्थाओं में सुधार जरूरी
एक दस्तावेज के रूप में भारत का संविधान न केवल देश के प्रबंधन व प्रशासन के लिए कानूनी आधार प्रदान करता है, बल्कि इसमें वर्णित सिद्धांतों के कार्यान्वयन के लिए संस्थानों की स्थापना भी करता है।
महिला प्रतिनिधित्व : संस्थाओं में सुधार जरूरी |
भारत में ये संस्थान: विधानमंडल, न्यायपालिका और कार्यपालिका हैं। विधायिका को कानून बनाने का अधिकार है, न्यायपालिका को न्याय देने का काम सौंपा गया है, और प्रशासन कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार होता है। तीनों का उद्देश्य संविधान के मूल सिद्धांतों की रक्षा करना और उन्हें लागू करना है।
भारत का संविधान बनाए हुए 71 साल पूरे हो गए हैं। वही संविधान जो सभी नागरिकों को समानता की गारंटी देता है, जिसमें सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी महिलाएं शामिल हैं। यह संविधान निर्माताओं द्वारा उठाया गया स्वाभाविक कदम था। महिलाओं के समान अधिकारों को देखते हुए, यह संभव है कि उन्होंने उस कड़वी वास्तविकता को देखा जब उस समय दुनिया भर में उदार लोकतंत्रों ने महिलाओं को मतदान के सार्वभौमिक अधिकार की गारंटी देने से इनकार कर दिया था। यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि संविधान के निर्माताओं ने महिलाओं को औपचारिक समानता की गारंटी देने के लिए खुद को सीमित नहीं रखा, बल्कि अनुच्छेद 15 (3) (‘इस अनुच्छेद में कुछ भी सरकार को महिलाओं और बच्चों के लिए कोई विशेष नियम बनाने से नहीं रोकता है’) के द्वारा सरकार के लिए समानता को बढ़ावा देने की दिशा में कदम उठाने का मार्ग प्रशस्त किया। यह एक महत्त्वपूर्ण प्रावधान था क्योंकि संविधान के निर्माताओं ने महसूस किया कि अनुच्छेद 15 ही केवल पर्याप्त नहीं था और एक विशिष्ट प्रावधान की आवश्यकता थी ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि महिलाएं समानता के अधिकार का प्रयोग कर सकें।
क्या हम इन लक्ष्यों को प्राप्त कर पाने के लिए सक्षम हो गए हैं? विधायी शाखा, जिसमें राज्य सभा और लोक सभा शामिल हैं, में मौजूद संसद के 795 सदस्यों में से केवल 103 महिलाएं हैं। यह लगभग 13 प्रतिशत प्रतिनिधित्व है। यहां स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि क्या हम देश के रूप में वास्तव में समान प्रतिनिधित्व के लिए प्रतिबद्ध हैं, खासकर जब हमारे लोकतंत्र का पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि निकाय मुख्य रूप से देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक का प्रतिनिधित्व नाम मात्र हो?
दुर्भाग्य से, प्रतिनिधित्व की यह कमी विधायिका तक सीमित नहीं है, बल्कि यह न्यायपालिका तक फैली हुई है, जहां उच्चतम न्यायालय में महिला न्यायाधीशों का अनुपात 6 प्रतिशत है, उच्च न्यायालयों में 11.5 प्रतिशत और निचली अदालतों में 27.6 प्रतिशत है। ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि न्यायपालिका के शीर्ष पदों के सभी स्तरों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे घट रहा है। यह तथ्य इसलिए भी हतोत्साहित करने वाला है क्योंकि जिस संस्थान से संविधान के सिद्धांतों को बनाए रखने की अपेक्षा की गई थी, वह इस संबंध में विफल रहा है। जहां तक पुलिस में प्रतिनिधित्व का सवाल है, स्टेट ऑफ पुलिसिंग रिपोर्ट-2019 के अनुसार, देश के पुलिस बल में महिलाओं का अनुपात केवल 7.28 प्रतिशत है। यह कमी आश्चर्यजनक है क्योंकि कानून के अनुसार, एक महिला पुलिस अधिकारी को किसी महिला अभियुक्त की गिरफ्तारी के समय उपस्थित होना होता है। प्रतिनिधित्व में महिलाओं की भारी कमी के कारण पुलिस उपरोक्त कानून पर अमल कैसे कर सकती है? और अगर यह मान भी लिया जाए कि पुलिस नियमों और विनियमों का पालन करने में विफल रही, तो क्या यह अभियुक्तों की गरिमा और अधिकारों का उल्लंघन नहीं होगा?
यह डॉ. बीआर अंबेडकर थे जिन्होंने कहा था कि संविधान उतना ही अच्छा होता है, जितना लोग इसे लागू करते हैं। इसीलिए आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्रीय राज्य को ऐसी संस्थाएं बनानी चाहिए जो स्वयं संवैधानिक मूल्य रखती हों, जो उनके मूल भाव थे। महिलाओं को निष्पक्ष प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए इन संस्थानों की विफलता, स्पष्ट रूप से याद दिलाती रहती है कि कैसे एक शानदार दस्तावेज को खराब तरीके से लागू किया गया। इस शताब्दी के दो दशक बीत चुके हैं। भारत को कम से कम अब उस अतीत के प्रतिगमन को अलविदा कह देना चाहिए जो इसके संस्थानों के दिमाग में पकड़ बना चुका है। अब, जबकि देश अधिक न्यायसंगत भविष्य की ओर बढ़ने का इच्छुक है, उसे अपने संस्थानों में सुधार करके शुरुआत करनी चाहिए ताकि वे अपने सबसे महत्त्वपूर्ण संबंधित लोगों का बेहतर प्रतिनिधित्व कर सकें।
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